1960 के दशक की हरित क्रांति ने भारत को भुखमरी के कगार से वापस खींचकर इसे एक आत्मनिर्भर और एक बड़े खाद्य निर्यातक देश में बदल दिया। लेकिन इस क्रांति के कारण भारत दुनिया का सबसे बड़ा भूजल उत्सर्जक देश भी बन गया।
संयुक्त राष्ट्र की “विश्व जल विकास रिपोर्ट, 2022” के अनुसार, भारत में हर साल दुनिया के भूजल निकासी का एक चौथाई यानी 251 क्यूबिक किमी पानी जमीन से निकाला जाता है। इसमें से 90 फीसदी पानी का इस्तेमाल कृषि के लिए होता है।
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली द्वारा 2019 के एक अध्ययन से पता चलता है कि देश में गेहूं, चावल और मक्का उपजाने वाले 39 मिलियन हेक्टेयर जमीन पर पिछले एक दशक में कोई सुधार नहीं हुआ है। यदि देश की कुपोषित आबादी के लिए अन्न चाहिए तो लोगों को प्रकृति के खिलाफ नहीं बल्कि प्रकृति के साथ तालमेल बिठाकर काम करना होगा।
दुनियाभर के किसान कार्यकर्ता और कृषि अनुसंधान संगठन ऐसे रसायन-रहित खेती के तरीके विकसित कर रहे हैं, जिसमें प्राकृतिक तत्वों, फसल चक्र और विविध खेती के तरीकों का उपयोग हो सके। खेती की यह प्रथा सतत कृषि से एक कदम आगे है और मिट्टी व पानी जैसे प्राकृतिक संसाधनों का न सिर्फ संरक्षण बल्कि उसे और बेहतर बनाती है।
संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन शाखा के अनुसार, स्वस्थ मिट्टी से बेहतर जल भंडारण में मदद मिलती है। पानी के उपयोग में सुधार से मिट्टी के स्वास्थ्य और पोषक तत्वों में भी सुधार होता है।
अध्ययनों से पता चला है कि अगर प्रति 0.4 हेक्टेयर जमीन में मृदा कार्बनिक पदार्थ का एक प्रतिशत बढ़ता है, तो इससे जमीन की जल भंडारण क्षमता 75,000 लीटर से अधिक बढ़ जाती है। मृदा कार्बनिक पदार्थ, मृदा स्वास्थ्य का एक संकेतक होता है।
भारत में केंद्र सरकार पुनर्योजी कृषि (रिजनरेटिव एग्रीकल्चर) को बढ़ावा दे रही है, जिसका उद्देश्य रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के उपयोग व लागत को कम करना है।
उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, आंध्र प्रदेश, सिक्किम और गुजरात जैसे राज्यों ने भी इसे बढ़ावा देने के लिए योजनाएं शुरू की हैं। लेकिन यह देखते हुए कि भारत में मिट्टी की सेहत अत्यधिक खराब है, क्या यह दृष्टिकोण देश के जल संकट को कम करने में मदद कर सकता है?
दिल्ली स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट (सीएसई) की “स्टेट ऑफ बायो फर्टिलाइजर्स एंड ऑर्गेनिक फर्टिलाइजर्स इन इंडिया” 2022 की रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय मिट्टी में कार्बनिक पदार्थों और सूक्ष्म पोषक तत्वों की गंभीर और व्यापक कमी है।
सीएसई के शोधकर्ताओं ने पुनर्योजी कृषि के लाभों और पानी की उपलब्धता के बारे में पता लगाने के लिए वैज्ञानिकों और किसानों से बात की। इसका निष्कर्ष था कि पानी बचाने में पुनर्योजी कृषि की भूमिका को समझने के लिए अभी और ठोस अध्य्यन की आवश्यकता है। इस शोध के वैज्ञानिक निष्कर्ष भविष्य के नीतिगत उपायों और पहल को लागू करने में भी मदद करेंगे।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईसीएआर-आईएआरआई), दिल्ली के प्रमुख वैज्ञानिक और जैविक खेती विशेषज्ञ दिनेश कुमार कहते हैं, “जैविक खेती, मिट्टी की संरचना में सुधार और इसकी जैविक तत्वों को बचाए रखने में पर्याप्त मदद करती है।”
पुनर्योजी कृषि प्रथाओं में प्राकृतिक तत्वों का उपयोग, न्यूनतम-जुताई, मल्चिंग और बहुफसली व विविध देशी किस्मों की बुवाई शामिल है। सिद्धांत रूप में प्राकृतिक तत्व, मिट्टी की संरचना और इसकी जैविक कार्बन सामग्री को बेहतर बनाने में मदद करते हैं।
वहीं पानी अवशोषित करने वाली फसलों और जल-कुशल फसलों को एक साथ या वैकल्पिक चक्रों में उपजाने से सिंचाई की जरूरत भी कम पड़ती है। इससे ऊर्जा का भी संरक्षण होता है।
आईसीएआर-आईएआरआई और अन्य कृषि संस्थानों के अनुसार, ये प्रथाएं अक्सर जैविक किसानों द्वारा अपनाई जाती हैं। इन प्रथाओं में फसल चक्र में बदलाव, खेत में अवशेषों को छोड़ना और सूक्ष्म सिंचाई शामिल है। इससे बेहतर जल संरक्षण होता है।
हालांकि अब तक पुनर्योजी कृषि की जल बचत क्षमता पर कोई संरचित अध्ययन नहीं किया गया है। जैविक खेती पर राष्ट्रीय परियोजना इस अभ्यास पर देश का सबसे लंबा प्रयोग है, जो 2004 से चल रहा है।
इसे आईसीएआर-इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फार्मिंग सिस्टम रिसर्च, मेरठ द्वारा संचालित किया जाता है। हालांकि यह भी जल दक्षता को मापन नहीं करता है। केंद्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, जोधपुर ने हाल ही में इस विषय पर एक अध्ययन शुरू किया है, लेकिन इसका डेटा अगले तीन या चार साल तक उपलब्ध नहीं होगा।
जमीन पर साक्ष्य
जमीनी स्तर पर कुछ ऐसे विश्लेषण हुए हैं जो पुनर्योजी कृषि, मृदा स्वास्थ्य और पानी की बचत के बीच संबंधों की पुष्टि करते हैं।
पंजाब में काम करने वाले नागरिक समाज संगठन खेती विरासत मिशन ने 2021-22 में राज्य के 350 से अधिक जैविक किसानों का एक सर्वेक्षण किया। सर्वे किए गए किसानों में से 93.6 प्रतिशत का दावा है कि इससे उनके जमीन की जल धारण क्षमता में वृद्धि हुई है। अधिकांश मामलों में जैविक खेती ने उनकी सिंचाई आवश्यकताओं को 30-60 प्रतिशत तक कम कर दिया।
जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा स्थापित एक गैर-लाभकारी संगठन रयथू साधिका संस्था ने पानी और ऊर्जा की खपत पर राज्य में दो अध्ययन किए। 2020 के इस अध्ययन में रासायनिक खेती और जीरो-बजट प्राकृतिक खेती के परिणामों की तुलना की गई।
जीरो बजट प्राकृतिक खेती, जिसे अब सुभाष पालेकर प्राकृतिक खेती के रूप में भी जाना जाता है, में फसल अवशेष, गोबर, गोमूत्र और फलों से बने उर्वरक का उपयोग करने पर जोर दिया जाता है। अध्ययनों से पता चलता है कि प्राकृतिक खेती में सिंचाई की आवृत्ति समय के साथ घटती जाती है।
समाज प्रगति सहयोग मध्य प्रदेश में एक जमीनी स्तर का संगठन है, जो कृषि कीटों को नियंत्रित करने के लिए खेती के प्राकृतिक तरीकों का उपयोग करती है। इस संस्था ने प्राकृतिक खेती से संरक्षित हुए पानी को मापने के लिए 2016-18 में मध्य प्रदेश के चार जिलों और महाराष्ट्र के एक जिले में 2,000 हेक्टेयर से अधिक भूमि पर 1,000 किसानों के साथ फील्ड परीक्षण किया।
इसके परिणाम, 2018-19 के एक वार्षिक रिपोर्ट में प्रकाशित हुए, जिसके अनुसार फसल प्रणालियों को बदलने और सूक्ष्म सिंचाई प्रौद्योगिकियों जैसे स्थायी कृषि प्रथाओं को नियोजित करने से लगभग 15 बिलियन लीटर पानी की बचत हुई। गेहूं, धान और गन्ने जैसी पानी की अधिक खपत वाली फसलों की जगह चना या चना जैसी कम पानी शोषक फसलों को लगाने से 5.53 बिलियन लीटर की बचत हुई।
केंद्रीय आवास और शहरी मामलों के मंत्रालय के अनुसार, शहरी और ग्रामीण भारत में जल आपूर्ति क्रमशः 135 लीटर और 55 लीटर प्रति व्यक्ति प्रतिदिन है। इसका मतलब है कि देश को प्रति दिन 15 अरब लीटर पानी की जरूरत है।
सीएसई ने उन किसानों से भी बात की, जो ट्रायल का हिस्सा थे। मध्य प्रदेश के देवास जिले के उदयनगर गांव के एक किसान मांगीलाल राठौर कहते हैं, “पहले हमें अपने खेत को पानी से पूरा भरने (बाढ़-सिंचाई) के लिए चार घंटा पंप चलाना पड़ता था, जो अब एक घंटा हो गया है। इसके अलावा अधिकांश फसलों के लिए सिंचाई की मात्रा कम हो गई है।”
धार जिले के दाद गांव की यशोदा बाई कहती हैं, “हमें अपने खेत में बुवाई से पहले अब पानी देने की जरूरत नहीं पड़ती है। हम अब रबी की फसल लेते हैं, जो हम पहले नहीं करते थे।”
हालांकि इन साक्ष्यों को अभी वैज्ञानिक अध्ययनों द्वारा समर्थित होने की आवश्यकता है। आईसीएआर-आईएआरआई के कुमार के अनुसार बचाए गए पानी की गणना के कई तरीके हैं।
उन्होंने कहा, “इसके वैज्ञानिक अध्ययन के लिए सबसे सरल तरीका तीन-चार कृषि भूखंडों को तैयार करना और उन्हें अलग-अलग गहराई पर सींचना है। फसल चक्र के अंत में पानी की दक्षता की गणना भूखंडों से उपज को विभाजित करके की जाती है।
जैसा कि हम जानते हैं कि किस भूखंड को कितने यूनिट पानी दिया गया है, हम गणना कर सकते हैं कि कितना पानी बचाया गया है।”
हालांकि सिविल सोसाइटी और किसानों के पास इसके दीर्घकालिक अध्ययन करने की क्षमता नहीं है। पारिस्थितिक संसाधनों के संरक्षण के लिए काम करने वाली हैदराबाद की एक गैर-लाभकारी संस्था वाटरशेड सपोर्ट सर्विसेज एंड एक्टिविटीज नेटवर्क (वासन) के सहयोगी निदेशक दिनेश बालम कहते हैं, “वैज्ञानिक ही इस तरह के परीक्षणों और गणनाओं को करने के लिए सबसे अच्छी तरह से सुसज्जित हैं।” इस तरह के शोध पुनर्योजी कृषि को बढ़ावा देने के लिए एक लंबा रास्ता तय करेंगे।
जल बचाने में पुनर्योजी कृषि की भूमिका पर पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध हैं, लेकिन सरकार को नीति बनाने के लिए सूचित करने और भविष्य के पहलों को सुविधाजनक बनाने के लिए ठोस वैज्ञानिक अनुसंधान की आवश्यकता है।