मेरा जन्म पश्चिमी चम्पारण के भितहा ब्लॉक के पिपरहिया में वर्ष 1952 में हुआ। महात्मा गांधी की हत्या के करीब तीन साल बाद। बापू ने सत्याग्रह का सबसे पहला प्रयोग चम्पारण में ही किया था, इसलिए मेरा बचपन उनसे जुड़ी कहानियां सुनते हुए बीता है। गांधी से मेरा परिचय तभी से शुरू हो गया था, जब मैंने होश संभाला या यूं कह लीजिए कि जबसे मुझे अक्ल आई। उन दिनों गांधीजी की चर्चा दादी-नानी के किस्सों की तरह हुआ करती थी। मेरे घर में दादाजी, पिताजी बापू से जुड़े किस्से-कहानियां खूबू सुनाया करते थे, जो जेहन में पत्थर पर लकीर की तरह खिंच गईं।
मुझे याद है, सन् 1957 का बिहार विधानसभा चुनाव था। उस वक्त कांग्रेस का निशान दो बैलों की जोड़ी था, तो कांग्रेस के नेता लोगों से ये नहीं कहते थे कि ये निशान कांग्रेस का है बल्कि वे कहा करते कि ये निशान गांधीजी की पार्टी का है। मैं गांधीजी से जुड़े ऐसे ही तमाम किस्सों को सुनते-पढ़ते बड़ा हो रहा था और उनसे बेतरह प्रभावित था। हालांकि, मैं कोई इकलौता आदमी नहीं हूं, जिसे गांधीजी के किस्से-कहानियों व उनके विचारों ने गहरे प्रभावित किया था। उस वक्त तो पूरा मुल्क ही गांधीमय हो गया था।
यह बापू के विचारों का ही प्रभाव था कि एक बार मेरे दादाजी मौलवी मुबारक हुसैन जो उस वक्त रामायण और पद्मावत को कंठस्थ कर चुके थे, और उनके दोस्त पंडित सरस्वती मिश्र अंग्रेज कोठीदार के अत्याचार के खिलाफ मजबूती से खड़े हुए थे और जेल भी गए थे। कहानी कुछ यूं है कि मेरे घर के बगल में बैकुंठपुर कोठी हुआ करती थी। इस कोठी का कोठीदार अंग्रेज था। कोठी में हल चलाने के लिए अंग्रेज किसानों को बुलाते थे लेकिन जुताई के एवज में केवल दो आना देते थे। जबकि आम किसानों के खेत में हल चलाने का चार आना मिलता था। इतना ही नहीं हल चलानेवाले किसानों को अंग्रेज भद्दी-भद्दी गालियां भी देते थे।
मेरे दादाजी ने इसके खिलाफ विद्रोह शुरू कर दिया। विद्रोह की यह सीख उन्हें बापू से ही मिली थी। विद्रोह का परिणाम यह निकला कि मेरे दादाजी, उनके दोस्त पंडित सरस्वती मिश्र व कुछ अन्य किसानों के खिलाफ अंग्रेज कोठीदार ने केस कर दिया । मामला बेतिया सब डिविजन में आया। कोर्ट में पेशी हुई, तो अंग्रेज कोठीदार को कुर्सी मिली और उन्हें खड़े रहना पड़ा। इस पर उन्होंने ऐतराज जताया और कहा कि यहां उन्हें न्याय की उम्मीद नहीं है।
इस पर मजिस्ट्रेट ने पूछा कि उन्हें ऐसा क्यों लग रहा। इस पर मेरे दादाजी बोले कि अदालत की नजर में मुदालय और मुद्दई बराबर होता है, लेकिन यहां मुदालय को कुर्सी मिली है और मुद्दई को खड़ा कराया गया है। ऐसे में हम कैसे उम्मीद करें कि हमें इंसाफ मिलेगा। उनके इस वक्तव्य के बाद कुर्सी हटा ली गई। हालांकि, इस मुकदमे में दादाजी को जेल की सजा सुनाई गई।
बहरहाल, महात्मा गांधी से जुड़े दो किस्से यहां याद आ रहे हैं, जिन्होंने मुझे गहरे प्रभावित किया। एक किस्सा है भोजन पकाने को लेकर। वो एक उमस भरी दोपहर थी, जब महात्मा गांधी मोतिहारी से ट्रेन पकड़ कर बेतिया आए थे। स्टेशन पर लोगों ने गर्मजोशी से उनका स्वागत किया और बेतिया शहर में ही स्थित हजारीमल धर्मशाला ले आए। बापू की ये आदत थी कि वह थोड़ा भी वक्त जाया नहीं होने देना चाहते थे, इसलिए जब बेतिया आए, तो वहां से सीधे धर्मशाला के अपने कमरे में गए और वहां मौजूद लोगों का बयान दर्ज करने लगे।
वहां वे लोगों से पूछने लगे कि वे उनसे क्या चाहते हैं। बातचीत में कई घंटे गुजर गए। शाम को वे अपने कमरे से बाहर निकले, तो देखा कि धर्मशाला के आंगन में तीन चूल्हे जल रहे हैं। गांधीजी को इस पर आश्चर्य हुआ और उन्होंने पूछा कि तीन जगह खाना क्यों बन रहा है। इस पर किसी ने बताया कि एक चूल्हा सवर्णों का, एक दलितों का एक मुसलमान का है। इतना सुनना था कि बापू तमतमा उठे और पूछा कि बेतिया से मोतिहारी के लिए वापसी की ट्रेन कितने बजे है, तो लोगों ने बताया कि रात आठ बजे। इस पर वह बोले कि टिकट बनवा दिया जाए, वो आठ बजे की ट्रेन से मोतिहारी वापस लौटेंगे। इससे लोग आश्चर्य में पड़ गए और उनसे कारण पूछा तो उन्होंने कहा – मुर्खों, तुमलोग एकसाथ खा नहीं सकते हो, तो एकसाथ लड़ कैसे सकते हो? उनके इतना कहते ही दो चूल्हों पर तत्काल मिट्टी डाला गया और उस वक्त से एक ही चूल्हे पर सबके लिए खाना बनना शुरू हो गया।
इस घटना ने बेतिया में साम्प्रदायिक सौहार्द की एक नई बयार बहा दी। मैं जब कॉलेज में एनएसएस का प्रोग्राम अफसर हुआ करता था, तो मैंने उस वक्त मैंने भी छात्रों को यही सीख देने की भरसक कोशिश की। हमने दलित व पिछड़ों को ही एनएसएस में टीम लीडर बनाया। मेरे घर के बगल में ही दुसाधों का टोला है, जिनके लोग हमारे यहां काम करते हैं। उन्हें हम उसी टेबुल पर खाना खिलाते हैं, जिस पर हम खाते हैं।
जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में मैं अगर सक्रिय भूमिका निभा पाया, उसके पीछे गांधीजी की ही प्रेरणा थी। अगर वे चम्पारण न आए होते, उनकी कहानियां बचपन से ही न सुनी होती, तो शायद मैं जेपी आंदोलन से नहीं जुड़ता। इस आंदोलन के बाद भी गरीबों व किसानों को लेकर हमने कई दफे सत्याग्रह किया। वर्ष 2017 में भूमिहीन किसानों को जमीन का पट्टा दिलाने के लिए हमने सत्याग्रह किया था। हम लोग बापू की प्रेरणा से ही जल्द ही 243 मिशन शुरू कर रहे हैं।
प्रो. शमसुल हक