हरियाणा के करनाल जिले के तरौली गांव में रहने वाले 47 वर्षीय किसान शिव कुमार से जब पूछा गया कि वह अपने खेत के बायोमास (जैव ईंधन) से धन क्यों नहीं अर्जित करते तो उनका सीधा-सा जवाब था, “पराली को काटकर कंपनियों तक पहुंचाने का समय और पैसा हमारे पास नहीं है।” शिव कुमार के 2.5 हेक्टेयर खेत हैं जिनसे खरीफ के हर मौसम में 10 टन फसलों के अवशेष जैसे पराली, पत्तियां और डंठल निकलते हैं। फसलों के ये अवशेष घरेलू और औद्योगिक ऊर्जा के महत्वपूर्ण स्रोत हैं। शिव कुमार के खेतों से निकलने वाले अवशेषों से इतनी बिजली पैदा हो सकती है कि एक या दो परिवारों की ऊर्जा की जरूरतें साल भर पूरी हो सकती हैं। फिर भी धान की फसल कटने के तुरंत बाद शिव कुमार फसलों के अवशेषों को आग लगा देते हैं। ऐसा क्यों?
दरअसल शिव कुमार और तरौरी के किसानों के एक समूह ने 2013 में करनाल शहर में एक सोया निष्कर्षण कंपनी को पराली बेचकर अतिरिक्त आय उत्पन्न करने का फैसला किया। वह बताते हैं, “कंपनी ने एक रुपए प्रति किलो के हिसाब से पराली खरीदी। हमने पराली को कंप्रेस करने के लिए हेबेलर और उसे कंपनी तक पहुंचाने के लिए ट्रैक्टर किराए पर लिया। इनका किराया इतना ज्यादा था कि हम लागत भी नहीं निकाल पाए।” शिव कुमार ने 22,000 रुपए के निवेश पर 3,000 रुपए कमाए। छोटो किसानों को भारी नुकसान हुआ। तब से कुमार और दूसरे किसान पराली बेचने का जोखिम नहीं उठा रहे।
उनका निर्णय सरकार द्वारा अक्षय ऊर्जा के प्रमुख स्रोत के रूप में धान की पराली को बढ़ावा देने के हालिया प्रयासों को धक्का है। केंद्र सरकार का लक्ष्य 2022 तक नवीकरणीय स्रोतों से 175 गीगावाट बिजली बनाना है। लक्ष्य का 10 गीगावाट बायोमास से हासिल करना है। केंद्र ने 2017 में सभी राज्यों, थर्मल पावर प्लांट्स और बिजली के उपकरण बनाने वाली कंपनियों को निर्देश दिया था कि वे तकनीकी व्यवहार्यता और सुरक्षा के आकलन के बाद कोयले के साथ 5-10 प्रतिशत बायोमास पैलेट्स का इस्तेमाल करें। यह निर्देश देश के सबसे बड़े बिजली उत्पादक नेशनल थर्मल पावर कॉर्पोरेशन (एनटीपीसी) के सफल प्रयोग पर आधारित था। एनटीपीसी के दादरी संयंत्र में कोयले के साथ 10 प्रतिशत बायोमास पैलेट्स का उपयोग किया गया था।
एनटीपीसी ने अपने 21 प्लांट्स में इस अभ्यास को शुरू कर दिया है लेकिन उसने कोयले के साथ ईंधन के रूप में बायोमास पैलेट्स का इस्तेमाल घटाकर 5 प्रतिशत कर दिया है। एनटीपीसी के महाप्रबंधक (अनुसंधान और विकास) अपूर्व कुमार दास कहते हैं कि शोध से पता चलता है कि कृषि अवशेष देश के सभी कोयला आधारित बिजली संयंत्रों में लगभग 10-15 प्रतिशत कोयले की जगह ले सकते हैं। लेकिन पैलेट्स की आपूर्ति में चुनौतियों के चलते यह संभावना धुंधली हो रही है। ये पैलेट्स कंप्रेस्ड और सूखी पराली होती है जिसका भंडारण आसानी से लंबे समय तक किया जा सकता है। हाल ही में एनटीपीसी ने ताप से सुखाई गई (टोरिफाइड) धान की पराली और अन्य कृषि अवशेष आधारित पैलेट्स की आपूर्ति 6.50 रुपए प्रति किलोग्राम और गैर टोरिफाइड पैलेट्स के लिए 5.50 रुपए प्रति किलोग्राम की दर से आपूर्ति की निविदा जारी की। लेकिन बोली में किसी ने हिस्सा नहीं किया। सरकार ने अब उन कारणों का पता लगाने के लिए एक समिति का गठन किया है, जिन्होंने बोली लगाने वालों को हतोत्साहित किया। यह समिति यह भी देखेगी कि पैलेट्स की दर को कैसे आकर्षक बनाया जा सकता है।
बायोमास ऊर्जा के स्रोत के रूप में धान की पराली को हरियाणा और पंजाब में ठंडी प्रतिक्रिया मिली है। इन राज्यों के किसान अक्सर पराली में आग लगा देते हैं। पंजाब के पास 72.5 मेगावाट क्षमता के नौ बायोमास बिजली संयंत्र हैं। पंजाब ने सैकड़ों बायोमास बिजली संयंत्रों को स्थापित करने के लिए विभिन्न कंपनियों के साथ समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं, लेकिन कुछ ही क्रियाशील हैं। अधिकांश ने बंद होने की वजह के रूप में धान की पराली की सुनिश्चित आपूर्ति न होने का हवाला दिया है।
दूसरे विकल्प ज्यादा पसंद
बगैस (पिराई के बाद बचे अवशेष) उच्च दहन क्षमता के कारण बायोमास का पसंदीदा विकल्प है। चीनी उद्योग इसका इस्तेमाल करता है। जो उद्योग हाल के वर्षों में बायोमास को अपनाने में सफल हुए हैं वे बुरादा, धान की भूसी, सरसों की भूसी और मूंगफली की भूसी जैसे बायप्रॉडक्ट को पसंद कर रहे हैं। इस कारण इनकी नियमित आपूर्ति होती है। 2019 में राजस्थान के अलवर जिले की यूनाइटेड ब्रेवरीज लिमिटेड (यूबीएल) कोयले से चावल की भूसी में स्थानांतरित हो गई। यूबीएल के एक वरिष्ठ अधिकारी बताते हैं, “हमारा प्रबंधन कोयले के इस्तेमाल में सख्ती के कारण बायोमास आधारित बिजली उत्पादन की दिशा में आगे बढ़ना चाहता था।
लेकिन संशय यह था कि कोयले की तरह बायोमास की संगठित आपूर्ति नहीं है। उन्होंने कहा, “हमारा यह संशय तब दूर हुआ हमारे आंतरिक आकलन में यह पता चला कि चावल मिलें कच्चे माल की नियमित आपूर्ति कर सकती हैं।” कंपनी ने अब धान की भूसी से जलने वाले बॉयलरों में निवेश किया है। भूसी के तीन से चार दिनों के लिए स्टॉक के लिए कंपनी ने 1.5 करोड़ रुपए का निवेश किया है। कंपनी का संयंत्र जो पहले 12 टन के बॉयलरों को चलाने के लिए एक दिन में 14 टन कोयले का उपयोग करता था, अब 25 टन धान की भूसी का प्रयोग करता है।
अलवर में स्थित बहुराष्ट्रीय कंपनी अनहेजर बुस इनबेव के स्वामित्व वाली बीयर फैक्ट्री और उत्तर प्रदेश के हापुड़ में स्थित सजावटी लेमिनेट्स की निर्माता और निर्यातक कंपनी मेरीनो लेमिनेट्स भी धान की भूसी और बुरादा का उपयोग करती है। मेरीनो के प्रबंध निदेशक प्रकाश लोहिया का कहना है कि वह दो दशकों से बायोमास सामग्री का उपयोग कर रहे हैं। उनका कहना है कि इससे न केवल वायु प्रदूषण को कम करने में मदद मिलती है बल्कि यह आर्थिक रूप से भी मददगार है।
निराश किसान
ये कंपनियां धान की भूसी 3.50 से 4.50 रुपए प्रति किलो के हिसाब से खरीदती हैं। लेकिन यह पूरा पैसा भूसी की मिल्कियत वाली मिलों के पास चला जाता है। मिलों को यह भूसी धान, सरसों और मूंगफली के बायप्रॉडक्ट के रूप में मुफ्त प्राप्त होती है। ऑल इंडिया राइस एक्सपोर्टर्स असोसिसिएशन के अध्यक्ष और करनाल स्थित चावल निर्यातक विजय सेतिया कहते हैं, “कई चावल मिलें हैं जो भूसी की आपूर्ति करती हैं या खुद बिजली पैदा करने के लिए इसका इस्तेमाल करती हैं।” फसल उगाने वाले किसान इस कड़ी में शामिल नहीं हैं। बायोमास उद्योग की उपयोगिता को देखते हुए कुछ नए निर्माता पैदा हो गए हैं। वे बायोमास ईंधन के रूप में उपयोग किए जाने वाले पैलेट और ब्रिकेट बनाते हैं। यहां तक कि कच्चे माल के लिए किसानों के पास भी नहीं पहुंचते।
बीकानेर स्थित एक पैलेट निर्माता एग्रो-एनर्जी के सहयोगी गिरीश कुमार बताते हैं, “हर खेत में जाकर बायोमास इकट्ठा करना बहुत मुश्किल है। इसके बजाय हम बिचौलियों से खरीद करते हैं, जो हमें आपूर्ति की गारंटी देते हैं।” बिहार से पंजाब तक के नेटवर्क वाले कई वेंडर और ट्रांसपोर्टर्स भी मिलों और उद्योगों के बीच बिचौलियों की तरह काम करते हैं। उनके तौर-तरीके को समझने के लिए डाउन टू अर्थ ने उपभोक्ता बनकर ऐसे ही एक बिचौलिए ओम साईं हस्क से संपर्क किया, जो धान की भूसी की आपूर्ति करता है। फोन कॉल उठाने वाले व्यक्ति ने कहा, “हमें अपनी आवश्यकता और डिलीवरी की जगह बताएं, हम समय पर आपूर्ति करेंगे।” उन्होंने 4.50 रुपए के प्रचलित मूल्य से कम दर पर सामग्री की आपूर्ति का भी आश्वासन दिया।
इसमें कोई संदेह नहीं कि कृषि-अवशेष लाभकारी सामग्री के रूप में उभर रहे हैं। नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय के अनुसार, भारत एक वर्ष में लगभग 145 मिलियन टन अतिरिक्त कृषि-अवशेष उत्पन्न करता है। इससे 18,730 मेगावाट बिजली पैदा हो सकती है। लेकिन स्पष्ट नीति के अभाव में इसका उपयोग नहीं हो पा रहा है और किसानों को शायद ही इससे लाभ होता है। शिव कुमार का कहना है कि किसान तभी पराली बेचेंगे जब सस्ती दरों पर हेबेलर जैसे उपकरणों को उपलब्ध कराया जाए। इसके अलावा सरकार को भूसी का बाजार भाव निर्धारित करना चाहिए। इससे बिचौलियों, मिल मालिकों और ट्रांसपोर्टर्स के बजाय किसानों को फायदा होगा।