इस वर्ष देश के कुछ हिस्सों में सामान्य से तीन हजार प्रतिशत अधिक वर्षा दर्ज की गई, तो दूसरी ओर कई इलाकों में वर्षा का स्तर सामान्य से भी कम देखा गया। बरसात के स्तर में यह अंतर पिछली एक सदी से भी अधिक समय से लगातार बढ़ रहा है, जिसका सीधा असर फसलों के उत्पादन पर पड़ सकता है। सूखे की आशंका से ग्रस्त बुंदेलखंड में 113 वर्षों की औसत वार्षिक वर्षा के आंकड़ों का विश्लेषण करने के बाद भारतीय शोधकर्ता इस नतीजे पर पहुंचे हैं।
शोधकर्ताओं ने झांसी जिले में मूंगफली की फसल पर वर्षा में उतार-चढ़ाव के कारण पड़ने वाले प्रभाव का आकलन किया है। इस अध्ययन से पता चला है कि पूरे मानसून में होने वाली बरसात के बजाय मूंगफली की पैदावार मुख्य रूप से जून-जुलाई में होने वाली वर्षा की मात्रा पर निर्भर करती है। मूंगफली के लिए प्रतिदिन 8 से 32 मिलीमीटर वर्षा महत्वपूर्ण होती है। वहीं, प्रतिदिन 64 मिलीमीटर से ज्यादा वर्षा मूंगफली के लिए हानिकारक हो सकती है। मानसून देर से शुरू होने या फिर भारी बरसात के कारण भी मूंगफली की खेती पर नकारात्मक असर पड़ सकता है।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के पटना स्थित पूर्वी अनुसंधान परिसर और झांसी स्थित भारतीय चरागाह एवं चारा अनुसंधान संस्थान के शोधकर्ताओं द्वारा किया गया यह अध्ययन शोध पत्रिका करंट साइंस में प्रकाशित किया गया है।
शोधकर्ताओं में शामिल आईसीएआर के पूर्वी अनुसंधान परिसर के वैज्ञानिक अकरम अहमद ने इंडिया साइंस वायर को बताया कि “देश के कई क्षेत्रों में वर्षा में अत्यधिक वृद्धि हुई है, तो कुछ क्षेत्रों में बरसात के स्तर में बेहद कमी भी देखी गई है। भारी बरसात की घटनाएं बढ़ रही हैं, तो दूसरी ओर खेती के लिए उपयोगी हल्की एवं मध्यम वर्षा की घटनाएं कम हो रही हैं। बुंदेलखंड में भी बरसात का यह देशव्यापी पैटर्न देखने को मिल रहा है। हालांकि, यह अध्ययन मूंगफली पर किया गया है, लेकिन बारिश में परिवर्तनशीलता का असर अन्य फसलों पर भी पड़ेगा।”
दतिया और सागर जैसे जिलों को छोड़कर पूरे बुंदेलखंड में वार्षिक बरसात की दर में गिरावट दर्ज की गई है। इसके साथ ही, वार्षिक वर्षा में भी हर साल 0.49 मिलीमीटर से 2.16 मिलीमीटर तक गिरावट देखी गई है। बुंदेलखंड में सबसे कम और सर्वाधिक वार्षिक वर्षा क्रमशः 760 मिलीमीटर (दतिया) और 1227 मिलीमीटर (दमोह) में दर्ज की गई है। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह अध्ययन अनियमित वर्षा के कारण बुंदेलखंड में बढ़ती सूखे की प्रवृत्ति को दर्शाता है। ऐसी स्थिति फसलों की उपज को बनाए रखने के लिए चुनौती के रूप में उभर सकती है।
अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि वार्षिक वर्षा के साथ-साथ मानसून के मौसम में होने वाली वर्षा की मात्रा में भी गिरावट देखी गई है। वर्षा के विभिन्न रूपों का विश्लेषण करने पर पाया गया है कि खेती के लिए उपयोगी हल्की एवं मध्यम वर्षा (प्रतिदिन 32 मिलीमीटर से कम) की प्रवृत्ति में भी कमी आई है। शोधकर्ताओं का कहना है कि किसानों को खरीफ फसलों की बुवाई के उपयुक्त समय की जानकारी देने में यह अध्ययन मौसम विज्ञानियों के लिए मददगार हो सकता है।
शोधकर्ताओं में अकरम अहमद के अलावा आईसीएआरके पटना स्थित पूर्वी अनुसंधान परिसर के शोधकर्ता सुरजीत मंडल और भारतीय चरागाह एवं चारा अनुसंधान संस्थान के शोधकर्ता दिब्येंदु देब शामिल थे। (इंडिया साइंस वायर)