कृषि संकट : सिर्फ मतदाता नहीं हैं अन्नदाता

हरित क्रांति के बाद कृषि और अर्थव्यवस्था में जबरदस्त उछाल आया। गांव के लोगों का जीवन स्तर पूरी तरह बदल गया था। लेकिन यह खुशी पांच दशक से ज्यादा नहीं टिक पाई।
कृषि संकट : सिर्फ मतदाता नहीं हैं अन्नदाता
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क्या नई सरकार अन्नदाताओं की उम्मीद और सहारा बनेगी? इन दिनों भारत एक बड़े कृषि संकट से जूझ रहा है। आपदा झेलते किसानों की बात को गंभीरता से सुनने वाला कोई नहीं है। पांच दशक पहले देश ने भीषण खाद्य संकट झेला था, इस संकट से ऊबारने वाली हरित क्रांति भी अब पस्त हो चुकी है। डाउन टू अर्थ ने इसकी जमीनी पड़ताल भी की है।

 28 नवंबर, 2018 देश के इतिहास की वह तारीख है। जब संकटग्रस्त किसानों का एक बड़ा जत्था सड़कों पर उतरा था। कृषि संकट झेल रहे यह किसान लाखों की संख्या में शांतिपूर्ण तरीके से सड़कों पर आए और अपनी मांग रखकर वापस लौट गए। इस वक्त चल रहे कृषि संकट के वजहों में जाने से पहले हमें आजादी के बाद जन्म लेने वाले सबसे बड़े खाद्य संकट और उसके समाधान को भी याद कर लेना चाहिए। यह 1960 का भारत था जब देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती खड़ी थी। यह चुनौती पाकिस्तान नहीं बल्कि गरीबी थी।

 स्थितियां 1960 के बाद से खराब होने लगी थीं।‌ भारत अनाज के लिए अमेरिका पर निर्भर हो गया था। अमेरिका से होने वाली अनाज की आपूर्ति बेहद कम और अनियिमित थी। इसी वक्त में जहाज के जरिए अनाज भेजा जा रहा था। शिप टू माउथ का मुहावरा चलन में था। यानी अन्न के लिए दूसरे देशों से आने वाले जहाजों पर पूरी तरह निर्भरता। देश के भीतर अनाज वितरण की प्रणाली भी कमजोर थी इसके चलते बहुत से लोगों तक अनाज पहुंच नहीं रहा था।करीब पांच करोड़ लोग भीषण भूख के संकट का शिकार थे। अकाल, सूखा और बेहद कम अनाज उत्पादन के साथ खराब वितरण ने संकटग्रस्त स्थितियां पैदा कर दी थीं।

खाद्य संकट से उबारने के लिए भारत को तत्काल राहत और बड़े समाधान की जरूरत थी। 1966 का दौर था तब भी अकाल और सूखे ने भारत का पीछा नहीं छोड़ा था।लगातार दूसरे देशों से जहाज के जरिए जरूरत का अनाज मंगाया जा रहा था। भारत ने तय कर लिया था कि अनाज उत्पादन में वह अपने पैरों पर खड़ा होगा। उसी वर्ष एक नई क्रांति के जन्म की इबारत लिखी गई। इस बड़े मिशन की तैयारी शुरु हुई। इसके लिए वैज्ञानिक एमएस स्वामीनाथन को चुना गया। जो बाद में हरित क्रांति के जनक कहलाए।

स्वामीनाथन ने भारत के बाहर से हाइब्रिज बीज का आयात किया। उनकी अगुवाई में ज्यादा अनाज पैदा करने की क्षमता रखने वाले बीजों को विकसित किया गया। अब बारी विकसित किए गए बीजों के प्रयोग की थी। दिल्ली के बाहरी क्षेत्र में मौजूद जौंती गांव को खेती के नए प्रयोग के लिए चुना गया। जौंती गांव के किसान अनजान थे कि वे ही इस देश में हरित क्रांति के झंडाबरदार बनने जा रहे हैं। खैर प्रयोग सफल रहा। देश खाद्य संकट से उबर गया। चारो तरफ हाइब्रिज बीजों का बोलबाला हुआ।  

अब पांच दशक बाद जब कृषि संकट ने भारत को घेरा तो डाउन टू अर्थ ने जौंती गांव से ही मौजूदा संकट और स्थितियों के बारे में जानकारी जुटाई। किसानों से पूछा गया कि जब कृषि संकट अपने चरम पर था उस वक्त जौंती गांव का क्या हुआ? 87 वर्षीय हुकुम सिंह बताते हैं कि हरित क्रांति के बाद सबकुछ बदल गया। कृषि और अर्थव्यवस्था में जबरदस्त उछाल आया। लोगों ने बचत शुरु की और उनके खर्चे भी बढ़ गए। गांव के लोगों का जीवन स्तर पूरी तरह बदल गया था। लेकिन यह खुशी पांच दशक से ज्यादा नहीं टिक पाई। सभी चीजों की तरह यह बदलाव भी स्थायी नहीं रहा।

एक ओर जहां खर्चे आसमान पर हैं वहीं आज उत्पादन फिर से गिर चुका है। हरित क्रांति के बाद से जहां बंपर अनाज पैदावार थी वहां दाना मिलना मुश्किल हो रहा है। किसानों कंगाल हो रहे हैं। वहीं, जौंती जैसे भारत के कई गांव बड़े स्तर पर कृषि संकट झेल रहे हैं। जौंती गांव के इर्द-गिर्द घूमकर यह बात साफ हुई कि यह गांव जलसंकट से भी गुजर रहा है क्योंकि प्राकृतिक वर्षा और पानी का प्रबंधन नहीं किया गया है। इस जलसंकट ने किसानों को और ज्यादा मुसीबत में डाल दिया है। अत्यधिक यूरिया ने खेती की जमीनों को बुरी तरह बर्बाद कर दिया है। जमीन की गुणवत्ता खत्म हो चुकी है। वहीं, सरकारों की अनदेखी जारी है। इन सब वजहों ने मिलकर कृषि संकट को भीषण बना दिया है। यह सिर्फ जौंती की कहानी नहीं है। जौंती तो सिर्फ एक उदाहरण है कि इस देश में खेती-किसानी के साथ क्या गलत हुआ है। 

हर गांव जौंती की कहानी को ही दोहरा रहा है। गांव खाद्य संकट से खेती के संकट में बदल रहे हैं। हरित क्रांति की शुरुआती सफलता भले ही सुखद रही हो लेकिन गलत सार्वजनिक नीतियों और देखभाल की अनदेखी ने कृषि क्षेत्र को गहरे संकट में डाल दिया है। हम मानते हैं कि अतीत की यादों में रहने से बेहतर है कि सुनहरे कल को लेकर सोचा जाए संकटग्रस्त किसानों और आपदाओं से उन्हें बचाने की बात की जाए।

हुकुम सिंह जैसे किसान अब भी भविष्य को लेकर आशावान हैं लेकिन मौजूदा हकीकत काफी गंभीर और भयावह है। नई सरकार को इस पुरानी समस्या का एक बड़ा और स्थायी समाधान ढूंढना होगा। क्योंकि अन्नदाता सिर्फ मतदाता नहीं हैं।

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