भारतीय कृषि के भविष्य का सवाल पिछले काफी समय से लगातार उठ रहा है और हाल में कृषि सुधारों के तहत निजी थोक बाजार स्थापित करने की इजाजत, ठेके पर खेती, किसानों से सीधी खरीद और पूर्व में राज्य स्तर पर जमीन लीज पर देने और अब केंद्रीय कानून के तहत इसकी मंजूरी देने को लेकर ये सवाल और भी महत्वपूर्ण हो गया है। हालांकि, इस सवाल का जवाब जानने से पहले यह जरूरी है कि भारतीय कृषि क्षेत्र और इसके अहम साझेदारों यानी जमीन मालिक, पट्टेदार या लीज पर जमीन लेने वालों के बारे में चर्चा कर ली जाये।
ये तो बहुत सामान्य जानकारी है कि देश के सकल घरेलू उत्पाद में खाद्य उत्पादन क्षेत्र का योगदान सिर्फ 13% है, जबकि 44 प्रतिशत वर्क फोर्स इस सेक्टर में है। अन्य क्षेत्रों से तुलना करें, तो कृषि एक निराशाजनक तस्वीर पेश करती है। इस क्षेत्र में कमाई भी बहुत कम होती है। हम ये भी जानते हैं कि भारत के 85 प्रतिशत किसानों के पास पांच एकड़ से भी कम खेत है। इनमें से आधा हिस्सा सूखा/बारिश पर आश्रित हो सकता है।
किसानों की कुल आमदनी का एक हिस्सा ही अब खेती से आता है और बाकी आमदनी मजदूरी, गैर कृषि गतिविधियां और अन्य जरिये से होती है। पंजाब जैसे राज्यों में किसान (खासकर छोटे किसान) उत्पाद और बाजार का जोखिम भी झेलते हैं तथा उत्पादन व गैर उत्पादन जरूरतों को पूरा करने के लिए गैर संस्थानिक स्रोतों से मिलने वाले लोन पर निर्भर रहते हैं। ये लोन महंगा और उत्पादन जैसे दूसरे बाजारों से जुड़ा होता है।
कृषि उत्पादन में छोटे किसानों का योगदान 51 प्रतिशत (46 प्रतिशत कृषि जमीन) है और इनमें से 70 प्रतिशत फसल महंगी कीमत की होती है, मसलन सब्जियां व दूध। लेकिन, छोटे किसान कम शिक्षित और पिछड़ी जातियों व समुदायों से आते हैं, जिनकी पहुंच आधुनिक व्यवस्था जैसे ठेका खेती और सीधी खरीद तक नहीं होती है।
हालिया कृषि सुधार का लक्ष्य कृषि क्षेत्र में नया निवेश खासकर घरेलू और वैश्विक निजी कॉरपोरेट सेक्टरों से निवेश लाना है। माना जाता है कि इस तरह के निवेश लाने के लिए इस सेक्टर से जुड़े विभिन्न मार्केट जैसे आउटपुट मार्केट, फार्म आउटपुट और सेवा बाजार व लैंड मार्केट के विनियमन की जरूरत है।
लेकिन, हम ये भूल गये हैं कि इस तरह के कृषि सुधार के जरिये न तो ये संभव है और न ही जरूरी क्योंकि इन सुधारों का खेतों के रकबे से कोई लेना देना है। हालांकि, अपवाद के तौर पर जमीन को लीज पर देने के कानून और भूमि जोत की अधिकतम सीमा खत्म करने की बात की गई है, लेकिन इसकी अपनी सीमाएं हैं क्योंकि बहुत सारे किसान भूमिहीन हैं और किसानों का जमीन से जुड़ाव नैतिक अर्थव्यवस्था या जीविका के चलते है।
अतः भूमि संबंधी कुछ सुधार बहुत आसानी से नहीं हो सकते हैं। मगर सीमांत व भूमिहीन किसानों की जमीन तक बेहतर पहुंच व सिंचाई के लिए पानी की उपलब्धता कृषि क्षेत्र और इसके प्राथमिक साझेदारों के प्रदर्शन में सुधार के लिए अनिवार्य है।
कृषि सुधार के पीछे जो भी अनुमान लगाये गये हैं, वे या तो त्रुटिपूर्ण हैं या फिर जान बूझकर ऐसे गलत अनुमान लगाये गये हैं। मिसाल के तौर पर बहुत सारे शोधों से पता चलता है कि छोटे किसान, मझोले व बड़े किसानों के बराबर या उनसे ज्यादा उत्पादन करते हैं, जो इस तर्क को खारिज करता है कि छोटे किसान भारतीय कृषि का भविष्य नहीं हो सकते हैं।
इसी तरह बिहार में खेती से हर महीने प्रति हेक्टेयर 4,236 रुपए की कमाई होती है, जबकि पंजाब में ये कमाई प्रति महीने 3,448 रुपए है। इसकी वजह ये है कि पंजाब में खेती में बिहार के मुकाबले कम विविधता है। पंजाब में सिर्फ 11 प्रतिशत खेत में फल व सब्जियों की खेती होती है, जबकि बिहार में 35 प्रतिशत खेतों में फल व सब्जियां उगाई जाती हैं।
हालांकि बिहार में सक्षम व विनियमत कृषि बाजार नहीं हैं। बिहार में खेत का औसत आकार सिर्फ 0.39 हेक्टेयर है जबकि पंजाब में 3.62 हेक्टेयर है। अतः खेती लाभकारी है कि नहीं, ये खेत के आकार से नहीं बल्कि खेत में क्या उगाया जा रहा है, कब उगाया जा रहा है, कैसे उगाया जा रहा है, क्यों उगाया जा रहा है, किसके लिए और कितना उगाया जा रहा है, इस पर निर्भर करता है।
अनाज आधारित बुआई के पैटर्न के मद्देनजर किसान अपने छोटे खेतों से ही ज्यादा कमाई कर सकते हैं। ये सर्वविदित है कि ज्यादातर किसान अपने कृषि योग्य भूमि के ज्यादातर हिस्से (पंजाब में 69 प्रतिशत और बिहार में 40 प्रतिशत) में धान और गेहूं की खेती करते हैं। इन खाद्यान्नों से कितनी कमाई कर सकते हैं, इसकी सीमा है, क्योंकि उचित दाम (न्यूनतम समर्थन मूल्य, जो बाजार मूल्य को भी निर्धारित करता है) किसानों के एक छोटे हिस्से (10 प्रतिशत से भी कम) को ही मिल पाता है और किसान उत्पादन खर्च को बढ़ा-चढ़ाकर भी नहीं बता सकते हैं।
दूसरी, फसलों के लिए भी न्यूनतम समर्थन बहुत कम किसानों को मिलता है और वो भी उन कुछ राज्यों में ही जहां सरकारी खरीद की जाती है। दूसरी बात ये है कि एक बार किसान अपना कृषि उत्पाद मंडी में ले जाता है, तो उसे दोबारा वापस नहीं ला सकता है, क्योंकि कृषि उत्पाद वापस लाना किसानों के लिए मृत शरीर को शवगृह लाने जैसा है।
बाजार के जोखिमों में मार्केट की गैरमौजूदगी, उत्पाद का कम दाम मिलना, लेनदेन पर अधिक खर्च और बिक्री के लिए कम उत्पाद होने के कारण कमजोर मोलभाव शामिल हैं। बाजार के जोखिमों के कारण कृषि उत्पादकों को कम और अस्थाई कमाई होती है। यहीं पर बाजार की भूमिका अहम हो जाती है, क्योंकि अगर किसान अच्छा उत्पादन कर भी ले, लेकिन उत्पाद को अच्छे से बेच ही न पाये, तो कहानी वहीं खत्म हो जाती है।
अगर बिहार में एपीएमसी मार्केट और दूसरे मार्केट चैनल होते, जिनको अभी प्रमोट किया जा रहा है और उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा सरकार एमएसपी पर खरीद लेती, तो बिहार को इससे कितना फायदा मिलता, इसकी कल्पना की जा सकती है।
प्रसंगवश, बिहार में पंजाब की तरह ही किसान आत्महत्या की बहुत घटनाएं नहीं हुई हैं। अतः एमएसपी की संस्कृति और ज्यादा जमीन कर कम कमाई देने वाली फसलों पर अत्यधिक निर्भरता किसानों की हत्या की दोषी है और अन्य दोषियों में उच्च उत्पादन व बाजार जोखिम से भरपूर फसलों मसलन कपास व अन्य शामिल हैं।
भारत के छोटे किसानों की चिंता का कारण काफी हद तक बाजार चालित है। ये दोनों तरह का है-हद से ज्यादा सुरक्षा (एमएसपी) या बहुत कम सुरक्षा।
छोटे किसानों की आजीविका की समस्या और भी संगीन हो जाती है, क्योंकि ये किसान उत्पादन से संबंधित बहुत सारे जोखिमों जैसे सुखाड़, बाढ़, इनपुट्स का अपर्याप्त इस्तेमाल, कम उत्पादन, पर्याप्त और सुनिश्चित सिंचाई व्यवस्था की कमी, फसल बर्बादी आदि भी झेलते हैं। फसल बीमा के जरिए उत्पादन के जोखिमों से उबारने की कोशिश की गई थी, लेकिन ये बहुत कारगर नहीं हो सका और अब इसे किसानों के लिए स्वैच्छिक बना दिया है, जो बीमित क्षेत्र को और घटा देगा। फिलहाल सिर्फ 30 प्रतिशत कवरेज ही मिलता है।
किसानों के लिए सबसे ज्यादा दिक्कत व्यापारियों, कमीशन एजेंटों और कर्ज के लिए महाजनों पर निर्भरता है, क्योंकि संस्थागत कर्ज केवल 65 प्रतिशत किसानों तक पहुंचता है और छोटे व सीमांत किसान संस्थागत कर्ज के दायरे के बाहर हैं। निजी स्रोतों से ऋण उगाही क्रेडिट व आउटपुट, इनपुट व आउटपुट तथा क्रेडिट व इनपुट मार्केट को इंटरलॉकिंग की ओर ले जाते हैं, जहां कृषि उत्पादन पर खर्च अधिक होने के बावजूद कृषि उत्पादों की कीमत कम लगती है।
इसके बावजूद, किसानों को उत्पाद की बिक्री के लिए इन चैनलों से इतर दूसरे चैनलों तक पहुंच नहीं होती है, भले उन चैनलों पर बेहतर कीमत ही क्यों न मिल रही हो, क्योंकि वे उन किसानों को लोन नहीं देते हैं, जो व्यापारियों व एजेंटों से जुड़े होते हैं। ये किसानों की उस आजादी को छीन लेता है, जो नये एपीएमसी अधिनियम के तहत मिली है।
फिर दूसरी बात ये भी है कि अगर छोटी जोत के किसान या पट्टा किसान छोटी जातियों से हैं, तो लोन के लिए उनकी पहुंच और भी सीमित हो जाती है, क्योंकि लोन देने वाले समूह/व्यक्ति या तो लोन देने से इनकार कर देते हैं या फिर उच्च ब्याज दर के चलते ऋण महंगा हो जाता है या फिर लोन चुकाने के लिए प्रतिकूल शर्तें रख दी जाती हैं। ये उनकी खेती को अव्यवहार्य बना देता है।
ये जानना बहुत जरूरी है कि छोटे किसान सबसे ज्यादा मार्केट और उत्पाद कीमतों में उतार-चढ़ाव का जोखिम झेलते हैं और इससे निबटने के लिए सांस्थानिक मशीनरी गायब है। उत्पाद की कीमत का निर्धारण अब भी एपीएमसी मार्केट करता है जो कायदे से विनियमित नहीं है और कई मामलों में किसानों के साथ दुर्व्यवहार करता है।
ठेका खेती और सीधी खरीद जैसे कितने भी नये मार्केट किसानों के लिए खुल जाये, छोटे किसान बहुत सारे उत्पादों के लिए एपीएमसी मार्केट पर निर्भर रहेंगे। अतः ये जरूरी है कि ऐसे बाजारों का सही तरीके से संचालन सुनिश्चित किया जाये। खुली बोली लगे, किसानों के उत्पादों खासकर जल्दी खराब हो जानेवाले उत्पादों, जिनकी बोली सड़कों के किनारे, गंदगी से पटे मैदानों में लगती है, की व्यवस्थित अपलोडिंग व स्टोरेज/हैंडलिंग की व्यवस्था हो और किसान विक्रेताओं से कमीशन लेना बंद किया जाये। कई राज्यों में विनियमित मार्केट तक में कमीशन लिया जाता है।
ठेका खेती और सीधी खरीद के मुख्य प्रतिद्वंद्वी एपीएमसी मार्केट हैं। सीधी खरीद में भी कीमत एपीएमसी मार्केट की दर के आधार पर तय होती है। अतः इनका बेहतर संचालन ठेका किसानों व सीधी बिक्रीकर्ताओं को बेहतर शर्तें दे सकता है।
भारत में कृषि का भविष्य बहुत सारी मौजूदा नीतियों और गायब हुई नीतियों तथा नीतिगत सुधारों की दशा-दिशा पर निर्भर करता है। लेकिन ये दुखद है कि ज्यादातर राज्यों में आज भी कृषि को लेकर कोई नीति नहीं है जबकि अन्य छोटे सेक्टरों मसलन आईटी, उद्योग, खाद्य प्रसंस्करण आदि को लेकर सालों से नीतियां काम कर रही हैं।
कृषि राज्य से जुड़ा मामला है इसलिए इसको लेकर नीति पर ध्यान नहीं दिया गया लेकिन व्यावहारिक तौर पर देखें तो लम्बे समय से इसका संचालन केद्र सरकार की तरफ से हो रहा है क्योंकि विभिन्न स्कीमों व कार्यक्रमों के जरिये संसाधनों का आवंटन केंद्र की तरफ से आता है।
जब ये सेक्टर आर्थिक, सामाजिक व पर्यावरणीय संकट से जूझता है, जो कि पिछले कुछ समय से देखा जा रहा है, तो नीति के नहीं होने से इस संकट में सुध लेने के लिए कोई भी साझेदार नहीं आता है। साथ ही कृषि क्षेत्र को लेकर निराशाजनक रवैया बताता है कि देश के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि का योगदान महज 13 प्रतिशत है और 44 प्रतिशत रोजगार ये क्षेत्र देता है इसलिए इसे (खेती को) एक ऐसे क्षेत्र के रूप में देखा जाता है, जो समस्याएं उत्पन्न करता है और यही नीति वक्रता का मूल कारण है।
दूसरी तरफ, कृषि क्षेत्र को कृषि व्यवसाय क्षेत्र के रूप में देखा जाता है, जिसमें कृषि पर आधारित सभी तरह की गतिविधियां व इससे संबंधित कच्चे उत्पाद व खुदरा स्तर तक शामिल हैं। सबको मिलाकर भी भारत की जीडीपी में इसका योगदान 25 प्रतिशत ही है।
लेखक इस परिप्रेक्ष्य पर साल 2007 से ही लगातार चर्चा करते आ रहे हैं और हाल में विश्व बैंक ने भी इसे स्वीकार किया है। ये कृषि क्षेत्र को लेकर अर्थपूर्ण नीति व नियमन तैयार करने में रास्ता भी दिखा सकता है। इस क्षेत्र में आजीविका सुनिश्चित करने और खेती छोड़ रहे लोगों को रोकने के लिए इस परिप्रेक्ष्य की जरूरत है।
अतः समाधान उत्पाद बाजारों के बाहर भी जरूरी है, लेकिन ताजा सुधार विनियमन में बदलाव को लेकर है, जिससे ज्यादातर भारतीय किसानों को बहुत मतलब नहीं है क्योंकि एपीएमसी मार्केट व अन्य मार्केट चैनलों जैसे ठेका खेती तक उनकी पहुंच नहीं है। लेकिन, छोटे किसानों को निजी खरीदारों के लिए लेन-देन के खर्च में कमी लाने और नये बाजारों में किसानों की मोलभाव करने की शक्ति बढ़ाने के लिए समूह और फार्मर प्रोड्यूसर्स कंपनी के साथ फार्मर प्रोड्यूसर्स कंपनीज के रूप में साथ आना चाहिए।
वेयरहाउस रिसिप्ट सिस्टम सभी फसलों पर लागू करने के साथ ही किसानों को क्रेडिट व आउटपुट के लिंकेज से मुक्त करने और फसल की कटनी के तुरंत बाद बेचने के दबाव और एक दूसरे से गूंथी हुई बाजार व्यवस्था से मुक्त करने के लिए इस सुविधा का विस्तार करने की जरूरत है।
छोटी जोत की क्षमता को देखते हुए को-ऑपरेटिव खेती की कोई जरूरत नहीं है बल्कि बेहतर बिक्री और बेहतर खरीद के लिए प्री-प्रोडक्शन और पोस्ट-प्रोडक्शन कलस्टर या फूड और फाइबर वैल्यू चेन को कैप्चर करने की जरूरत है।
कॉरपोरेट किसानी दुनिया में कहीं भी सफल नहीं हो पाई है और भारत में भी इसे प्रोत्साहित नहीं किया जाना चाहिए हालांकि ठेका खेती व उत्पादक एजेंसी स्थानीय संस्थाओं व नेटवर्क के जरिये आजीविका पर ध्यान केंद्रित करते हुए इस सेक्टर को प्रदर्शन के उच्चस्तर पर ले जा सकता है।
खेती व इससे सम्बद्ध सेक्टरों की महिलाओं समेत अन्य वर्करों को प्रशिक्षित करना भी इतना ही जरूरी है ताकि वे आधुनिक व सतत कृषि उत्पादन और मूल्यवर्धन गतिविधि में प्रभावी तौर पर हिस्सा ले सकें। कृषि क्षेत्र को प्राथमिकता के आधार पर निष्पक्ष और दायित्वशील उत्पादन और व्यापारिक मुद्दों के साथ जोड़ने की जरूरत है। घरेलू बाजारों के लिए भी ये करने की आवश्यकता है।
ये भी समझना जरूरी है कि कृषि में भौतिक गतिविधियां ही नहीं, बल्कि इस पेशे से जुड़े लोगों की आजीविका मायने रखती है, जो मानव केंद्रित व अर्थपूर्ण नीतियां बनाने में राह दिखाएगी। और आजीविका तथा कृषि व्यवस्था या वैल्यू चेन एप्रोच इस सेक्टर के साझेदारों मसलन किसान, वर्कर और अन्य की बेहतरी में मदद कर सकती है।
इसलिए, सभी को फायदा हो इसके लिए कृषि व्यवसाय वैल्यू चेन में आधुनिक और बड़े खिलाड़ियों की ताकत का लाभ उठाने के लिए एक वैश्विक बाजार के संदर्भ में छोटे उत्पादकों के हित की रक्षा को केंद्र और राज्य स्तरों पर नीति और इससे भी अधिक प्रभावी विनियमन की आवश्यकता है, ताकि समावेशी और प्रभावी सतत कृषि विकास का प्रयास किया जा सके।
अतः कृषि क्षेत्र में मौजूदा और उभरती चुनौतियों और स्थिरता की समस्याओं से निपटने के लिए उत्पाद, प्रक्रिया और संगठनात्मक नवाचारों के अलावा संस्थागत नवाचारों की आवश्यकता है जिन्हें अवसरों में बदला जा सकता है। भारतीय कृषि व्यवसाय भविष्य है, जिसमें कृषि भी शामिल है। कृषि सेक्टर सुनहरा तभी होगा, जब कॉरपोरेट एजेंसियां, जो केवल पूरक की भूमिका निभा सकती हैं, पर निर्भरता की जगह पब्लिक संस्थाएं जैसे सहकारी संस्थाएं और फार्मर प्रोड्यूसर्स कंपनियां इसमें भाग लें।
लेखक आईआईएम, अहमदाबाद में प्रोफेसर हैं। ये उनके व्यक्तिगत विचार हैं