अलविदा रोपाई धान, मिल गया हरियाणा और पंजाब मे भूजल संकट का समाधान?
गतिशील भूजल संसाधनों के नवीनतम आकलन के अनुसार, पूरे देश में कुल वार्षिक भूजल पुनर्भरण 449.08 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) और वार्षिक निष्कर्षण योग्य भूजल संसाधन 407.21 बीसीएम है। केंद्रीय भूजल मूल्यांकन बोर्ड की एक रिपोर्ट के अनुसार भूजल दोहन की राष्ट्रीय औसत 60 प्रतिशत के मुकाबले, हरियाणा, पंजाब सहित कई राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में भूजल का दोहन 100 प्रतिशत से अधिक है।
पंजाब में औसतन हर साल 534.4 मिमी बारिश होती है। जिससे वार्षिक भूजल पुनर्भरण 18.84 बिलियन क्यूबिक मीटर और निकासी योग्य भूजल 17.07 बीसीएम और भूजल निष्कर्षण 28.02 बीसीएम यानि 166 प्रतिशत है।
खास बात यह है कि 28.02 बीसीएम में से 26.69 बीसीएम भूजल निष्कर्षण सिचाई के लिए किया जा रहा है । हरियाणा में वार्षिक भूजल पुनर्भरण 9.48 बीसीएम व निष्कर्षण योग्य भूजल 8.61 बीसीएम और निकासी 12.42 बीसीएम यानि 134.14 प्रतिशत आंकी गईं है।
केंद्रीय भूजल बोर्ड व जल आयोग की ताजा रिपोर्ट के अनुसार देश की खाद्य सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण सघन कृषि क्षेत्र वाले उत्तरी राज्यों पंजाब- हरियाणा में पिछले 50 वर्षो से लगातार धान-गेहूं फसल चक्र अपनाने के कारण भूजल स्तर आधा मीटर प्रतिवर्ष गिरने से इन राज्यों के आधे से ज्यादा ब्लाक गंभीर भूजल संकट में आ चुके है।
भूमिगत जल की कमी होने के बावजूद, इन प्रदेशों में भूजल बर्बादी वाली रोपाई धान की खेती में कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं आया है। केंद्रीय कृषि मंत्रालय द्वारा 29 सितम्बर 2023 को जारी जानकारी के अनुसार वर्ष-2023 में हरियाणा में 15.2 लाख हेक्टेयर और पंजाब में 32 लाख हेक्टेयर भूमि पर धान की खेती की गई, जो पिछले कुछ वर्षों से लगातार बढ़ रही है।
हरियाणा में पिछले पाँच वर्षों से सरकार द्वारा धान खेती क्षेत्र को कम करने के उद्देश्य से चलाई जा रही योजना ‘मेरा पानी - मेरा विरासत’ और विभिन्न फसल विविधीकरण योजना के बाऊजूद, धान के क्षेत्र में लगातार वृद्धि देखी जा रही है। क्योंकि मानसून वर्षा वाले ख़रीफ़ सीजन में हरियाणा-पंजाब के जल भराव क्षेत्रों में किसानों के लिए, धान फसल ही व्यावहारिक और लाभदायक खेती है।
इसलिए सरकार द्वारा फसल विविधीकरण के सारे प्रयास विफल रहे है। उल्लेखनीय है कि हरियाणा-पंजाब की देश के धान उत्पादन में लगभग 15 प्रतिशत, सरकारी ख़रीद में 30 प्रतिशत और बासमती चावल निर्यात में 80 प्रतिशत हिस्सेदारी है। ऐसे हालत में, इन प्रदेशों में भूजल संरक्षण के साथ धान खेती के उत्पादन और उत्पादकता को बनाए रखने के लिए कृषि पद्धति में मूलभूत परिवर्तन की आवश्यकता है।
एक नागरिक के तौर पर जल संरक्षण हमारा दायित्व है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51ए (7) के मुताबिक, वनों, झीलों, नदियों, भूजल और वन्य जीव सहित प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और सुधार करना प्रत्येक व्यक्ति और सरकार की जिम्मेदारी है।
धान फसल में भूजल की बर्बादी रोकने के लिए, हरियाणा और पंजाब राज्यों ने वर्ष 2009 में ‘प्रिजर्वेशन आफ सबसायल वाटर एक्ट’ बनाए, जिसमें 15 जून से पहले धान फसल की रोपाई पर प्रतिबन्ध लगाया गया, लेकिन इन सब सरकारी प्रयासों के बावजूद अभी तक जल संरक्षण के प्रयास निरर्थक साबित हूए है।
यह सर्वविदित है कि 1970 तक उत्तर भारत में शिवालिक हिमालय के साथ लगते मैदानी खादर व तराई क्षेत्रो में भूजल भूमि सतह के बिल्कुल नजदीक था, लेकिन हरित क्रांति दौर की सघन कृषि तकनीक विशेष तौर पर रोपाई धान, औद्योगिकीकरण और शहरीकरण की वजह से भूजल का अंधाधुंध दोहन हुआ और गंभीर भूजल संकट पैदा हो गया।
आदिकाल से हरियाणा और पंजाब सहित पूरे उत्तर पश्चिम भारत के मैदानों में, सभी फ़सले अनाज, दलहन, तिलहन आदि की खेती के लिए वत्तर खेत को तैयार करके बीज की सीधी बुआई प्रचालित रही है। वर्ष-1970 से पहले, संयुक्त पंजाब और उत्तर भारत में भी किसान सीधी बुआई से ही धान की खेती भी किया करते थे।
तब धान का क्षेत्र कम होने व सस्ते मजदूर मिलने से निराई-गुड़ाई से खरपतवार नियंत्रण किया जाता था। लेकिन सरकार ने हरित क्रांति दौर में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए, अंतराष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान (मनीला) से धान की उन्नत बौनी किस्मों के साथ, भूजल बर्बादी के लिए जिम्मेवार खड़े पानी वाली रोपाई धान कृषि पद्धति को आयात करके उत्तर भारतीय किसानों पर थोप दी गई।
इसके परिणाम स्वरूप, धान की पैदावार तो जरूर बढ़ी, लेकिन खेती लागत में भी कई गुणा बढ़ोतरी और भूजल की भयंकर बर्बादी हुई, इसके चलते जम्मू से पटना तक सतलुज, यमुना, गंगा नदियों के मैदानी क्षेत्रो में भूजल डार्क जोन में चला गया।
रोपाई धान की वजह से हुई भयंकर भूजल बर्बादी को रोकने के लिए कृषि वैज्ञानिकों ने इस सदी की शुरुआत में, सूखे खेत में धान की सीधी बुआई और तुरंत सिंचाई जैसी तकनीक को प्रसारित किया।
इसे किसानों ने पूरी तरह से नकार दिया, क्योंकि इस पद्धति में सिंचाई पानी की बचत नहीं होने और फसल बुआई के तुरंत बाद सिंचाई, और हर 3 दिन बाद सिंचाई करने से फसल में खरपतवार की बहुतायत होने से किसान परेशान हो गए।
वहीं दूसरी और सरकार ने तकनीकी तौर पर अव्यावहारिक कृषि योजनाओं (धान छोड़ें-मक्की बोये, धान खेत खाली रखने वाले किसान को 7000 रुपये प्रति एकड़ प्रोत्साहन राशि, सूक्षम सिंचाई, फसल विविधिकरण आदि) से किसानों को भ्रमित करने किया।
विश्व खाद्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार 150 दिन की धान फसल को मात्र 500-700 मिलीलीटर सिंचाई जल की आवश्यकता होती है। जिसमें आधे से ज्यादा सिंचाई जल की पूर्ति मॉनसून बारिश्स करती है, लेकिन हरित क्रांति के दौर में सरकार द्वारा अनुशंसित भूजल बर्बादी वाली रोपाई धान तकनीक में 1500-2000 मि.ली. सिंचाई जल की जरुरत होती है। इससे खेती लागत में बढ़ोतरी और ऊर्जा - भूजल संसाधनों की भारी बर्बादी हुई।
धान की खेती में भूजल व कृषि लागत बर्बादी को रोकने के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान-क्षेत्रीय केंद्र, करनाल की हमारी टीम ने वर्ष-2014-15 में तर-वत्तर सीधी बिजाई धान तकनीक को विकसित और सुधार करके किसानों में प्रसारित किया। जिसमे धान की जलवायु अनुकूल बुआई समय (20 मई से 10 जुन) अपनाने से खरपतवार नियंत्रण आसान हुआ और पैदावार रोपाई धान के बराबर ही मिलने लगी ।
इसके असर से कारोना आपदा काल वर्ष-2021 में प्रवासी मजदूरों की भारी कमी होने से पंजाब में किसानों ने लगभग 6 लाख हेक्टेयर यानि कुल धान क्षेत्र के 20 प्रतिशत क्षेत्र पर तर-वत्तर सीधी बुआई तकनीक से धान फसल सफलता से उगाई और प्रदेश में रिकार्ड 12.78 मिलियन टन धान का उत्पादन हुआ।
इसी तरह हरियाणा मुख्यमंत्री द्वारा 1अप्रेल 2023 को दी गई जानकारी के अनुसार खरीफ-2022 में हरियाणा में किसानों ने 72,000 एकड़ से ज्यादा भूमि पर सीधी बिजाई धान तकनीक को अपनाकर 31,500 करोड़ लीटर यानि लगभग 40 लाख लीटर /एकड़ भूजल की बचत की। वर्ष-2023 में , हरियाणा के किसानों ने दो लाख एकड़ से ज़्यादा भूमि पर सीधी बिजाई से सफलतापूर्वक धान की खेती की। तर-वत्तर सीधी बिजाई धान पद्धति की सफलता से प्रसन्न होकर हरियाणा के कृषि मंत्री ने आगामी धान सीजन -2024 के लिए दस लाख एकड़ का लक्ष्य तय किया है।
धान की सीधी बिजाई पद्धति में खेत में पानी खड़े की जरूरत नहीं होने से रोपाई धान के मुकाबले लगभग 40 प्रतिशत भूजल आधारित सिंचाई की बचत होती है। इस पद्धति में धान फसल की बुआई मूंग, अरहर, ज्वार, बाजरा आदि खरीफ फसलो की तरह, पलेवा सिचाई के बाद तैयार तर-वत्तर खेत में छींटा विधि या सीड ड्रिल की मदद से की जाती है और खरपतवार नियंत्रण के लिए बुआई के तुरंत बाद एक लीटर पेंडामेंथलीन 30 ई.सी. 100 लीटर पानी में प्रति एकड़ छिड़काव करते है।
बुआई के बाद पहली सिंचाई 15-20 दिन बाद और बाद की सिंचाई 7-10 दिन अंतराल पर वर्षा आधारित करते है। अगर बेमौसम वर्षा से, खरपतवार समस्या आए तो बुआई के 30 दिन के बाद 60 ग्राम नोमीनी गोल्ड (बाईस्पायरीबेक सोडीयम -10) + 80 ग्राम साथी (पायरोसल्फूरोन ईथाइल) 100 लीटर पानी में प्रति एकड़ छिडकाव करते है।
धान खेती की इस भूजल संरक्षण पद्धति में धान की सभी किस्में कामयाब और रोपाई पद्धति के मुक़ाबले 10-15 दिन पहले पकती है। जिससे कम अवधि की धान किस्मों की कटाई मध्य सितम्बर तक हो जाने से फसल अवशेष प्रबंधन आसान और वायु प्रदूषण रोकने में भी मदद मिलेंगी और किसान गेहूं फसल की बुआई से पहले हरी खाद के लिए 45 दिन की ढ़ेंचा व मूँग आदि फसल लेकर भूमि की ऊर्वरा शक्ति को जैविक तौर पर बनाए रख सकते हैं।
अब हरियाणा सरकार द्वारा भूजल संरक्षण के इन प्रयासो को गति देने के लिए भूजल बर्बादी वाली रोपाई धान पर पूर्ण प्रतिबंध लगाकर सीधी बिजाई धान पद्धति को 5,000 रुपए प्रति एकड़ प्रोत्साहन देना चाहिए। ज़िससे 40 लाख लीटर प्रति एकड़ भूजल के साथ ऊर्जा (बिजली और डीजल) की भारी बचत होगी और पर्यावरण संरक्षण में भी मदद मिलेंगी।