चुनावों के लिहाज से यह समय भारत के लिए बहुत अहम है। वर्ष 2018 और 2019 के बीच के 12 महीनों के दौरान देश में मतदाताओं की संख्या में 5.26 करोड़ की रिकॉर्ड बढ़ोतरी हो जाएगी। ये वृद्धि 21वीं सदी की शुरुआत में पैदा होने वाले बच्चों के कारण है जिन्हें जनरेशन जेड भी कहा जाता है। वे बहुत ही अहम समय पर बालिग हुए हैं। वर्ष 2018 में सात राज्यों में चुनाव हुए जबकि वर्ष 2019 में छह और राज्यों में विधानसभा चुनाव, 17वां आम चुनाव और कई स्थानीय निकाय चुनाव होने हैं। पहली बार मतदान करने वाले इन 5.26 करोड़ लोगों की समझ और दूरदर्शिता यह तय करने में अहम भूमिका निभाएगी कि भारतीय शासन व्यवस्था की नींव शांति, समानता और सांस्कृतिक विविधता पर रखी जाएगी अथवा धर्म, जाति और कट्टरता पर आधारित होगी। स्पष्ट है कि काफी कुछ दाव पर लगा है। विशेष रूप से संविधान में निहित समानता, न्याय, बंधुत्व और आजादी का भाव दाव पर है। लेकिन क्या हम अपने नव-वयस्कों को जिम्मेदार नागरिक बना पाए हैं? चलिए गहराई से अवलोकन करें।
सबसे पहली बात तो यह कि हमारी शिक्षा व्यवस्था ही ऐसी नहीं है जो युवाओं में तर्क-वितर्क करने और बहस एवं निर्णय लेने की क्षमता का विकास कर सके। शिक्षा की स्थिति संबंधी वार्षिक रिपोर्ट (एएसईआर) 2017 के अनुसार 28 प्रतिशत लड़के और 32 प्रतिशत लड़कियां 10वीं पास करने से पहले ही स्कूल छोड़ देते हैं। अकेले मध्य प्रदेश में ही वर्ष 2010-11 से 2015-16 के बीच 42 लाख बच्चों से स्कूल छोड़ दिया। इसके अलावा, 12वीं में दाखिला लेने वाले 96 प्रतिशत बच्चे पढ़ाई के दौरान कौशल विकास कार्यक्रमों से दूर हैं जो उन्हें पर्यटन, कार की मरम्मत और कॉल सेंटर्स जैसे क्षेत्रों अथवा उद्यमों में कार्य करने के योग्य बना सकते हैं। बच्चों को भविष्य में स्वतंत्र उद्यमी बनाने में सक्षम तथा संविधान, नागरिकता, सौहार्द, समानुभूति का भाव और मानव मूल्यों से संबंधित विषय पाठ्यक्रम से नदारद हैं जो बच्चों में ज्ञान और समझ विकसित करने के लिए अनिवार्य हैं। एएसईआर 2017 रिपोर्ट यह भी बताती है कि 14-18 वर्ष की आयु के 70 प्रतिशत बच्चे मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं लेकिन इनमें से एक-चौथाई बच्चे अपनी भाषा की लिखी चीज नहीं पढ़ सकते।
दुर्भाग्यवश उनकी सोच मीडिया की देन है। पिछले 18 वर्षों के दौरान मीडिया में आने वाली मुख्य खबरों पर नजर डालने पर पता चलता है कि लगभग 75 प्रतिशत खबरें आतंकवाद, जातीय और सांप्रदायिक हिंसा, भीड़वाद, भुखमरी और कुपोषण से होने वाली मौतों, कृषि क्षेत्र का संकट जैसे किसानों की आत्महत्या, पूंजीवाद के दुष्प्रभाव और भ्रष्टाचार से संबंधित हैं। इस सदी में पैदा होने वाले बच्चे हमारी शासन व्यवस्था की गिरावट के पहले से ही गवाह हैं। अब वे हिंसा की भाषा भी सीख रहे हैं। उन्होंने हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था का आधार मानकर अभ्रद भाषा का इस्तेमाल, खुलेआम झूठ बोलना, कपट और द्वेष, असहिष्णुता तथा भ्रष्ट नीतियों का इस्तेमाल शुरू कर दिया है। पिछले दो दशकों के दौरान हमारी सामाजिक व्यवस्था में भी आमूल परिवर्तन हुआ है। संयुक्त परिवारों के टूटने से, बच्चों के युवावस्था में कदम रखने के दौरान उनके मार्गदर्शन के लिए परिवार के सदस्य शायद ही मौजूद होते हैं। आर्थिक असमानता स्थिति को और विकट बनाती है जो इनमें से अधिकांश युवाओं के विकास पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है।
फोर्ब्स के अनुसार, वर्ष 2001 में भारत में चार अरबपति थे। वर्ष 2017 में इनकी संख्या बढ़कर 101 हो गई। पेरिस स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स स्थित वर्ल्ड इक्वैलिटी लैब द्वारा प्रकाशित इंडियन इनकम इनइक्वैलिटी, 1922-2015: फ्रॉम ब्रिटिश राज टू बिलियनेयर राज नामक पत्र में यह बताया गया है कि हालांकि वर्ष 1980 से 2015 के दौरान भारतीय वित्तीय रूप से समृद्ध हुआ है, तथापि इसका विकास एकतरफा है। विकास के एकतरफा होने का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 35 वर्षों के दौरान भारत के निचले तबके, जिसमें 39.7 करोड़ वयस्क शामिल हैं (देश की वयस्क आबादी का 50 प्रतिशत), की आमदनी 90 प्रतिशत बढ़ी है जबकि ऊंचे तबके के 7,943 लोगों (अथवा 0.001 प्रतिशत वयस्क) की आमदनी 2,040 प्रतिशत बढ़ी है। यह अंतर इनकी औसत आय की तुलना करने पर अधिक स्पष्ट नजर आता है। वर्ष 2015 में निचले पायदान पर स्थित भारतीय वयस्क की औसत वार्षिक आय केवल 40,671 रुपए थी, जबकि उच्च तबके की आय 18.86 करोड़ रुपए थी। याद रहे कि 5.26 करोड़ बच्चों में से एक-चौथाई बच्चे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जाति जैसे पिछड़े तबकों से संबंध रखते हैं। क्या इस बड़े अंतर के बीच पले बच्चे लोकतांत्रिक प्रक्रिया में सही तरह से भाग लेकर उचित निर्णय ले सकेंगे? सवाल सिर्फ यहीं खत्म नहीं होते और इसका कारण भी है।
कुपोषण में पला भविष्य
5.26 करोड़ नव वयस्क ऐसे देश में असमय मौत के मुंह में जाने से बचे हैं जहां पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों और नवजात शिशु मृत्यु दर बहुत अधिक है। एक अनुमान के अनुसार, इस सदी की शुरुआत से वर्ष 2017-18 के बीच पांच वर्ष से कम उम्र के 2.05 करोड़ बच्चे मौत के मुंह में समा गए। जीवित होते तो इनमें से अनेक बच्चे आज मतदान कर रहे होते। लेकिन अपनी जान बचाने में कामयाब रहे सभी बच्चे खुशकिस्मत नहीं रहे। वर्ष 1998-99 में कराए गए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-2 (एनएचएफएस) के अनुसार, वर्ष 2000-01 में, पांच वर्ष से कम उम्र के लगभग आधे, 47 प्रतिशत बच्चे कम वजन (उम्र और लंबाई की तुलना में कम वजन), 45.5 प्रतिशत बच्चे छोटे कद (उम्र की तुलना में कम लंबाई) और 15.5 प्रतिशत बच्चे वेस्टिंग (लंबाई की तुलना में कम वजन) के शिकार थे। यूनिसेफ के अनुसार, लंबे समय तक अपर्याप्त पोषक खुराक लेना तथा बार-बार संक्रमण होना लंबाई कम होने का मुख्य कारण है। इसके दुष्प्रभावों को दूर करना लगभग असंभव है। इन दुष्प्रभावों में छोटी मांसपेशियों से काम करने में परेशानी, कामकाज करने में दिक्कत और स्कूल में खराब प्रदर्शन शामिल है। वेस्टिंग जो मुख्य रूप से पर्याप्त भोजन की गंभीर कमी अथवा बीमारी के कारण होती है, पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मौत का मुख्य कारण है।
वर्ष 2008 में द लांसेट ने मां और बच्चे के कुपोषण के संबंध में दस्तावेज की एक श्रृंखला प्रकाशित की थी। इनमें से “मेटरनल एंड चाइल्ड अंडर न्यूट्रिशन: ग्लोबल एंड रीजनल एक्सपोजर एंड हेल्थ कॉन्सीक्वेंसिस” नामक दस्तावेज दर्शाता है कि उम्र की तुलना में वजन के लगातार कम होने के कारण दस्त, निमोनिया, मलेरिया और खसरे से मौत का खतरा बढ़ जाता है। वर्ष 2018 में जिन राज्यों में चुनाव हुए हैं, उनमें से मध्य प्रदेश में 42.8 प्रतिशत बच्चे कम वजन की समस्या से जूझ रहे हैं जबकि छत्तीसगढ़ और राजस्थान में यह आंकड़ा क्रमश: 37.7 प्रतिशत और 36.7 प्रतिशत है। वर्ष 2000-01 में खून की कमी, जिसे आमतौर पर कुपोषण से जोड़कर देखा जाता है, से पीड़ित बच्चों की संख्या 74.3 प्रतिशत थी। हालांकि अब यह दर घटकर 58.6 हो गई है, फिर भी एनएफएचएस-4 (2015-16) के अनुसार, मध्य प्रदेश में 68.9 प्रतिशत, राजस्थान में 60.3 प्रतिशत और छत्तीसगढ़ में 41.6 प्रतिशत बच्चे खून की कमी से जूझ रहे हैं।
पिछले 20 वर्षों में कुपोषण के कारण होने वाली बीमारियों में कमी आने की बजाए बढ़ोतरी हुई है। पोषण की कमी से बच्चों में रोगों की लड़ने की क्षमता कम होती है जिससे उनमें गंभीर संक्रमण होने तथा मानसिक विक्षिप्तता और बाल मृत्यु का खतरा बढ़ जाता है।
यद्यपि भारतीय परंपरा और अनेक भारतीय सिनेमा में मां के दूध को काफी महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है, तथापि हमने शिशु के एकमात्र आहार के रूप में मां के दूध को बढ़ावा देने की दिशा में कोई महत्वपूर्ण प्रगति नहीं की है जबकि मां का दूध शिशु मृत्यु को 20 प्रतिशत तक कम कर सकता है। हमारे लगभग आधे नव-वयस्क इस अवसर से वंचित रहे हैं। बच्चों के डिब्बाबंद खाने को बढ़ावा देने के लिए राजनेताओं और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीच सांठगांठ इसका प्रमुख कारण हो सकता है। इसी प्रकार, बच्चे के छह महीने का होने के बाद उसे दो वर्ष तक मां के दूध के साथ उचित पूरक खुराक मिलना आवश्यक है। सरकार द्वारा इसके प्रचार पर करोड़ों रुपए खर्च किए जाने के बावजूद केवल 42.7 प्रतिशत बच्चे ही सही आहार ले पा रहे हैं। दो दशक पहले यह आंकड़ा 33.5 प्रतिशत था।
अन्याय के शिकार
भारत के संविधान की प्रस्तावना में घोषणा की गई है, “हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करने का दृढ़ संकल्प लेते हैं।” अब यक्ष प्रश्न यह है कि क्या हमारे बच्चों को उनका सही हक मिल रहा है?
एनएफएचएस-4 के अनुसार, हर चार में से एक भारतीय लड़की की शादी कम उम्र में हो जाती है और ये संख्या देश में बच्चों की कुल संख्या का 26.8 प्रतिशत है। बिहार में 42.5 प्रतिशत लड़कियों की शादी 18 वर्ष से पहले हो जाती है। राजस्थान में यह आंकड़ा 34.4 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 32.4 प्रतिशत, छत्तीसगढ़ में 21.3 प्रतिशत और उत्तर प्रदेश में 21.1 प्रतिशत है। इन लड़कियों को मुश्किल से शिक्षा मिल पाती है, वे आत्मनिर्भर नहीं हो पातीं और समय से पहले ही मां बन जाती हैं। इससे उनके स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। लेकिन हमारे नेतागण बाल विवाह के खिलाफ शायद ही कभी आवाज उठाते हैं। बल्कि सच तो यह है कि वे विवाह समारोहों को राजनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल करते हैं। मध्य प्रदेश सरकार ने मुख्यमंत्री कन्यादान योजना शुरू की है जो एक तरह से दहेज प्रथा और लिंगभेद को बढ़ावा देने के समान है। ऐसे में मतदाता बिना सही ज्ञान के किस तरह अपने मताधिकार का सही इस्तेमाल कर सकता है?
अनेक स्थानों पर ये नव-वयस्क बंधुआ मजदूर के रूप में काम करने को मजबूर हैं। वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार, देश में 1.27 करोड़ बच्चे बंधुआ मजदूर के रूप में काम कर रहे थे। हालांकि इस रुझान में कमी आई है, फिर भी स्वतंत्र अनुमान दर्शाते हैं कि अब भी देश में 1.01 करोड़ बाल मजदूर हैं। लेकिन इस संबंध में कोई आधिकारिक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि राज्य प्रशासन ने पिछले 20 वर्षों में बाल मजदूरी के संबंध में कोई सुनियोजित सर्वेक्षण नहीं कराया है।
21वीं सदी में सुरक्षा, सम्मान और संरक्षण का कोई अधिकार नहीं मिला है। इस सदी की शुरुआत में बच्चों के विरुद्ध अपराध के 10,814 मामले सामने आए थे। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड्स ब्यूरो की नवीनतम रिपोर्ट दर्शाती है कि ऐसे अपराधों की संख्या में 10 गुना बढ़ोतरी हुई है। वर्ष 2016 में बच्चों के विरुद्ध अपराध के 106,958 मामले दर्ज किए गए थे। मध्य प्रदेश में ऐसे मामले 1,425 से बढ़कर 13,746 हो गए जबकि राजस्थान में 218 से बढ़कर 4,034, छत्तीसगढ़ में 585 से 4,746, उत्तर प्रदेश में 3,709 से बढ़कर 16,079 हो गए हैं। बच्चों के विरुद्ध अपराध के लंबित अदालती मामलों की संख्या भी 10 गुना बढ़ गई है जो वर्ष 2001 में 21,233 से बढ़कर वर्ष 2016 में 227,739 हो गई है। वर्ष 2011 में बच्चों से बलात्कार और यौन उत्पीड़न के लगभग 2,113 मामले दर्ज किए गए थे जो वर्ष 2016 तक 18 गुना बढ़कर 36,022 तक पहुंच गए। अकेले वर्ष 2017 में ही, सात राज्यों के 19 बाल सुधार गृहों से बच्चों से यौन उत्पीड़न के 2,100 मामले सामने आए हैं।
ऐसी खराब स्थिति में, हमारे नव-वयस्कों का हमारी विधानपालिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका के प्रति क्या नजरिया होगा? आखिरकार, हमारे लोकतंत्र के ये तीन स्तंभ बच्चों के विरुद्ध होने वाले इन अपराधों में बराबर के हिस्सेदार हैं। यदि ये नव-वयस्क अपने मताधिकार का इस्तेमाल करते समय गलत निर्णय लेते हैं तथा देश व इसकी संप्रभुता को खतरे में डालते हैं तो लोकतंत्र के ये तीनों स्तंभ ही इसके जिम्मेदार होंगे।
(लेखक अशोका फेलो और विकास संवाद के संस्थापक सचिव हैं)