मवेशियों की सर्कुलर अर्थव्यवस्था की कमर टूट रही है जिससे भारत के सबसे गरीब लोगों की आजीविका खतरे में पड़ गई है। मवेशी अर्थव्यवस्था 9.18 लाख करोड़ की है जो मुख्यत: लघु और सीमांत किसानों द्वारा संचालित होती है
रहमदीन खान लगभग एक साल से ठीक से नहीं सो पाए हैं। राजस्थान के अलवर जिले में अरावली की पहाड़ियों के पास 500 घरों वाले खोआबास गांव में रहने वाले रहमदीन लगभग चार साल पहले एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना के गवाह बने थे।
इस घटना ने उनके परंपरागत पहनावे सफेद कुर्ता पायजामे को छोड़कर उनकी पूरी जिंदगी बदलकर रखी दी जिसे बताने से भी उनकी जुबान लड़खड़ाती है। घर के आसपास घूमती सावधान नजरें उन्हें परेशान करती हैं। उनके घर में बकरियां और भैंस तो हैं, लेकिन वे मवेशी नहीं हैं जो कभी उनकी आमदनी का मुख्य स्रोत हुआ करते थे। सदियों से राजस्थान के ऐसे गांवों ने मवेशी अर्थव्यवस्था में काफी सुधार किया है। देश के इस हिस्से में खाद्य फसलें द्वितीयक अर्थव्यवस्था का हिस्सा हैं।
2017 में जब वह एक स्थानीय मवेशी मेले में जा रहे थे, तभी कथित गो रक्षकों के समूह ने रहमदीन की पिटाई कर दी और बछड़ों के साथ उसकी दो दुधारू गाय ले गए। इसके बाद घायल और अपमानित रहमदीन ने अपने सभी मवेशियों को छोड़ने का फैसला किया। इसी के साथ उन्होंने अपनी मुख्य अर्थव्यवस्था को त्याग दिया।
फर्श पर निहारते हुए रहमदीन कहते हैं,“मवेशी अर्थव्यवस्था के पोषणकर्ता से हमें गायों के दुश्मन के रूप में देखा गया। इससे भी बदतर यह कि गो तस्कर के रूप में हमारी छवि बनाई गई।”
इसके बाद पुलिस ने गांव में कई बार छापेमारी की। जानवरों के खिलाफ क्रूरता को नियंत्रित करने वाले कानूनों के आरोप में रहमदीन जैसे कई डेयरी किसानों को जेल में डाल दिया गया। उनका आरोप है कि 2014-17 में मुझे दो बार गिरफ्तार किया गया। जेल से निकलने के लिए उन्हें 40,000 रुपए देने पड़े।
2018 में उन्होंने हिंसा के डर से पशुपालन छोड़ दिया। रहमदीन कहते हैं, “अपने 65 मवेशियों को त्यागने के बाद मन में एक अजीब बेचैनी है।”
वह बताते हैं, “यह हमारे लिए एक प्राकृतिक अर्थव्यवस्था है। यह हमारी समृद्धि को पारिभाषित करता है। इसके बिना हम समृद्धि की कल्पना नहीं कर सकते।” एक समय समृद्ध निवासी माने जाने के बाद, रहमदीन अब गरीबी रेखा से नीचे के किसान के रूप में माने जा सकते हैं।
उनकी शिकायत यह है कि वह “उन” लोगों द्वारा गरीबी के दलदल में धकेले गए हैं, जो भूख और गरीबी से रक्षा की बात करते हैं। गांव के निवासियों को पता है कि वे लोग कौन हैं, लेकिन वे कभी उनका नाम नहीं लेते। रहमदीन ने कहा, “मुझे मवेशियों के बिना नींद नहीं आती।”
उनकी ही तरह, गांव के अन्य निवासियों ने भी मवेशियों की आवाजाही पर मंडराते हिंसा के बादल, राज्य में लागू किए गए कड़े गाय व्यापार विरोधी कानूनों को देखते हुए मवेशी पालन छोड़ना शुरू कर दिया।
मवेशी अब गांव के परिदृश्य से गायब हो गए हैं। कुछ घरों में भैंस हैं, जबकि अन्य घरों में या तो बकरियां हैं या दोनों। यह स्थिति एक आर्थिक प्लेग की तरह है जो एक के बाद एक अपने शिकार करते हुए अंतत: हर किसी को अपना शिकार बना रही है।
राजस्थान में गोरक्षकों द्वारा नियमित रूप से छापे मारे जाते हैं और अक्सर वे हिंसक हो जाते हैं। राजस्थान बोवाइन एनीमल (वध प्रतिषेध और अस्थायी प्रवासन या निर्यात पर प्रतिबंध) एक्ट, 1995 के तहत पुलिस ने 2017 में 389 मामले दर्ज किए। राज्य सरकार ने 2015 में इस अधिनियम में संशोधन कर मवेशियों को अवैध रूप से ले जाने में लगे वाहन को जब्त करने और गिरफ्तारी के साथ दंडित करने का प्रावधान किया। 2016 में 474 जबकि 2015 में 543 मामले दर्ज किए गए।
राज्य में गाय तस्करी या कत्लेआम के संदेह में गोरक्षकों द्वारा लिंचिंग की घटनाएं हुईं। अगस्त 2018 में, उच्चतम न्यायालय ने जुलाई में अलवर जिले में हुई लिंचिंग की घटना पर राज्य सरकार के गृह विभाग के प्रधान सचिव को निर्देश दिया कि वह इस केस में की गई कार्रवाई का विवरण देते हुए हलफनामा दायर करें।
राजस्थान ही नहीं बल्कि उत्तर भारतीय राज्यों में भी हाल के वर्षों में मवेशियों से संबंधित हिंसा में वृद्धि हुई है।
देश भर के सिविल सोसाइटी समूहों के एक संघ भूमि अधिकार आंदोलन की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में 2010 के बाद से गायों से संबंधित 78 हिंसा (इसमें से 50 उत्तरी भारत के राज्यों में) हुईं। गौर करने वाली बात यह है कि 97 प्रतिशत हमले 2014 के बाद के हैं।
इन सभी घटनाओं में 29 लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। इनमें से ज्यादातर पीड़ित वे हैं, जो पारंपरिक रूप से मवेशी अर्थव्यवस्था पर जीवित रहे हैं। हालांकि, केंद्र सरकार ने संसद में ऐसे किसी भी आंकड़े से इनकार किया है क्योंकि यह काम राज्यों का है।
मवेशियों के व्यापार/ आवाजाही पर छापे न्यू नॉर्मल (सामान्य घटनाएं) बनती जा रही हैं, गांव बुरे इकोनॉमिक जोन में बदल रहे हैं और गाय एक खारिज नस्ल बनती जा रही है। खोआबास गांव इस बदलाव को दर्शाता है।
पहाड़ी इलाकों तक सीमित उनकी चराई भूमि की घेराबंदी सेना द्वारा एक रक्षा परियोजना के लिए कर दी गई है। इसलिए, स्थानीय निवासी अपने मवेशियों के चारागाह की तलाश में गांव के समानांतर चलने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग के साथ 10 किमी तक जाते हैं। गोरक्षकों द्वारा अधिकांश रेड इसी समय होती हैं। इससे मवेशियों को पालना फायदे का सौदा नहीं रह गया है। उन्हें बांधकर खिलाना चारे की कीमत बढ़ने के कारण बहुत मुश्किल हो गया है।
खोआबास निवासी अबदल खान, जो रहमदीन की तरह कभी समृद्ध माने जाते थे, कहते हैं, “मैंने अपने 40 मवेशियों को छोड़ दिया है। घर में केवल दो रखा है।” वह अब अलवर शहर में निर्माण स्थल पर दिहाड़ी मजदूर का काम करते हैं। वह बताते हैं, “न तो मैं मवेशी बेच सकता हूं और न ही रख सकता हूं।”
इसी तरह, एक निवासी बद्दन खान ने भी अपनी 50 गायों को छोड़ने के बाद मवेशी पालन बंद कर दिया है। वह अब सार्वजनिक वितरण योजना के ठेकेदार हैं।
कर्ज का दुष्चक्र
अलवर शहर से 45 किलोमीटर दूर साहुवास गांव के सुब्बा खान कर्ज के दलदल में फंसे हुए हैं। 3 अक्टूबर, 2017 को गोरक्षकों के साथ स्थानीय पुलिस ने अरावली पहाड़ियों पर चरते हुए उनके 51 मवेशियों को जब्त कर लिया। पुलिस ने उनके बेटे इमरान को गाय तस्करी के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। किशनगढ़बास पुलिस स्टेशन ने कोई मामला दर्ज तो नहीं किया, लेकिन स्थानीय श्रीकृष्ण गोशाला की देखरेख में मवेशियों को सौंप दिया।
सुब्बा कहते हैं, “मैंने दुधारू गायों को मुक्त करने की प्रार्थना की ताकि बछड़ों को दूध पिलाया जा सके, लेकिन न तो पुलिस और न ही गोशाला ने मेरी प्रार्थना पर ध्यान दिया। मैंने बछड़ों के लिए पांच लीटर दूध खरीदा लेकिन उससे कुछ नहीं हुआ। एक सप्ताह के बाद 20 बछड़ों की भूख से मौत हो गई।”
सुब्बा का आरोप है कि गौशाला ने मेरे मवेशियों को खिलाने के लिए 2 लाख रुपए की मांग की। अधिकारियों के हाथ पैर जोड़ने और कुछ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और वकीलों की सहायता से 51 मवेशियों को छोड़ दिया गया, वह भी इस बात का आधिकारिक प्रमाण पत्र देने के बाद कि वह तस्करी में शामिल नहीं था।
सुब्बा कहते हैं, “लेकिन एक सप्ताह के भीतर आठ गायों की मौत हो गई। मैंने पूरी प्रक्रिया में लगभग 3 लाख रुपए खो दिए। मैं इस नुकसान से उबर नहीं पाया हूं।” सुब्बा हर दिन लगभग 300 लीटर दूध का व्यापार करते थे जो अब घटकर 30-40 लीटर दूध का रह गया है।
अब भी मवेशी पालन की हिम्मत दिखाने वाले सुब्बा असाधारण हैं। उनके गांव के 25 घरों ने मवेशी पालन छोड़ दिया है। उनमें से ज्यादातर मजदूरी करने के लिए अलवर, जयपुर या दिल्ली चले गए हैं।
वह अब भी मवेशी पालन क्यों करते हैं? यह पूछने पर वह कहते हैं कि मैं अन्य व्यवसाय करना नहीं जानता।” उनके बड़े भाई पहले ही घाटे को पूरा करने के लिए दिहाड़ी मजदूरी की तलाश में पलायन कर चुके हैं।
व्यापार में सूक्ष्म व्यवधान धीरे-धीरे अपने व्यापक प्रभाव दिखा रहा है। आधिकारिक आंकड़ों से पता चलता है कि राजस्थान के विभिन्न पशु मेलों में मवेशियों के व्यापार में 90 प्रतिशत तक की कमी आई है।
लोकप्रिय पुश्कर मेले में 2017 में केवल 161 मवेशियों को व्यापार के लिए लाया गया था और केवल आठ का व्यापार हुआ। 2012 में, 4,000 से अधिक मवेशियों को लाया गया और उनमें से आधे का कारोबार हुआ। साल 2018 में पूरे राज्य में 2,000 मवेशी मेलों में लाए लेकिन महज 500 मवेशी ही बेचे जा सके।
मवेशी अर्थव्यवस्था देश के सबसे गरीब लोगों के सर्कुलर अर्थव्यवस्था का एक आदर्श उदाहरण है। गायों को दूध देने तक उत्पादक कहा जाता है। वे तीन से 10 साल की उम्र तक दूध देती हैं, लेकिन 25-30 साल तक जीवित रहती हैं। एक बार उत्पादकता आयु समाप्त हो जाने के बाद, मालिकों के लिए वे अर्थव्यवस्था की दृष्टि से अनुत्पादक होती हैं।
अधिकांश इन गायों की बिक्री करते हैं और यह माना जाता है कि जो लोग उन्हें खरीदते हैं, उन्हें मार डालते हैं। इससे होने वाली कमाई नए मवेशियों की खरीद में लगती है और इस तरह गरीबों की अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाती है।
पूर्ववर्ती योजना आयोग के पूर्व सदस्य किरीट पारिख के अनुसार, अनुत्पादक उम्र वाली गायों की संख्या कुल गाय आबादी का सिर्फ 1-3 प्रतिशत है। पारिख के अनुमान के अनुसार, 10 वर्ष से अधिक आयु के बैल/सांड की संख्या कुल बैल/सांड की संख्या का सिर्फ 2 प्रतिशत ही है। इन्हें भी किसानों द्वारा बेचा जाता है।
एक गाय अपने जीवनकाल में कम से कम चार से पांच किसानों के घरों से होकर गुजरती है। इससे मवेशियों के नस्ल सुधार में मदद मिलती है।
यह बताता है कि किसान उत्पादक और गैर-उत्पादक मवेशियों के बीच संतुलन कैसे बनाते हैं। इसके अलावा, कृषि क्षेत्र की तुलना में पशुधन अर्थव्यवस्था एक बड़ी अर्थव्यवस्था है। हालांकि कृषि क्षेत्र का उल्लेख करते हुए दोनों को एक साथ जोड़ा जाता है।
किसानों की आय दोगुनी करने के लिए गठित सरकारी समिति का कहना है कि कृषि संकट के खिलाफ सबसे अच्छा बीमा पशुधन क्षेत्र से मिलने वाली निरंतर आय स्रोत है और यह फसल क्षेत्र की तुलना में अधिक बार आय उत्पन्न करता है। इस समिति ने बताया कि पिछले 35 वर्षों से पशुधन उप-क्षेत्र ने कभी भी नकारात्मक वृद्धि की सूचना नहीं दी है।
अब, यह सर्कुलर अर्थव्यवस्था पंक्चर होती जा रही है।
अलवर और आसपास के अन्य जिलों के कई दूध संग्राहक दूध उत्पादन में गिरावट की बात करते हैं। गाजौद गांव के एक दुग्ध संग्रहकर्ता सहाबुद्दीन की आमदनी पिछले दो वर्षों के मुकाबले अब आधी रह गई है। सहाबुद्दीन कहते हैं, “मैंने तीन साल पहले पांच गांवों से 800 लीटर दूध इकट्ठा करने के लिए पांच लोगों को नौकरी दी थी और अब 2018 में दूध की वह मात्रा एक चौथाई रह गई है।” वह हिचकिचाते हुए कहते हैं कि लोगों के पास अब गायों की संख्या कम है। वह अब केवल दूध एकत्र करते हैं, जबकि निवासियों का कहना है कि सिर्फ तीन साल पहले हर गांव में पांच से 10 दूध एकत्र करने वाले होते थे।
ध्यान देने की जरूरत
यह भारत के 5.5 लाख करोड़ (2015 का अनुमान) से अधिक के डेयरी उद्योग के लिए एक डरावनी चेतावनी हो सकती है, जिसमें 73 मिलियन छोटे और सीमांत डेयरी किसान शामिल हैं।
दिल्ली की डेयरी कंपनी, क्वालिटी लिमिटेड के चेयरमैन आरएस खन्ना कहते हैं, “सरकार के लिए इसे जल्दी समझना और ऐसे प्रतिगामी कानूनों से पीछे हटना बेहतर होगा, जिससे डेयरी विकास में बाधा आती है।”
सरकारी दस्तावेजों के मुताबिक, मवेशी कृषि अर्थव्यवस्था के विकास में सहायक हैं। कृषि से प्राप्त होने वाले सकल मूल्य में मवेशियों की हिस्सेदारी बढ़ी है जबकि फसलों की घटी है।
भारत का आर्थिक सर्वेक्षण 2018 बताता है कि 2011-12 में सकल मूल्य में फसलों की हिस्सेदारी 65 प्रतिशत थी जो 2015-16 में घटकर 60 प्रतिशत रह गई है। इस अवधि में मवेशियों की हिस्सेदारी 22 प्रतिशत से बढ़कर 26 प्रतिशत हो गई।
केंद्रीय सांख्यकीय कार्यालय की एक रिपोर्ट में 2016-17 मूल्य के अनुसार, मवेशियों का मूल्य 917,910 करोड़ आंका गया है। इसका दो तिहाई मूल्य यानी 614,397 करोड़ दूध से आता है। अनाज से प्राप्त होने वाले मूल्य 652,787 करोड़ से यह थोड़ा ही कम है। 2014-15 में दूध का मूल्य अनाज के मूल्य से अधिक हो गया था।
पशुधन अर्थव्यवस्था इस वक्त दोराहे पर खड़ी है। यह अर्थव्यवस्था कृषि और ढुलाई से दुग्ध उत्पादन में परिवर्तित हो रही है। इसकी एक वजह यह भी है कि 1970 के दशक के बाद से कृषि का मशीनीकरण हुआ है। खेती में पिछले चार दशकों में मशीनों ने ड्राउट नस्ल (कम दूध देने वाली गाय और अच्छे बैल) की जगह ले ली है। नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस के आंकड़े बताते हैं कि 1971-2012 के दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में मवेशियों की संख्या 18 प्रतिशत कम हुई है। इस कालखंड में यह संख्या 169 मिलियन से घटकर 135 मिलियन पर पहुंच गई है।
खेती में मशीनों का चलन बढ़ने के साथ ही ड्राउट पशु अनुत्पादक और बेकार हो गए। इसी के साथ ज्यादा दूध देने वाली गायों की नस्लों पर ध्यान दिया जाने लगा। इसी कारण 2007-12 के बीच दुधारू नस्लों में 28 प्रतिशत से अधिक की बढ़ोतरी हो गई।
लेकिन अब इस सेक्टर पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं।
("भारत का गाय संकट" सीरीज का यह दूसरा लेख है। इस सीरीज में पशु व्यापार पर लगे प्रतिबंध और गोरक्षा से पड़ने वाले प्रभाव का आकलन किया जाएगा)