भूजल संरक्षण: फसल विविधीकरण अव्यावहारिक, सीधी बिजाई धान है समाधान
पिछले कुछ वर्षों में देश के सबसे उन्नत और अग्रणी कृषि राज्यों पंजाब के 163 में से 115 और हरियाणा के 143 मे से 107 ब्लॉक मे भूजल डार्क जोन मे चले जाने से राष्ट्रीय नीति निर्माताओं का चिन्तित होना स्वाभाविक है। इन राज्यो मे भूजल के लगातार गिरने के लिए शहरीकरण- उद्योगीकरण और धान की खेती को मुख्यतौर पर जिम्मेवार ठहराया जा रहा है।
उत्तर पश्चिम भारत के मैदानी क्षेत्र औसतन वार्षिक 500 मिली वर्षा व सुखा क्षेत्र होने के कारण परम्परागत तौर पर धान उत्पादक क्षेत्र नही थे। जहां वर्ष 1965 तक धान की खेती खरीफ सीजन में लगभग 5 प्रतिशत कृषि भूमि पर होती थी जो आमतौर पर वर्षा ऋतु में जल भराव वाले नदियों के खादर व डाबर (निचले) क्षेत्रों तक सीमित थी।
उस समय धान की खेती दूसरी फसलों की तरह रोपाई से नहीं, बल्कि सीधी बुआई/बिजाई से की जाती थी। यानि वर्षा ऋतु से पहले खेत तैयार करके बीज बिखेरना आदि।
हरित क्रान्ति के दौर (1967-75) में राष्ट्रीय नीति निर्माताओं ने खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए धान की बौनी किस्मों और भूजल बर्बादी वाली रोपाई धान पद्धति को अंतरराष्ट्रीय चावल संस्थान- मनीला से आयात करके अर्द्धशुष्क जलवायु वाले हरियाणा-पंजाब पर थोप दिया।
केंद्र और राज्य सरकार ने रोपाई धान पद्धति को भूजल आधारित बिजली संचालित ट्यूबवेल, सस्ते रसायनिक उर्वरक, आधुनिक मशीनीकरण, समर्थन मुल्य पर सरकारी खरीद जैसे नीतिगत फैसले से लगातार प्रोत्साहित किया। जिसकी बदौलत 1966 से 2024 के दौरान पंजाब मे धान की खेती मे 2.85 लाख से बढ़कर 32 लाख हेक्टेयर और हरियाणा मे 1.92 लाख से बढ़कर 16 लाख हेक्टेयर हो गई।
हरित क्रांति दौर से खड़े पानी वाली रोपाई धान तकनीक अपनाने से (जो एक किलो धान पैदा करने में लगभग 3000 लीटर पानी बर्बाद करती है) जिससे इन क्षेत्रों के भूजल व पर्यावरण को बहुत नुक़सान हुआ है। जिसके प्रभाव से अब इन बहुतायत क्षेत्रों में जीवों के लिए ज़रूरी पीने का भूजल संकट की स्थिति में पहुंच गया है। जबकि खड़े पानी वाली रोपाई धान तकनीक का सिवाय खरपतवार रोकने के धान की पैदावार से कोई सीधा सम्बन्ध नही हैै।
दुनिया में आमतौर पर खड़े पानी वाली रोपाई धान तकनीक ज्यादा बारिश वाले व समुन्दर किनारों के द्वीप क्षेत्रों के लिए उपयुक्त मानी जाती है। तब धान फसल में सिर्फ खरपतवार रोकने के लिए, भूजल बर्बादी वाली रोपाई धान तकनीक को इन सूखे क्षेत्रों में सरकारी प्रोत्साहन से लागू करना देश के नीति निर्माताओं की बड़ी अदूरदर्शीता वाली चूक मानना चाहिए। जो बिना वैज्ञानिक तथ्यों को समझे, अपनी अव्यवहारिक योजनाओं को किसानों पर जबरदस्ती थोप कर देश के किसानों, कृषि व पर्यावरण का नुकसान करते रहते हैंं।
उल्लेखनीय है कि हरियाणा-पंजाब में पैदा हो रही जीआई टेग उच्च गुणवत्ता वाली बासमती धान के निर्यात से देश को लगभग 50,000 करोड रुपए वार्षिक विदेशी मुद्रा मिलती है। फिर सार्वजनिक खाद्य वितरण प्रणाली में केन्द्रीय भंडारण के लिए 20 मिलियन मीट्रिक टन वार्षिक से ज्यादा धान की सरकारी खरीद इन्हीं राज्यों से होती है।
कृषि मूल्य और लागत आयोग की रिपोर्ट के अनुसार गन्ने की फसल के बाद गेहूं-धान का फसल चक्र ही किसानों के लिए आर्थिक और तकनीकी तौर पर सबसे अधिक लाभदायक है। इसलिए धान की खेती के मुकाबले कोई भी खरीफ फसल विविधीकरण विकल्प इन प्रदेशों में किसानों के लिए लाभदायक नहीं हो सकता है।
अब इन प्रदेशों में धान की खेती को लेकर विचित्र स्तिथि बनी हुई है, क्योंकि रोपाई धान को भूजल बर्बादी के लिए जिम्मेवार ठहराया जा रहा है। गैर-तकनीकी और त्वरित समाधान वाले भारतीय प्रशासनिक नीतिकारो ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के नाम भूजल बर्बादी वाली रोपाई धान पद्धती को इन राज्यो पर थोपकर, पहले भूजल संकट पैदा किया।
अब वही नीति निर्माता अव्यावहारिक मक्का आधारित फसल विविधीकरण योजना को प्रोत्साहित करने के लिए पंजाब मे 17,500 रुपए प्रति हेक्टेयर और हरियाणा मे 20,000 रुपए प्रति हेक्टेयर के साथ लागू करके सरकारी धन और संसाधनों को बर्बाद कर रहे हैं।
उल्लेखनीय सत्य है कि हरियाणा में पिछले एक दशक में "मेरा पानी- मेरी विरासत" कागजी योजना में हजारो करोड़ रुपए बर्बाद करने के बावजूद खरीफ मक्का फसल क्षेत्र में कोई बढ़ोतरी और धान के क्षेत्र मे कमी दर्ज नहीं हुई है।
वर्ष-2020 के खरीफ मौसम में हरियाणा के कृषि विभाग ने 2 लाख एकड़ से ज्यादा भूमि पर मक्का उगाने के लिए किसानों मे बहुत महंगा हाइब्रिड बीज बांटा था, लेकिन उस फसल की अनुमानित 40-50 लाख क्विंटल मक्का उपज कभी मंडियों में बिक्री के लिए नहीं आई, जो गैर- तकनीकी और त्वरित समाधान वाले भारतीय प्रशासनिक नीतिकारों की कागजी योजनाओं की विफलता को उजागर करता है।
तथ्य यह है कि मानसून वर्षा के खरीफ मौसम में शिवालिक हिमालय से लगते 100 किलोमीटर तक हरियाणा- पंजाब का आधे कृषि क्षेत्र में प्रतिवर्ष जलभराव की स्तिथि बनती है। इसलिए इन क्षेत्रों मे मक्का, बाजरा, मूंग, कपास आदि की खेती जलभराव के प्रति अति संवेदनशील होने के कारण तकनीकी तौर पर असम्भव और आर्थिक रूप से लाभदायक नही है।
उसके बावजूद सरकार द्वारा आर्थिक सहायता के साथ धान के विकल्प के रूप मे मक्का आधारित फसल विविधीकरण को प्रोत्साहन देना बिल्कुल बेकार और अव्यावहारिक समाधान है।
दूसरी तरफ पिछले कुछ वर्षों में हरियाणा- पंजाब में जायद/ बसंतकालीन मक्का की खेती मे उल्लेखनीय बढ़ोतरी दर्ज हुई है, लेकिन मक्का की इस खेती मे रोपाई धान से भी ज्यादा भूजल बर्बाद हो रहा है। क्योंकि बसंतकालीन मक्का की 140 दिन की फसल मे 16-20 भूजल आधारित सिंचाई की आवश्यकता होती है। इसलिए भूजल के लिए भस्मासुर साबित हो रही बसंतकालीन मक्का खेती पर पंजाब और हरियाणा प्रिजरवेशन आफ सबसायल एक्ट- 2009 के अन्तर्गत तुरन्त प्रभाव से प्रतिबंध लगाना चाहिए।
ऐसी विकट परिस्थितियों में पर्यावरण हितैषी, लागत और भूजल बचत वाली सीधी बिजाई धान तकनीक ही एक मात्र व्यावहारिक विकल्प है। जिसे पिछले कुछ वर्षों में किसानों ने सफलतापूर्वक लाखों एकड़ भूमि पर अपनाया है। जिसमें एक तिहाई भूजल सिंचाई, लागत, उर्जा (बिजली, डीजल, श्रम) आदि की बचत के साथ पूरी पैदावार मिलती है।
सीधी बिजाई धान तकनीक मे रोपाई धान के मुक़ाबले धान फसल 10-15 दिन कम अवधि में पकने से, पराली प्रबंधन में भी सहायक होती है।
इसलिए सरकार को चाहिए कि भूजल बचत के लिए ‘धान छोड़े किसान’ जैसी अव्यावहारिक योजनाओं की बजाय धान उगाने की पद्धति को बदलने के लिए मक्का फसल पर दिये जाने वाले 20,000 रुपए प्रति हेक्टेयर प्रोत्साहन को सीधी बिजाई धान पर देना चाहिए । जो भूजल संरक्षण, वर्षा जल के बेहतर पुनर्भरण और पर्यावरण प्रदूषण कम करने के लिए रामबाण साबित होगा और सरकार द्वारा दी जाने वाली बिजली व डीजल आदि कृषि सब्सिडी पर भारी बचत होगी।