एक नागरिक के तौर पर जल संरक्षण हमारा दायित्व है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51ए (7) के मुताबिक, वनों, झीलों, नदियों, भूजल और वन्य जीव सहित प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और सुधार करना हर व्यक्ति की जिम्मेदारी है।
केंद्रीय भूजल बोर्ड व जल आयोग की ताजा रिपोर्ट के अनुसार देश की खाद्य सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण सघन कृषि क्षेत्र वाले उत्तरी राज्यों पंजाब- हरियाणा में पिछले 50 वर्षो से लगातार धान-गेहूं फसल चक्र अपनाने के कारण भूजल स्तर आधा मीटर प्रतिवर्ष गिरने से इन राज्यों के आधे से ज्यादा ब्लाक गंभीर भूजल संकट में आ चुके है।
इसे रोकने के लिए इन राज्यों ने वर्ष 2009 में "हरियाणा और पंजाब प्रिजर्वेशन आफ सबसायल वाटर एक्ट" बनाए, जिसमें 15 जून से पहले धान फसल की रोपाई पर प्रतिबन्ध लगाया गया, लेकिन इन सब सरकारी प्रयासों के बावजूद अभी तक जल संरक्षण खासतौर पर भूजल संरक्षण के प्रयास निरर्थक साबित हूए है।
यह सर्वविदित है कि 1970 तक उत्तर भारत में शिवालिक हिमालय के साथ लगते मैदानी खादर व तराई क्षेत्रो में भूजल भूमि सतह के बिलकुल नजदीक था, लेकिन हरित क्रांति दौर की सघन कृषि तकनीक विशेष तौर पर रोपाई धान, औद्योगिकीकरण और शहरीकरण की वजह से भूजल का अंधाधुंध दोहन हुआ और गंभीर भूजल संकट पैदा हो गया।
इससे आने वाली पीढ़ीयो के लिए जीवन उपयोगी जल की उपलब्धता पर भी सवाल खड़ा हो रहा है। आदिकाल से सभी अनाज, दलहन, तिलहन आदि फसलों की खेती के लिए वत्तर खेत को तैयार करके बीज की सीधी बुआई प्रचालित तकनीक रही है।
वर्ष 1966 से पहले, संयुक्त पंजाब और उत्तर भारत में भी किसान सीधी बुआई से ही धान की खेती किया करते थे। तब धान का क्षेत्र कम होने व सस्ते मजदूर मिलने से निराई-गुड़ाई से खरपतवार नियंत्रण किया जाता था।
लेकिन सरकार ने हरित क्रांति दौर में खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए, अंतराष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान -मनीला से धान की उन्नत बौनी किस्मों के साथ, भूजल बर्बादी के लिए जिम्मेवार खड़े पानी वाली रोपाई धान तकनीक आयात करके उत्तर भारतीय किसानों पर थोप दी।
इससे धान की पैदावार तो जरूर बढ़ी, लेकिन खेती लागत में भी कई गुणा बढ़ोतरी और भूजल की भयंकर बर्बादी हुई, इसके चलते जम्मू से पटना तक सतलुज, यमुना, गंगा नदियों के मैदानी क्षेत्रो में भूजल डार्क जोन में चला गया।
रोपाई धान की वजह से हुई इस भयंकर भूजल बर्बादी को रोकने के लिए कृषि वैज्ञानिकों ने इस सदी की शुरुआत में, सूखे खेत में धान की सीधी बुआई तकनीक को प्रसारित किया।
इसे किसानों ने पूरी तरह से नकार दिया, क्योंकि इस पद्धति में सिंचाई पानी की बचत नहीं होने और फसल बुआई के तुरंत बाद सिंचाई और फिर हर 3 दिन बाद सिंचाई करने से फसल में खरपतवार की बहुतायत होने से किसान परेशान हो गए।
वहीं दूसरी और सरकार ने तकनीकी तौर पर अव्यावहारिक योजनाओं (धान छोड़ें-मक्की बोये, धान खेत खाली रखने वाले किसान को 7000 रुपये प्रति एकड़़ प्रोत्साहन राशि, सूक्षम सिंचाई, फसल विविधिकरण आदि) से किसानों को भ्रमित करने का काम किया।
तर-वत्तर सीधी बिजाई धान-भूजल बर्बादी रोकने का समाधान
विश्व खाद्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार 150 दिन की धान फसल को मात्र 500-700 मिलीलीटर सिंचाई जल की आवश्यकता होती है। जिसमें आधे से ज्यादा सिंचाई जल की पूर्ति मॉनसून बारिश् करती है, लेकिन हरित क्रांति के दौर में सरकार द्वारा अनुशंसित भूजल बर्बादी वाली रोपाई धान तकनीक में 1500-2000 मि.ली. सिंचाई जल की जरुरत होती है। इससे खेती लागत में बढ़ोतरी और ऊर्जा - भूजल संसाधनों की भारी बर्बादी हुई।
इसे रोकने के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान-क्षेत्रीय केंद्र, करनाल की हमारी टीम ने वर्ष-2014-15 में तर-वत्तर सीधी बिजाई धान तकनीक को विकसित करके किसानों में प्रसारित किया, जिससे खरपतवार नियंत्रण आसान हुआ और पैदावार रोपाई धान के बराबर ही मिलने लगी ।
इसके असर से कारोना आपदा काल वर्ष-2021 में प्रवासी मजदूरों की भारी कमी से पंजाब में किसानों ने लगभग 6 लाख हेक्टेयर यानि कुल धान क्षेत्र के 20 प्रतिशत क्षेत्र पर तर-वत्तर सीधी बुआई तकनीक से धान फसल सफलता से उगाई और प्रदेश में रिकार्ड 12.78 मिलियन टन धान का उत्पादन हुआ।
इसी तरह हरियाणा मुख्यमंत्री द्वारा 1अप्रेल 2023 को दी गई जानकारी के अनुसार खरीफ-2022 में हरियाणा में किसानों ने 72,000 एकड़ से ज्यादा भूमि पर सीधी बिजाई धान तकनीक को सफलतापूर्वक अपनाकर 31,500 करोड़ लीटर यानि लगभग 40 लाख लीटर /एकड़ भूजल की बचत की। जिसके लिए सरकार ने लगभग 30 करोड़ रुपए प्रोत्साहन राशि किसानों को बांटी।
अब हरियाणा सरकार द्वारा भूजल संरक्षण के इन प्रयासो को गति देने के लिए , भूजल बर्बादी वाली रोपाई धान पर पूर्ण प्रतिबंध लगाकर , सीधी बिजाई धान पद्धती को 7,000 रुपए प्रति एकड़ प्रोत्साहन देना चाहिए। ज़िससे 40 लाख लीटर प्रति एकड़ भूजल के साथ ऊर्जा (बिजली और डीजल) की भारी बचत होगी।
तर-वत्तर सीधी बिजाई धान पद्धति में खेत में पानी खड़े की जरूरत नहीं होने से रोपाई धान के मुकाबले लगभग 40% भूजल की बचत होती है। तर - वत्तर सीधी बिजाई धान की सफलता के लिए, धान फसल की बुआई 20 मई - 5 जून तक मूंग, अरहर, ज्वार आदि खरीफ फसलो की तरह, पलेवा सिचाई के बाद तैयार तर-वत्तर खेत में 8 किलो बीज प्रति एकड़ की दर से 7-9 इंच लाईन से लाईन दूरी और बीज की गहराई मात्र 1-2 इंच पर होती है ।
बुआई से पहले 2 ग्राम बाविस्टीन प्रति किलो बीज उपचार जरूर करें। खेत की नमी को बचाने के लिए, बुआई शाम के समय पर छींटा विधि या सीड ड्रिल की मदद से करे और खरपतवार नियंत्रण के लिए बुआई के तुरंत बाद , एक लीटर पेंडामेंथलीन 30 ई.सी. 100 लीटर पानी में प्रति एकड़ छिड़काव करें।
बुआई के बाद पहली सिंचाई 15-20 दिन बाद और बाद की सिंचाई 7-10 दिन अंतराल पर वर्षा आधारित करे। अगर बेमौसम वर्षा से, खरपतवार समस्या आए तो बुआई के 30 दिन के बाद 60 ग्राम नोमीनी गोल्ड (बाईस्पायरीबेक सोडीयम -10) + 80 ग्राम साथी (पायरोसल्फूरोन ईथाइल) 100 लीटर पानी में प्रति एकड़ छिडकाव करें ।
खाद, बीमारी, कीट प्रबंधन रोपाई धान फसल की दर और विधि से ही करे। 10 किलो जिंक सल्फेट+ 8 किलो फेरस सल्फेट प्रति एकड़ पहली सिंचाई के समय पर जरूर डाले। धान खेती की इस भूजल संरक्षण पद्धति में धान की सभी किस्में कामयाब और 10-15 दिन पहले पकती है।
पूसा 1509, पीआर-126 आदि कम अवधि वाली किस्में 110-120 दिन में पक कर कटाई के लिए तैयार हो जाती है। इन कम अवधि किस्मों की कटाई मध्य सितम्बर तक हो जाने से फसल अवशेष प्रबंधन आसान और वायु प्रदूषण रोकने में भी मदद मिलेंगी और किसान गेहूं फसल की बुआई से पहले हरी खाद के लिए 45 दिन की ढ़ेंचा व मूँग आदि फसल लेकर भूमि की ऊर्वरा शक्ति को जैविक तौर पर बनाए रख सकते हैं।
(लेख में व्यक्त विचार लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं। इन विचारों से डाउन टू अर्थ का सहमत होना जरूरी नहीं है)