कपास का शाप: कैसे गुलाबी सुंडी ने बीटी कपास के प्रति विकसित किया प्रतिरोध?

विशेषज्ञों का कहना है कि सीजन में बहुत जल्दी या देर से बुआई, लम्बी अवधि की फसलें, और कपास की अन्य किस्मों को बोने की सलाह का पालन न करने से प्रतिरोध विकसित हो सकता है
इन कीटों का सामना करने के विकसित की गई बीटी कॉटन नामक आनुवंशिक रूप से संशोधित किस्म भी गुलाबी सुंडी का शिकार बन गई है। कुछ क्षेत्रों में तो इसकी उपज को 90 फीसदी से अधिक नुकसान हुआ है। फोटो: विकास चौधरी/सीएसई
इन कीटों का सामना करने के विकसित की गई बीटी कॉटन नामक आनुवंशिक रूप से संशोधित किस्म भी गुलाबी सुंडी का शिकार बन गई है। कुछ क्षेत्रों में तो इसकी उपज को 90 फीसदी से अधिक नुकसान हुआ है। फोटो: विकास चौधरी/सीएसई
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पिंक बॉलवर्म (पीबीडब्ल्यू) यानी गुलाबी सुंडी के कारण पिछले दो दशकों में उत्तरी क्षेत्र में कपास को भारी नुकसान का सामना करना पड़ा है। यहां तक कि बीटी कपास नामक आनुवंशिक रूप से संशोधित किस्म भी इसके हमले का सामना नहीं कर पाई। कुछ क्षेत्रों में तो इसकी उपज को 90 फीसदी से अधिक का नुकसान हुआ है।

ऐसा लगता है कि इस कीट ने बीटी कॉटन के प्रति भी प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर ली है। वैज्ञानिकों को संदेह है कि इसके लिए कई कारक जिम्मेवार हो सकते हैं। आइए जानते हैं कि कैसे गुलाबी सुंडी ने बीटी कपास के प्रति प्रतिरोध विकसित किया?

बीटी कॉटन (बोल्गार्ड II बीज) को बैक्टीरिया बैसिलस थुरिंजिनिसिस से बचाने के लिए विकसित किया गया था। 1996 में अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में सफलता के बाद बीटी कपास के इस बीज को 2002 में अमेरिकी सुंडी (अमेरिकन बॉलवर्म), चित्तीदार सुंडी (स्पॉटेड बॉलवर्म) और गुलाबी सुंडी (पिंक बॉलवर्म) से फसलों को बचाने के लिए भारत में पेश किया गया था।

इससे पहले, अमेरिकन सुंडी कपास के लिए सबसे बड़ा खतरा बन चुकी था, क्योंकि इसने कीटनाशक सिंथेटिक पाइरेथ्रोइड्स, ऑर्गेनोफॉस्फोरस और कार्बामेट्स के प्रति प्रतिरोध विकसित कर लिया था। इसकी वजह से 1985 से 2002 के बीच भारत के सभी 11 कपास उत्पादक राज्यों में किसानों को भारी नुकसान भी झेलना पड़ा था।

बीटी कपास की यह किस्म, उपज को अमेरिकी सुंडी से बचाने में सफल रही, जो इसका प्राथमिक उद्देश्य था। हालांकि 2008 में पहली बार इस बात के सबूत मिले थे कि गुलाबी सुंडी ने इसके खिलाफ प्रतिरोध विकसित कर लिया है। वैज्ञानिकों को संदेह है कि इसके लिए एक से अधिक कारण जिम्मेवार हो सकते हैं।

केंद्रीय कपास अनुसंधान संस्थान (सीआईसीआर), सिरसा के एक कीट विज्ञानी ऋषि कुमार ने बताया कि यह समस्या तब शुरू हुई जब उत्तर भारत में समय से पहले इसकी बुआई की गई, वहीं मध्य एवं दक्षिणी भारत में किसानों ने देर से उगाई जाने वाली किस्मों को चुना।

उन्होंने समझाया कि, "कपास की बुआई का सबसे अच्छा समय 15 अप्रैल से 15 मई के बीच होता है। हालांकि, उत्तरी हरियाणा, राजस्थान और पंजाब में कई किसान मार्च के अंत में या अप्रैल की शुरुआत में कपास की बुआई शुरू करते हैं, जो जून के अंत तक जारी रहती है। इसका मतलब है कि वो 45 से 80 दिन पहले इसकी बुआई करते हैं।"

कुमार का कहना है कि, "बुआई का यह शुरूआती सीजन उस अवधि के साथ मेल खाता है, जब सर्दियों के दौरान गुलाबी सुंडी (पीबीडब्ल्यू) हाइबरनेशन या डायपॉज से बाहर आती है। इस अवस्था में कीट कपास के दो बीजों या फसल के अवशेषों के बीच जीवित बचा रहता है।“

इस अवधि के दौरान, कपास में कली या फूल आने लगते हैं। वहीं उसी दौरान गुलाबी सुंडी भोजन की तलाश में होती है और उसके लार्वा कपास के बीजकोषों को खाना शुरू कर देते हैं। यह सिलसिला 14 से 17 दिनों तक जारी रहता है। इसके बाद यह कीट दोबारा अंडे देना शुरू कर देता है।

वहीं जो किसान देर से आने वाली किस्मों को बोते हैं, उनके लिए समस्या और गंभीर हो जाती है। इससे कीड़ों को लंबे समय तक भोजन मिलता रहता है, जो उनकी अगली पीढ़ियों के विकास में मददगार होता है। इससे किसानों के लिए जोखिम बढ़ जाता है।

बठिंडा में कृषि विज्ञान केंद्र (केवीके) के कीट विज्ञानी विनय पठानिया का कहना है कि, "हाल के वर्षों में, यह कीट ऑफ-सीजन के दौरान भी कपास के पौधों के अवशेष, बीज और गोलों पर जीवित रहकर भारत के उत्तरी हिस्सों में अपना रास्ता खोजने में कामयाब रहा है।" उनके मुताबिक 2015-2016 के बाद से महाराष्ट्र, तेलंगाना, कर्नाटक, गुजरात, आंध्र प्रदेश और दक्षिण भारत अन्य कपास उत्पादक क्षेत्रों में गुलाबी सुंडी के आक्रमण की सूचना मिली है।

कैसे बीटी कपास से जीत गई गुलाबी सुंडी

पठानिया का कहना है कि, "इस क्षेत्र के कई तेल बीज उद्योगों और जिनिंग मिलों ने प्रभावित क्षेत्रों से कपास का आयात किया है, जिससे उत्तरी कपास क्षेत्र में यह बीमारी फैल गई है।" सबसे पहले, कपास तेल मिलों के आसपास इसके संक्रमण का पता चला था, क्योंकि कुछ संक्रमित कपास उत्तरी क्षेत्रों में भी पहुंच गई थी। हाल के वर्षों में यह समस्या काफी बढ़ गई है।

उन्होंने बताया कि कटाई के बाद कपास के बचे पौधे का उपयोग जलावन के रूप में किया जाता है। उनका आगे कहना है कि, "आमतौर पर किसान इसे सर्दियां खत्म होने तक जमा करके रखते हैं। इस दौरान गुलाबी सुंडी उसके अंदर सुप्त अवस्था (डायपॉज चरण) में बनी रहती है। वहीं जब वे बसंत और गर्मियों की शुरूआत में इससे बाहर आते हैं, तो कपास की फसलें उन्हें खाना देने के लिए खाद्य स्रोत के रूप में उपलब्ध रहती हैं।"

वैज्ञानिक ने यह भी जानकारी दी है कि इस कीट को ढूंढ पाना कठिन होता है, क्योंकि यह छिपा रहता है और दिखाई नहीं देता। ऐसे में शुरूआती चरण में ही किसानों द्वारा कीटनाशकों का छिड़काव करके इसे नियंत्रित करना मुश्किल होता है।

पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, भटिंडा की कीटविज्ञानी जसरीत कौर का कहना है कि, "गुलाबी सुंडी आनुवंशिक रूप से विकसित हो गई है और बीटी टॉक्सिन का सामना कर सकती है।" उनके मुताबिक दक्षिण और मध्य भारत में कपास की किस्मों की लंबी अवधि, जो 150 से 160 दिनों तक चलती है उसने कीटों को आनुवंशिक रूप से संशोधित किस्म के प्रति प्रतिरोध विकसित करने में मदद की है।

कीट द्वारा विकसित प्रतिरोध के बारे में बात करते हुए, कौर ने कहा कि क्राई टॉक्सिन (वह रसायन जो गुलाबी सुंडी को कपास के बीजों पर हमला करने से रोकता है) वो अंततः कपास के पौधों के अंतिम दिनों में खत्म हो जाता है। यदि कीट इन विषाक्त पदार्थों की थोड़ी मात्रा से बचे रहते हैं, तो वे इस रसायन के प्रति प्रतिरोध विकसित करने और अगली पीढ़ी में ऐसी संतान पैदा करने में कामयाब होते हैं, जो इसके प्रति अधिक प्रतिरोधी होती हैं।

पठानिया का कहना है कि किसानों को प्रतिरोध विकसित होने से रोकने के लिए बीटी के साथ-साथ कपास की स्वदेशी या संकर किस्मों को लगाने की बार-बार सलाह दी गई थी। उन्होंने बताया कि कपास की विभिन्न किस्मों की यदि क्रॉसब्रीडिंग की होती, तो यह कीटों को लंबे समय तक प्रतिरोध विकसित करने से रोकता। हालांकि कई किसानों ने इस सलाह पर ध्यान नहीं दिया।

कौर के मुताबिक, अमेरिकी सुंडी के विपरीत, जो कई पौधों को अपना निशाना बनाता है, गुलाबी सुंडी केवल कपास की फसलों को खाता है। ऐसे में यदि इसके चक्र को तोड़ दिया जाए और सरकारी सलाह के अनुसार समय पर कीटनाशकों का छिड़काव किया जाए, तो बीमारी को नियंत्रित किया जा सकता है। हालांकि कई किसानों ने डाउन टू अर्थ (डीटीई) के सामने स्वीकार किया कि उन्होंने आर्थिक फायदे के लिए प्रोटोकॉल का पालन नहीं किया।

राजस्थान में हनुमानगढ़ जिले के धनकावाली ढाणी के किसान राकेश ने डीटीई को बताया कि, "मैंने अक्सर गैर-बीटी कपास के बीजों को फेंक दिया, क्योंकि उसकी फसलों की वजह से सफेद मक्खी, अमेरिकन सुंडी और गुलाबी सुंडी जैसी बीमारियां आकर्षित हो सकती थीं, जो बीटी कपास पर भी हमला कर सकती थी।"

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