सौ साल बाद गेहूं और सोयाबीन की पैदावार तो बढ़ेगी, लेकिन...

भोपाल स्थित इंडियन इंस्टीटयूट आफ सॉइल साइंस ने सौ साल बाद की कृत्रिम जलवायु में गेहूं और सोयाबीन की पैदावार कैसी होगी, इस पर अध्ययन किया
भोपाल स्थित इंडियन इंस्टीटयूट आफ सॉइल साइंस ने सौ साल बाद की कृत्रिम जलवायु में गेहूं और सोयाबीन की फसल पर अध्ययन किया। फोटो: राकेश कुमार मालवीय
भोपाल स्थित इंडियन इंस्टीटयूट आफ सॉइल साइंस ने सौ साल बाद की कृत्रिम जलवायु में गेहूं और सोयाबीन की फसल पर अध्ययन किया। फोटो: राकेश कुमार मालवीय
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सोचिए अब से सौ बरस के बाद मौसम कितना बदल जाएगा, इसका जलवायु पर कैसा असर पड़ेगा ? वातावरण में कार्बन डाइआक्साइड की मात्रा कितनी बढ़ जाएगी, तापमान कैसा होगा और अंतत: इसका असर हमारी फसलों पर क्या होगा ? 

इस सन्दर्भ में भोपाल स्थित इंडियन इंस्टीटयूट आफ सॉइल साइंस ने एक दिलचस्प अध्ययन किया है। इस अध्ययन के अंतर्गत संस्थान ने सौ साल बाद की कृत्रिम जलवायु में गेहूं और सोयाबीन की फसल ली। शोध में निकलकर आया है कि सौ साल बाद की परिस्थिति में सोयाबीन की पैदावार में चालीस प्रतिशत तक का इजाफा हुआ , गेहूं की पैदावार भी बढ़ी, लेकिन दूसरी ओर मिट्टी के पोषक तत्वों पर इसका बुरा असर हुआ। संस्थान के हालिया रिसर्च ने कृषि और पर्यावरण के क्षेत्र में कई सवाल खड़े कर दिए हैं। 

वैज्ञानिक अध्ययनों के मुताबिक धरती के पर्यावरण में तेजी से बदलाव हुए हैं। खासकर औद्योगीकरण के बाद हमारे आसपास की जलवायु और समुद्र तेजी से गर्म हुए हैं, इसके कारण धरती पर ग्लेशियर की मात्रा में कमी आई है वहीं समुद्र के जलस्तर में वृद्धि हुई है। अध्ययनों में पाया गया है कि सन 1880 के बाद से हमारी धरती का तापमान 0.85 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है। इंटरगर्वमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की रिपोर्ट में ऐसी आशंका जताई जा रही है कि आने वाले सौ सालों में धरती का तापमान न्यूनतम 2 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। इसके साथ ही वातावरण में कार्बनडाइआक्साइड की मात्रा 2 पीपीएम प्रति वर्ष की दर से बढ़ रही है। ओद्योगीकरण के पहले यह 300 पीपीएम से भी कम थी, यह बढ़कर 410 पार्टस पर मिलियन का आंकड़ा छू रही है। यह अनुमान लगाया जा रहा है कि सन 2100 सीओटू की मात्रा 600 पीपीएम तक की आसपास पहुँच जाएगी. हालांकि यह समझना बेहद चुनौतीपूर्ण था कि इस बदलाव का फसलों और उसके पोषक तत्वों और मिटटी की गुणवत्ता पर क्या असर पड़ने वाला है। 

इस चुनौतीपूर्ण काम को करने के लिए इंस्टीटयूट वैज्ञानिक पिछले पांच साल से पसीना बहा रहे थे। इसके लिए उन्होंने फील्ड में सोलह वर्ग मीटर वाले आठ ओपन टॉप फील्ड चैम्बर्स बनाए। तकरीबन तीस लाख की लागत से बनाए गए इन चैम्बर्स की खास बात यह थी कि इनमें नैसर्गिक वातावरण में कार्बनडाइआॅक्साइड की मात्रा और तापमान को रखा जा सकता है। चूंकि यह चैम्बर टॉप से खुले हुए थे इसलिए यहां पर एक नैसर्गिक वातावरण के बना रहा। 

इस शोध कार्य का नेतृत्व कर रहे प्रमुख वैज्ञानिक डॉ नरेन्द्र कुमार लेंका ने बताया कि इस शोध को सोयाबीन और गेहूं की फसलों पर करके देखा गया। इन सी ३ फसलों को चुनने का कारण यह था कि यह दोनों ही फसलें मध्यभारत में की जाती हैं। इन चैम्बर्स में ऐसा सिस्टम विकसित किया गया जहां पर कि आटो कंट्रोल करके सोयाबीन और गेहूं की फसलों में कार्बनडाइआक्साइड की मात्रा को बढ़ाया जा सके। इसके लिए कार्बनडाइआक्साइड के सिलेंडर का उपयोग किया गया। इन सिलेंडर के माध्यम से कार्बनडाइआक्साइड के स्तर को 550 से 600 पीपीएम तक बढ़ाया गया, साथ ही तापमान में भी सामान्य तापमान से 2 डिग्री सेलिसयस अधिक तापमान रखा गया। इसके लिए इंफ्रारेड हीटर का इस्तेमाल किया गया। फसल में पानी और अन्य पोषक तत्वों को सामान्य फसलों जैसे ही रखा गया।

कार्बनडाइआक्साइड की मात्रा बढ़ाने का असर यह हुआ कि फसल की बढ़त और पैदावार दोनों में ही इजाफा हुआ। गेहूं की अपेक्षा सोयाबीन की फसल में इसका अधिक फायदा हुआ। सोयाबीन की पैदावार मौजूदा सामान्य स्थिति से जहां चालीस प्रतिशत तक बढ़ोत्तरी हुई वहीं गेहूं की फसल में यह 15 प्रतिशत तक बढ़ी।

हालांकि पैदावार बढ़ने के साथ चिंता की बात यह रही कि इस तरह के वातावरण में मिटटी में पाए जाने वाले सामान्य पोषक तत्व का नुकसान हुआ । गेहूं की फसल लेने के बाद जब मिटटी में नाइट्रोजन की मात्रा को देखा गया तो यह सामान्य अवस्था से 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर तक अधिक खपत हुई थी। इसी तरह सोयाबीन में भी नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश की मात्रा में kam se kam चालीस प्रतिशत अधिक की खपत हुई। इसके साथ ही सूक्ष्म पोषक तत्व जैसे कि copper, आइ्ररन, मैग्नीज, और जिंक की मात्रा भी अपेक्षाकृत रूप से अधिक अवशोषित हुई। 

क्या इसका दाने पर भी कोई असर पड़ा। शोध बताता है कि इससे बीज के पोषक गुणवत्ता में भी असर देखा गया है। सोयाबीन के दाने में फास्फोरस की कमी देखी गई। साथ ही सोयाबीन में ट्रिप्सिन इन्हिबिटर की मात्रा में बदौतरी हुई. ट्रिप्सिन इन्हिबिटर सोयाबीन का एक एंटी न्यूट्रीशन तत्व है. जो ट्रिप्सिन नाम के एंजाइम की गतिविधि को कम करता है, जबकि ट्रिप्सिन मानव एंजाइम मानव शारीर में पाचन क्रिया में मदद करता है. लेकिन एक अच्छी बात यह रही कि फ्य्तिक एसिड (phytic acid) नाम का तत्व कम हुआ, इसकी अधिक मात्रा से मानव शरीर में जिंक, केल्शियम, और लोह तत्व की  कमी हो जाती है. गेहूं के दाने में पाए जाने वाले ग्लूटेन नाम के एक प्रोटीन कटेंट में कमी आई है। इसी तत्व की वजह से गेंहूँ में लिसलिसापन होता है और यह आटा गूंथने में मदद करता है।

डॉ नरेन्द्र लेंका बताते हैं कि यह शोध हमें बताता है कि आने वाले समय में मिटटी की गुणवत्ता पर ध्यान देना कितना जरूरी है, न केवल फसल की गुणवत्ता पर बल्कि आने वाले समय में जलवायु परिवर्तन के असर को देखते हुए हमें मिटटी के प्रबंधन पर भी अपना ध्यान केन्द्रित करना होगा। इस शोध से यह पता चलता है कि एकीकृत पोषक तत्व प्रबंधन पर ध्यान देना महत्वपूर्ण एवं कारगर साबित होगा. इसके लिए जरुरी होगा कि मिट्टी की उपजाऊ क्षमता को बनाए रखने के लिए जैविक तरीकों का अधिक से अधिक इस्तेमाल किया जाए।

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