
केंद्र सरकार ने खरीफ सीजन से ठीक पहले बीटी कॉटन के बीजों की कीमतों को बढ़ाने का फैसला लिया है। केंद्र के इस फैसले की विशेषज्ञों और किसानों ने तीखी आलोचना की है। उनका कहना है कि एक तरफ जहां कपास की पैदावार में गिरावट आ रही है और कीटों, खास तौर पर पिंक बॉलवर्म (पीबीडब्ल्यू) यानी गुलाबी सुंडी के हमले, हाल के वर्षों में बढे हैं।
आलोचकों का यह भी आरोप है कि सरकार ने बीजों के प्रदर्शन का आकलन किए बिना या प्रभावित किसानों से बात किए बिना ही कीमतों को बढ़ाने की मंजूरी दे दी है।
केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा 28 मार्च, 2025 को जारी अधिसूचना के मुताबिक, बीटी कॉटन के बीज के 475 ग्राम के पैकेट की कीमत बोलगार्ड I (बीजी-I) के लिए 635 रुपए, जबकि बोलगार्ड II (बीजी-II) के लिए 901 रुपए तय की गई है। इस पैकेट में पांच से 10 फीसदी गैर-बीटी बीज भी शामिल होते हैं।
देखा जाए तो बोलगार्ड I बीजों की कीमत में कोई बदलाव नहीं हुआ है, लेकिन बीजी-II बीजों की कीमतों में पिछले साल के मुकाबले 4.2 फीसदी यानी 37 रुपए की बढ़ोतरी की गई है। गौरतलब है कि कीमतों में यह बढ़ोतरी जून में कपास की बुआई शुरू होने से ठीक पहले की गई है।
किसान आमतौर पर बोलगार्ड-II बीजों को प्राथमिकता देते हैं, क्योंकि माना जाता है कि वे कीटों के प्रति कहीं अधिक प्रतिरोधी होते हैं। लेकिन विशेषज्ञों का तर्क है कि सालाना कीमतों में बढ़ोतरी ठीक नहीं है, खासकर तब जब इस बात की कोई उचित समीक्षा नहीं की गई है कि ये बीज कितने कारगर हैं।
सस्टेनेबल फार्मिंग पर काम करने वाले सार्वजनिक नीति विशेषज्ञ नरसिम्हा रेड्डी दोंथी का कहना है, "कीमतों में इस वृद्धि को उचित ठहराने की कोई गणना या स्पष्टीकरण नहीं है। 2016-17 में, कपास बीज मूल्य (नियंत्रण) आदेश, 2015 को लागू किए जाने के बाद से, राज्य सरकारों से बीजों की कीमतें तय करने की शक्ति छीन ली गई है, हालांकि बीजी-I की कीमतें समान बनी हुई हैं, लेकिन बीजी-II की कीमतें बढ़ती जा रही हैं।"
जलवायु परिवर्तन से बढ़ रहा कीटों का प्रकोप
गौरतलब है कि 2002 में बीटी कॉटन को देश की पहली आनुवंशिक रूप से संशोधित फसल (जीएम) के रूप में पेश किया गया था। इसे मूल रूप से भारत में कपास की फसल को अमेरिकी सुंडी (अमेरिकी बॉलवर्म) या हेलिकोवर्पा आर्मिगेरा नामक एक प्रमुख कीट से बचाने के लिए तैयार किया गया था। हालांकि कुछ ही वर्षों में यह पिंक बॉलवर्म का शिकार होने लगा। गुलाबी सुंडी को पिंक बॉलवर्म (पीबीडब्ल्यू) के नाम से भी जाना जाता है।
देखा जाए तो जलवायु परिवर्तन के कारण तापमान में होती वृद्धि और बारिश के पैटर्न में आते बदलाव जैसी मौसमी परिस्थितियों ने कीटों के प्रकोप को और भी ज्यादा बढ़ा दिया है।
हाल के वर्षों में कीटों के लगातार बढ़ते हमलों के कारण किसानों को भारी नुकसान और बढ़ते कर्ज का सामना करना पड़ रहा है। कॉटन एसोसिएशन ऑफ इंडिया के आंकड़ों के अनुसार, कपास की पैदावार में भी लगातार गिरावट आई है। रुझानों के मुताबिक 2014-15 में जहां प्रति हेक्टेयर 510.82 किलोग्राम पैदावार हुई वहीं 2024-25 में यह आंकड़ा घटकर 436.99 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रह गया।
30 मार्च, 2025 को दोंती ने बढ़ती कीमतों को लेकर केंद्रीय कृषि मंत्री शिवराज सिंह चौहान को भी पत्र लिखा है। अपने पत्र में उन्होंने कपास की पैदावार में गिरावट और कीटों के हमले बढ़ने के बावजूद बीजों की कीमतें बढ़ाने के लिए कपास बीज समिति की आलोचना की है।
उनका यह भी कहना है कि समिति बीटी कपास के बीजों बीजी-I और बीजी-II के प्रदर्शन का आकलन करने में विफल रही है। वहीं किसान कम पैदावार, पिंक बॉलवर्म के बढ़ते हमलों, कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग, खेती की बढ़ती लागत, खराब गुणवत्ता वाले कपास, काली फफूंद (ब्लैक फंगस) और कई अन्य मुद्दों के बारे में शिकायत कर रहे हैं।
2015 में केंद्र सरकार ने आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत कपास बीज मूल्य (नियंत्रण) आदेश जारी किया। इसने बीज की कीमतें तय करने का अधिकार एक राष्ट्रीय समिति को दे दिया, जिससे इसमें राज्य सरकारों की भूमिका खत्म हो गई।
दोंती का आरोप है कि 2016-17 से समिति ने बीज की कीमतें तय करने से पहले किसानों से बात नहीं की, साथ ही वो इस बारे में सार्वजनिक बैठकें आयोजित करने में विफल रही है।
बीज कम्पनियों ने कीमतों में वृद्धि को बताया 'मामूली'
उनका आगे कहना है, "इससे पहले, हमारे पास एक परामर्श प्रक्रिया थी। इसके तहत राज्य कृषि विभाग कीमतों, वितरण और अन्य मुद्दों पर चर्चा के लिए किसान प्रतिनिधियों, बीज कंपनियों और अधिकारियों से मिलते थे।"
दूसरी ओर, बीज कम्पनियों ने इस वृद्धि को 'मामूली' बताया और कहा कि यह उनकी बढ़ती उत्पादन लागत को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है।
खाद्य एवं कृषि नीति विश्लेषक रोहित पारख ने कहा कि बीज की कीमतें तय करने के लिए अधिक पारदर्शी और स्पष्ट प्रक्रिया होनी चाहिए। उनका यह भी कहना है कि अब समय आ गया है कि देशी कपास को बढ़ावा दिया जाए, जिसके लिए कम पानी की जरूरत होती है। यह कृषि रसायनों पर निर्भर नहीं होता और यह पर्यावरण के लिहाज से भी बेहतर है।" उनके मुताबिक इस पर लंबे समय से ध्यान दिए जाने की आवश्यकता थी।
पारख ने कहा कि गैर-बीटी कपास के कई राज्यों में उत्साहजनक नतीजे सामने आए हैं। उन्होंने राज्य और केंद्र दोनों सरकारों से इसे बढ़ावा देने का आग्रह किया।
उन्होंने कहा कि सेंटर फॉर सस्टेनेबल एग्रीकल्चर और रायथु साधिकारा संस्था (आरवाईएसएस) की पहलों से पता चला है पिछले कुछ वर्षों में कई राज्यों में गैर-बीटी कपास के साथ बहुत सकारात्मक नतीजे मिले हैं। खास तौर पर रसायनों का उपयोग किए बिना या उन पर अतिरिक्त पैसा खर्च किए बिना अच्छे नतीजे सामने आए हैं।
पारख ने बताया कि कुछ साल पहले हरियाणा सरकार ने किसानों को देसी कपास को बढ़ावा देने के लिए 3,000 रुपए प्रति एकड़ देने की पेशकश की थी। लेकिन यह योजना विफल हो गई क्योंकि पर्याप्त बीज उपलब्ध नहीं थे।