डाउन टू अर्थ पड़ताल: क्यों फेल हो रहे हैं गेहूं के नए किस्म के बीज, किसानों ने झेला नुकसान

नए बीजों से गुणवत्तायुक्त और उच्च पैदावार के दावों को जलवायु परिवर्तन ने झुठलाना शुरू कर दिया है
पिछले दो वर्षों में तेज गर्मी ने गेहूं की उपज को बुरी तरह प्रभावित किया है (फोटो: विकास चौधरी / सीएसई)
पिछले दो वर्षों में तेज गर्मी ने गेहूं की उपज को बुरी तरह प्रभावित किया है (फोटो: विकास चौधरी / सीएसई)
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करनाल के गेहूं अनुसंधान निदेशालय द्वारा 2007 में आए सरकारी विजन-2025 में गेहूं की एक ऐसी वैराइटी बनाने की कल्पना की जिससे एक हेक्टेयर में 8 टन गेहूं पैदा किया जा सके। विजन को आए 15 साल हो गए हैं लेकिन किसान अब तक अधिकतम 6 टन प्रति हेक्टेयर से अधिक उपज नहीं प्राप्त कर पा रहे हैं। इसका कसूरवार अप्रत्याशित जलवायु परिवर्तन को माना जा रहा है। दूसरी तरफ वैज्ञानिक भी अब 8 टन के लक्ष्य को लगभग असंभव-सा मान रहे हैं और किसानों को 6 टन प्रति हेक्टेयर से अधिक उपज का सपना न संजोने की सलाह दे रहे हैं।

वैज्ञानिकों सलाह के ठोस कारण हैं। पिछले दो वर्षाें से फरवरी में ही अत्यधिक तापमान ने गेहूं की फसल के दानों को इस कदर खराब करना शुरू कर दिया है जिससे उनसे बीज बनाना ही मुश्किल हो जाए।

उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में टड़िया गांव में बीज उत्पादक और प्रगतिशील किसान चंद्रशेखर सिंह डाउन टू अर्थ से कहते हैं, “2022 में मेरे गेहूं में 40 फीसदी का नुकसान हुआ था। दाने इतने हल्के थे कि उनसे बीज ही नहीं तैयार हो सका। मैं बीज उत्पादक हूं तो मुझे उत्तराखंड के उधमसिंह नगर जिले में जाकर प्राइवेट कंपनी से करीब 1,000 क्विंटल बीज खरीद कर लाना पड़ा। क्योंकि उत्तराखंड ठंडी जगह है जहां बीज अच्छा मिल जाता है।” वह आगे कहते हैं, “हैरानी तब हुई जब गेहूं की पीबीडब्ल्यू 154 वैराइटी (रोग प्रतिरोधी) वाली फसल के दाने भी हल्के हो गए क्योंकि हम इनमें हमेशा भारी दाने देखते रहे हैं। गेहूं की फसल खराब होने के कारण सबसे बड़ा संकट बीज का खड़ा हुआ। इन कमजोर दाने वाली फसलों से हम बीज नहीं तैयार कर सकते।”

पद्मश्री सम्मानित किसान चंद्रशेखर का अनुभव है कि उत्तर पूर्वी मैदानी क्षेत्र के कृषि जलवायु स्थिति वाले वाराणसी में गर्मी बीते कुछ वर्षों से बढ़ गई है जिससे खासतौर से गेहूं की फसल को नुकसान होना शुरू हो गया है। उनका मानना है कि जो ठंडी जगहें हैं, वहां खासतौर से गेहूं के बीज बेहतर तरीके से पनप रहे हैं। चंद्रशेखर कहते हैं, हालांकि इस साल भी फरवरी में ही अत्यधिक गर्मी का अनुभव हो रहा है। उन्हें लगता है अत्यधिक गर्मी से इस साल भी फसल को नुकसान होगा और बीज नहीं तैयार हो पाएगा।

जलवायु परिवर्तन के कारण बीज पर संकट किसानों के लिए एक नई चुनौती है। वैज्ञानिकों के मुताबिक, गेहूं की फसल में बेहतर दानों के लिए शर्त यह होती है कि दिन का तापमान 25 से 26 डिग्री सेल्सियस या कम से कम 30 डिग्री सेल्सियस तक रहे और रात का तापमान 15-16 डिग्री सेल्सियस से नीचे या कम से कम 20 डिग्री सेल्सियस तक रहे। हालांकि बीते दो वर्षों से (2021-2022) दाने परिपक्व नहीं हुए, जिनसे न ही गुणवत्तायुक्त बीज बनाया जा सकता था और न ही उसका गुणन ठीक से हो पाया।

वहीं, बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के गेहूं कार्यक्रम के हेड रमेश सिंह बताते हैं “जर्मिनेशन की प्रक्रिया में बीज शुरुआती 15 दिनों में अपने पोषण को इस्तेमाल करते हैं। ऐसे में जिन दानों से बीज बनना है, वह ही अगर कमजोर होंगे तो सीड प्लांट कैसे बनेगा?” वह आगे कहते हैं, “जलवायु परिवर्तन का स्पष्ट असर दिखाई देने लगा है। अनियमित वर्षा और तापमान में अचानक होने वाला अप्रत्याशित बदलाव महसूस किया जा रहा है। इन अप्रत्याशित मौसमी बदलावों के कारण सिर्फ बीज पर ही नहीं बल्कि भारत में पड़ोसी देशों से नए कीटों और नई बीमारियों के आने का जोखिम भी बढ़ गया है।”

रमेश के मुताबिक, “व्हीट ब्लास्ट” जैसी बीमारी के बारे में जैसा सोचना भी वैज्ञानिकों की कल्पना से बाहर था। लेकिन अब ऐसा हो रहा है क्योंकि अनियमित वर्षा और तापमान में अचानक बदलाव साथ ही अत्यधिक नमी फंगस विस्तार को बढ़ाती है। व्हीट ब्लास्ट एक फंगल डिजीज है, इसमें गेहूं की फसल पूरी तरह झुलस जाती है।

अब यह बीमारी कई दक्षिण एशियाई देशों में हकीकत बन रही है। साथ ही भारत में भी गेहूं की फसल के लिए बड़ा खतरा है। व्हीट ब्लास्ट के कारण बांग्लादेश से सटे भारत के मुर्शिदाबाद और नादिया जिले में करीब पांच साल से गेहूं की खेती बंद (व्हीट हॉलिडे) है।” वह आगे बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण ऐसे नए खतरों से लड़ने के लिए नई जलवायु रोधी (क्लाइमेट रेजिलिएंट) प्रजातियां एक विकल्प जरूर हैं।

हालांकि, इसके लिए किसानों को भी जलवायु अनुकूल खेती के प्रयास करने होंगे। मिसाल के तौर पर वह बताते हैं 2021 में मालवीय-838 या हिंदू यूनिवर्सिटी व्हीट (एचयूडब्ल्यू) 838 को व्हीट ब्लास्ट से लड़ने के लिए ही जारी किया गया था। हालांकि, अभी पश्चिम बंगाल के किसानों के द्वारा इसके प्रयोग और अंतिम परिणाम नहीं हासिल हुए हैं।

विभिन्न कृषि जलवायु वाले क्षेत्रों के लिए अनुकूल बीज प्रजाति को कृषि वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन से लड़ाई में एक कारगर हथियार मानते हैं। यही कारण है कि बीते कुछ वर्षों से नई प्रजातियों को न सिर्फ डिजीज रेजिलिएंट बल्कि क्लाइमेट रेजिलिएंट बनाया जा रहा है। नई दिल्ली स्थित इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट के सीनियर रिसर्च एनालिस्ट गौरव त्रिपाठी बताते हैं कि 2005 एक बेंचमार्क साल था। इस वर्ष से उन्नत बीज और कई नई किस्में आईसीएआर (भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद) के जरिए जारी की जा रही है। इन्हें डिजीज, हीट और अन्य अप्रत्याशित मौसम कारकों से लड़ने के लिए तैयार किया जा रहा है। 2005 के बाद की वैराइटी को न्यू वैराइटी माना जाता है। इससे पहले की सभी को ओल्ड माना जाता है।

आईसीएआर-भारतीय गेहूं एवं जौ अनुसंधान संस्थान की ओर से अगस्त 2018 में जारी किए गए पेपर “व्हीट वैराइटीज नोटिफाइड इन इंडिया सिंस 1965” के मुताबिक, विभिन्न एग्रो-ईकोलॉजिकल रीजन में 1965 से अब तक 448 व्हीट वैराइटी जारी की जा चुकी है। इनमें सूखे, ताप, माइक्रो-डिफिशिएंट सॉयल, खारापन, क्षारीय, जलभराव और जैविक तनाव से लड़ने की क्षमता है। हालांकि जलवायु परिवर्तन के कारकों से लड़ने वाले यह उन्नत बीज आखिर क्यों किसानों को नुकसान से नहीं बचा पा रहे हैं?

इस प्रश्न के जवाब में सीनियर रिसर्च एनालिस्ट गौरव त्रिपाठी बताते हैं कि सार्वजनिक क्षेत्र में कृषि विभाग के एक्सटेंशन की पहुंच सीमित है। वह नई प्रजातियों को किसान तक नहीं पहुंचा पा रहे हैं। मिसाल के तौर पर हाइब्रिड मक्का के बीजों का निर्माण ज्यादातर प्राइवेट प्लेयर्स के जरिए किया जाता है और उसकी किसानों तक पहुंच बहुत ज्यादा है। जबकि गेहूं और चावल की ज्यादातर प्रजातियां सरकारी हैं, जो नए बीजों को किसानों तक नहीं पहुंचा पा रही है।

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई) के विजन 2025 पर्सपैक्टिव प्लान के मुताबिक, देश के कुल ब्रीडर सीड प्रोडक्शन में केंद्र और राज्य की सरकारी एजेंसियों के जरिए आईएआरआई के गेहूं के बीज की मांग महज 32.9 फीसदी है। शेष किसान या तो खुद बीज का निर्माण करते हैं या फिर प्राइवेट प्लेयर्स से बीज लेते हैं। जो किसान एक ही बीज वर्षों से लगा रहे हैं, उनकी पैदावार भी कम हो रही है और ऊपर से जलवायु परिवर्तन की मार भी उन पर पड़ रही है।

रमेश के मुताबिक, भारत में गेहूं का सीड रिप्लेसमेंट रेशियो (एसआरआर) 20 फीसदी तक ही है। यानी किसान नए बीजों का प्रयोग बहुत कम करते हैं, इसलिए नई उन्नत किस्में किसानों की पहुंच से बाहर हैं।

पहली बार पीपीपी

आईएआरआई ने एचडी-3385 किस्म को प्रोटेक्शन ऑफ प्लांट वैराइटीज एंड फार्मर्स राइट्स अथॉरिटी (पीपीवीएफआरए) के तहत पंजीकृत करा लिया है। इसके साथ ही डीसीएम श्रीराम लिमिटेड की कंपनी बॉयोसी के साथ इस किस्म का लाइसेंस देने का समझौता किया गया है। चालू रबी सीजन में इस किस्म के मल्टी लोकेशन ट्रायल और सीड मल्टीप्लीकेशन को अंजाम दिया जा रहा है। आईएआरआई के मुताबिक, इस तरह का यह पहला प्रयास है, जिसमें पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप की गई है। साथ ही पीपीवीएफआरए के तहत इस किस्म का रजिस्ट्रेशन करने के चलते बौद्धिक संपदा अधिकार भी सुरक्षित हैं। सार्वजनिक क्षेत्र में विकसित की गई किस्म का व्यवसायीकरण करने की यह पहली मिसाल है।

दावा किया जा रहा है कि इसके जरिये नई विकसित किस्म को किसानों तक तेजी से पहुंचाने के काम होगा और सार्वजनिक क्षेत्र की तकनीक से किसानों को फायदा होगा। साथ ही लाइसेंस की शर्त के तहत निजी कंपनी प्रति किलोग्राम बीज की बिक्री पर आईसीएआर को एक निश्चित रकम रॉयल्टी के रूप में देगी जिसका उपयोग नये शोध के लिए किया जाएगा। इसके चलते जलवायु परिवर्तन से बेअसर (क्लाइमेट स्मार्ट) किस्मों के जरिये देश को गेहूं के अधिक उत्पादन का फायदा होगा। वहीं, भविष्य में अगर कोई दूसरा संस्थान या कंपनी भी इस किस्म के बीज उत्पादन और बिक्री का लाइसेंस लेना चाहती है तो मौजूदा शर्तों पर वह हासिल कर सकती है।

नई किस्मों की सीमा

क्या ये क्लाइमेट स्मार्ट बीज जलवायु के कारकों का इलाज हैं? इस सवाल के जवाब में नई दिल्ली स्थित आईसीएआर के प्रिसिंपल साइंटिस्ट और व्हीट ब्रीडर राजबीर यादव डाउन टू अर्थ से कहते हैं कि 39 या 40 डिग्री सेल्सियस के तापमान को टॉलरेट कर पाना इनके लिए मुमकिन नहीं होगा। ये बीज 34 से 35 डिग्री सेल्सियस तापमान तक ही झेल सकते हैं।

राजबीर यादव बताते हैं, “जलवायु के अंदर जो मौसम के घटक हैं, वे किसी के नियंत्रण में नहीं हैं। तापमान और बारिश दो ऐसे मुख्य घटक हैं जो फसल वृद्धि को प्रभावित करते हैं। गेहूं एक निश्चित तापमान में विकसित होता है। हमारे यहां तापमान बढ़ना मुद्दा नहीं है बल्कि मुद्दा यह है कि हमारा तापमान एक सामान्य अवस्था से अचानक बढ़ जाता है। ऐसे में अचानक और अप्रत्याशित बढ़े हुए इस तापमान से फसलों का सामंजस्य नहीं हो पा रहा। यह हमारे लिए चिंता का मुद्दा है।”

राजबीर बताते हैं कि गांव-गांव के माइक्रो क्लाइमेट में अंतर है। एक वैराइटी सभी एग्रो क्लाइमेटिक कंडिशन में काम नहीं कर सकती। जो कंडिशन आपके यहां हो, उसे ही अपनाना करना चाहिए। यूरोपियन यूनियन में हमारे देश से ज्यादा वैराइटी आ रही हैं। ज्यादा वैराइटी हमेशा फायदेमंद है।

वह बताते हैं कि क्लाइमेट स्मार्ट वैराइटी एचडी 3385 ऐसी ही वैराइटी बनाई गई है जो आपके नुकसान को कम से कम करे। इसमें यह भी ध्यान रखा है कि यदि कोई किसान जल्दी बिजाई (अर्ली सीडिंग) और बिना किसी जोत के खेती (जीरो टिलिंग) करता है तो यह वैराइटी उन सब परिस्थितियों में भी काम करेगी। ऐसे में जलवायु परिवर्तन से बचाते हुए गेहूं की अच्छी फसल के लिए किसान अनुकूल किस्मों के साथ जल्दी बिजाई करें। साथ ही बिना जुताई ही सीधे खेती करें। वह बताते हैं कि यदि फसलों के अवशेष खेतों में ही पड़े रहने दें तो इससे वहां का तापमान कम होगा और पहली क्रॉप की जड़ें यदि खेतों में रहती हैं तो अत्यधिक बारिश के समय पानी मिट्टी की सतह पर रुकेगा नहीं। इससे भी किसान नुकसान से बच सकेंगे।

माइक्रो क्लाइमेट चेंज एक निदान

पटना स्थित आईसीएआर-रिसर्च काॅम्प्लेक्स फॉर ईस्टर्न रीजन के निदेशक आशुतोष उपाध्याय बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन से लड़ाई में सिर्फ बीज काफी नहीं है। इसके लिए समय से बुआई-कटाई बहुत जरूरी है।

दूसरा हमने अपने यहां माइक्रो क्लाइमेट बदलकर तापमान में बदलाव की कोशिश की और उसका हमें सकारात्मक परिणाम मिला। यदि किसान मिट्टी की नमी को न खत्म होने दे और हल्की सिंचाई करे तो माइक्रो क्लाइमेट चेंज हो जाता है। यह बढ़े हुए तापमान को कम करने का यह एक उपाय है। इसके अलावा बिहार का सीड रिप्लेसमेट रेशियो (एसआरआर) 10 फीसदी के आसपास है। इसका मतलब है कि किसान पुराने सीड ज्यादा इस्तेमाल कर रह रहे हैं और एक ही सीड का इस्तेमाल पैदावार को कम कर देता है।

सेंटर फॉर सस्टेनबल एग्रीकल्चर, हैदराबाद से जुड़े राजशेखर जी बताते हैं कि पूरे भारत में दो तरह की सीड सिस्टम प्रणाली है। पहला है, फॉर्मल सिस्टम जिसमें 1968 सीड एक्ट के तहत प्राइवेट कंपनियां सीड बनाने से लेकर मार्केटिंग और ब्रांडिंग करती हैं। दूसरा इन्फोर्मल सीड सिस्टम है, जिसमें खुद किसान ही अपने लिए बीज तैयार करता है। भारत में 50 फीसदी से अधिक इन्फोर्मल सीड सिस्टम चल रहा है। कपास, सब्जी, मक्का के बीज ज्यादातर कंपनी के हैं, लेकिन अन्य सभी फसलों में किसान अपना बीज इस्तेमाल करते हैं।

बहरहाल पटना स्थित भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद का पूर्वी अनुंसधान परिसर 23 फरवरी, 2023 को पूर्वी राज्यों (बिहार, उड़ीसा) के किसानों को चेतावनी दे चुका है कि टर्मिनल उच्च तापमान के कारण गेहूं के दाने छोटे और हल्के हो सकते हैं। इसका सीधा मतलब है कि 50 से अधिक फीसदी में अनौपचारिक सीड सिस्टम के तहत बीज और खुद के खाने का इंतजाम करने वाले किसान जलवायु परिवर्तन से हार जाएंगे।

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