आकाशीय आपदा का जमीनी सच

प्राकृतिक आपदाओं में बिजली गिरने से हुई मौतें सबसे अधिक हैं, लेकिन गृह मंत्रालय की अधिसूची में यह आपदा शामिल ही नहीं है।
भारत में आकाशीय बिजली से सबसे अिधक मौतें मध्य प्रदेश में होती हैं। इसके बाद क्रमश: महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा का स्थान आता है
भारत में आकाशीय बिजली से सबसे अिधक मौतें मध्य प्रदेश में होती हैं। इसके बाद क्रमश: महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा का स्थान आता है
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“आकाशीय बिजली को कैसे रोका जा सकता है? यह तो एक शक्तिशाली करंट है और फिर इसके गिरने के समय आमजन को खुद को बचाने का रत्ती भर का समय नसीब नहीं होता।’’ उत्तर प्रदेश के उच्च अधिकारी जब इस तरह का अवैज्ञानिक तर्क देते हैं तो हम उन योजनाओं के हाल का अनुमान लगा सकते हैं जिनके पूरे करने की जिम्मेदारी इनके कंधों पर होती है। जब पढ़े-लिखे अधिकारी ही आकाशीय बिजली गिरने को ईश्वरीय आपदा मानते हैं तो आम लोगों से क्या उम्मीद की जाए?

पहले तेज चमकती रोशनी और उसके बाद कड़कड़ाती आवाज। आसमान में चमकी यह बिजली धरती पर गिर इंसानों की मौत का कारण भी बनती है। बीते मानसून के दौरान एक हफ्ते में ही आसमानी बिजली गिरने से देशभर में120 लोग मारे गए और 57 लोग घायल हुए। इनमें सबसे अधिक बिहार में 57, उत्तर प्रदेश में 41, मध्य प्रदेश में 12 और झारखंड में 10 लोग मरे। मुसीबत यह है कि आम इंसान के साथ सरकारी अधिकारियों का एक बड़ा तबका अब भी इसे दैवीय आपदा मानता है और इसकी रोकथाम के लिए कुछ भी नहीं करता। आम लोगों के साथ सरकारी अधिकारी भी इसे ईश्वरीय कोप मानते हैं।

आकाशीय बिजली से पीड़ितों में से कुछ को ही अधिकृत तौर पर सरकारी मदद मिल पाती है। क्योंकि इस तरह के हादसे को राष्ट्रीय आपदा राहत निधि के अंतर्गत शामिल नहीं किया गया है। हालांकि, पिछले साल चौदहवें वित्तीय आयोग ने राज्य सरकारों को राज्य आपदा राहत निधि के 10 फीसद को अपने राज्यों में विशेष आपदाओं के पीड़ितों को तत्काल राहत देने के लिए इजाजत दी है। यह ध्यान देने की बात है कि आकाशीय बिजली गिरने की घटना गृह मंत्रालय की आपदाओं की अधिसूची में शामिल नहीं है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, भारत में हर साल 2,182 लोग आकाशीय बिजली गिरने के शिकार हो जाते हैं। ब्यूरो के मुताबिक, 2016 में 120, 2014 में भारत में बिजली गिरने से 2,582 जबकि 2013 में 2,833 लोग मारे गए थे।

इन आंकड़ों की अमेरिका में बिजली गिरने से मरने वालों की संख्या से तुलना करें तो यह और भी भयावह नजर आता है। अमेरिका में 2014 में बिजली गिरने से केवल 33 लोगों की मौत हुई। ब्यूरो के अनुसार, 2000 से 2014 तक भारत में बिजली गिरने से 32,743 लोगों की मौत हुई। जबकि अमेरिका में आकाशीय बिजली से मरने वालों की संख्या में तेजी से कमी दर्ज की गई है। वहां 1970 के दशक में औसतन 100 लोग बिजली गिरने से मारे जाते थे। यह संख्या 2015 में घट कर 27 रह गई है।

भारतीय मौसम विभाग के अनुसार पश्चिमी और मध्य भारत में बिजली गिरने का प्रकोप अधिक है। विभाग ने भारत में बारह ऐसे राज्यों की पहचान की है, जहां सबसे अधिक आकाशीय बिजली गिरती है। इनमें मध्य प्रदेश पहले नंबर पर है। इसके बाद महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, झारखंड, छत्तीसगढ़, ओडिशा का स्थान आता है। वहीं 1967 से 2012 के बीच भारत में प्राकृतिक आपदाओं के कारण हुई मौतों में 39 प्रतिशत मौतों के लिए आकाशीय बिजली जिम्मेदार थी। केरल के तिरुवनंतपुरम स्थित इंस्टीट्यूट आॅफ लैंड एंड डिजास्टर मैनेजमेंट के अनुसार वे अखबार, पंचायत या पुलिस स्टेशन से बिजली गिरने से होने वाली मौतों के बारे में जानकारी हासिल करते हैं। ऐसे में दूर-दराज के गांवों में यह जानना मुश्किल है कि वहां क्या हो रहा है।

अमेरिका ने आकाशीय बिजली से होने वाली मौतों को कम किया है। वहां सरकार ने जागरुकता अभियान चलाया कि लोग तूफान के समय घरों में रहें। अमेरिका में बिजली गिरने से अधिकतर समुद्री तट पर लोगों की मौत होती है जबकि भारत में खेतों में काम करने वाले किसान इसके सबसे ज्यादा शिकार होते हैं।

किसानों की अधिक मौतेें

जब ओडिशा सरकार 2017 में अप्रैल से अगस्त के बीच आसमानी बिजली से होने वाली 280 किसानों की मौत का विश्लेषण करने बैठी, तो एक बहुत परेशान करने वाली बात सामने आई। इनमें से 94 किसान जो कुल मौतों का 33.57 प्रतिशत हैं, धान के खेतों में काम करते समय मरे थे। इस संख्या की तुलना में 21.07 प्रतिशत और 14.29 प्रतिशत लोगों की अपने घरों और खेतों में काम करते समय मौतें हुई। अगस्त के बाद भी 141 लोगों की मौत बिजली गिरने से हुई, जिससे कुल मरने वालों की संख्या 421 हो गई। राज्य के आपदा प्रबंधकों व वैज्ञानिकों के जेहन में यह सवाल आया कि क्या खेतों में काम करने वाले लोगों को आसमानी बिजली से ज्यादा खतरा है, क्या उनके लिए बिजली ज्यादा जानलेवा साबित हो रही है? आसपास के भौगोलिक परिवेश में ऐसा क्या है जो, बिजली गिरने की घटना को ज्यादा बढ़ाता है?

इंडियन इंस्टीट्यूट आॅफ टेक्नोलॉजी, स्कूल आॅफ अर्थ, ओशियन एंड क्लाइमेट भुवनेश्वर में विजिटिंग प्रोफेसर यू.सी. मोहंती इसकी खास वजह बताते हुए कहते हैं, ‘‘अगर कोई व्यक्ति ऐसे किसी खेत में काम कर रहा होता है जहां, आसपास ताड़ का पेड़ है तो बिजली ताड़ के पेड़ पर पहले गिरती है और व्यक्ति सुरक्षित बच जाता है। क्योंकि उस पूरे क्षेत्र में ताड़ का पेड़ ही सबसे ऊंची वस्तु होती है। वास्तव में, कोई भी जीवित पेड़ विद्युत का अच्छा संवाहक होता है।’’ प्रोफेसर मोहंती का कहना है कि ताड़ के पेड़ में मौजूद रस और पानी, बिजली को जमीन में ले जाने का माध्यम बन जाती है। इस   तरह यह पेड़ बिजली को जमीन पर फैलने से भी रोकते हैं। ताड़ के यह पेड़ बिजली के करंट को अवशोषित कर इसे जमीन के अंदर गहराई में पहुंचा देते हैं। इस तरह वे आसपास मौजूद जीवों की जान बचा लेते हैं।

इसी तरह ओडिशा में ताड़ के पेड़ों की आसमानी बिजली के प्रभाव को सोखने में अहम भूमिका है। नारियल के पेड़ भी बिजली के अच्छे संवाहक हैं। लेकिन नारियल के पेड़ों की अधिक उपयोगिता और कीमत होने के कारण उन्हें ज्यादातर रिहायशी इलाकों और उसके आसपास उगाया जाता है। वहीं, ताड़ के पेड़ जो खेतों में उग आते हैं उन्हें किसान अपने खेतों की मेड़ों पर सुरक्षित रखते हैं। राज्य के प्रभावित क्षेत्रों में से एक जगतसिंहपुर जिला, करमंगा गांव के निवासी खिरोद राउत इस बात की पुष्टि करते हैं। वह कहते हैं, ‘‘इस इलाके में बिजली से झुलसे हुए ताड़ के पेड़, एक आम दृश्य हैं।’’

किसानों की बढ़ती मौतों की वजह क्या खेतों के आसपास ताड़ के पेड़ों की कमी हो सकती है? पहले अपने विभिन्न जरूरतों की वजह से ताड़ के पेड़ ओडिशा के ग्रामीण जीवन के अविभाज्य अंग थे।

लेकिन अब ज्यादातर ग्रामीणों को अपनी दैनिक जरूरतों के लिए ताड़ के पेड़ों की आवश्यकता नहीं पड़ती है। इसलिए वे इसे बचाने की कोशिश भी नहीं करते हैं। ताड़ के पेड़ों की आर्थिक उपयोगिता तलाशने के लिए गठित ‘‘द ओडिशा स्टेट पालमगुर कोआॅपरेटिव फेडरेशन लिमिटेड’’ भी ताड़ के पेड़ों की कमी को महसूस करने लगा है। कोआॅपरेटिव के सेल्स टीम के सदस्य सुभाष चंद्र साहू ने डाउन टू अर्थ को बताया कि दो मुख्य वृक्षरोपित क्षेत्र पुरी एवं धेनकनाल जिले को छोड़कर शायद ही ताड़ के पेड़ राज्य के अन्य गांवों में बचे हैं।

भुवनेश्वर स्थित पर्यावरणविद विजय मिश्रा ने कहा कि भारत को बांग्लादेश की तरह बिजली के आघात से बचने के लिए ताड़ वृक्षारोपण की योजना बनानी चाहिए। बांग्लादेश में 2016 में 200 से भी ज्यादा मौतें बिजली गिरने की वजह से हुई, जिसमें केवल मई में एक दिन में 82 जानें गई हैं। बांग्लादेश ने बिजली गिरने से होने वाली मौतों को कम करने के लिए ग्रामीण क्षेत्रों में ताड़ के वृक्ष लगाने शुरू कर दिए हैं। ओडिशा सरकार एक सलाहकार नियुक्त करने की प्रक्रिया में है, जो बिजली से होने वाली मौतों को कम करने के लिए संभावित उपायों पर सुझाव देंगे।

ओडिशा के साथ ही बिहार सरकार भी आकाशीय बिजली से होनेवाली मौतों पर मंथन कर रही है। नौ जुलाई 2017 को एक ही दिन में बिजली गिरने (स्थानीय भाषा में ठनका कहा जाता है) से 31 लोगों की मौत के बाद बिहार सरकार जागी। ध्यान रहे कि 2016 में ही मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने लाइटनिंग सेंसर के लिए सर्वे का सख्त निर्देश जारी किया था। मुख्यमंत्री का निर्देश मिले साल भर हो गया, लेकिन इस सेंसर के लिए सर्वे नहीं हो सका जुलाई 2017 तक। इसी कारण लाइटनिंग सेंसर लगाने की फाइल भी ठंडे बस्ते में पड़ी थी। मई से जुलाई के दूसरे हफ्ते तक बिजली गिरने से 171 लोगों की मौत ने सरकार को एक बार फिर चिंता में डाला। अगले ही दिन आपदा प्रबंधन विभाग ने संवाददाता सम्मेलन में बताया कि वज्रपात की भविष्यवाणी के लिए एक मोबाइल ऐप लाया जाएगा।

बिहार में इस तरह की प्रणाली इसलिए भी जरूरी हो गई है क्योंकि बिजली गिरने से मौत के आंकड़ों में लगातार बढ़ोतरी देखी जा रही है। इसी चिंता के कारण ही आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक आदि के आपदा प्रबंधन सलाहकार संजय श्रीवास्तव को बिहार बुलाकर उनसे इस पर विमर्श किया गया। इसी विमर्श के बाद बिहार सरकार के आपदा प्रबंधन विभाग ने लाइटनिंग के खिलाफ अपने अभियान का ब्लू प्रिंट तैयार किया।

संजय कहते हैं कि वज्रपात की पूर्व सूचना मिलना बिहार के लिए जरूरी है। वज्रपात से भारी संख्या में मौत चिंतित करती हैं। उन जिलों में इसके लिए सेंसर फौरी जरूरत बन गई है जहां वज्रपात से ज्यादा मौत का रिकॉर्ड दर्ज रहा हो। जहां बिहार में बिजली से होने वाली मौतों को कम करने के लिए नई तकनीक का सहारा लेने की सरकारी कवायद जारी है, वहीं उसके पड़ोसी राज्य झारखंड में नई तकनीक के उपयोग से बिजली गिरने से होने वाली मौतों पर एक सीमा तक नियंत्रण करने का दावा राज्य सरकार कर रही है। राज्य की राजधानी रांची के नामकुम में तो एक गांव का नाम ही वज्रमारा (आकाशीय बिजली) पड़ गया। यह नाम कब पड़ा, किसी को पता नहीं लेकिन क्यों पड़ा यह हर आदमी जानता है। हर साल सैकड़ों बार वज्र यानी आकाशीय बिजली गिरने के कारण इस गांव का नाम वज्रमारा पड़ गया।

वज्रमारा के खबरों में रहने के कारण ही आज झारखंड में आकाशीय बिजली से मौतों की संख्या कुछ नियंत्रित हुई है। पहाड़ियों के बीच जंगल में अब इस गांव के लोग चैन से रह रहे हैं। बेखौफ हैं क्योंकि नामकुम में अब लाइटनिंग अरेस्टर लग गया है। लाइटनिंग अरेस्टर अब इनके ऊपर गिरने वाली बिजली को खींचकर जमीन में डाल देता है। 508 मीटर रेंज वाले अरेस्टर की कीमत डेढ़ लाख रुपए है और अकेले नामकुम में करीब डेढ़ दर्जन जगहों पर ऐसे अरेस्टर लगाए गए हैं। हर मानसून में अकेले वज्रमारा गांव में 500 बार तक बिजली गिरती थी। इस स्थान विशेष में इतनी बार आकाशीय बिजली गिरने की वजह पर किए गए शोध में माना गया कि लोहा, तांबा जैसे खनिजों की भरमार के कारण यहां की जमीन आकाशीय बिजली को आकर्षित करती होगी। इसके अलावा जंगल और पहाड़ के बीच होने को भी एक कारण माना गया, हालांकि अंतिम तौर पर कोई परिणाम अभी निकल कर नहीं आया। यही कारण है कि सरकार ने इसके कारणों पर बहुत ज्यादा ध्यान देने की जगह बचाव के कदमों पर ध्यान केंद्रित किया।

झारखंड के आपदा प्रबंधन विभाग ने बिरसा कृषि विवि परिसर में एक सेंसर लगाया, जो 300 किलोमीटर के परिक्षेत्र में आकाशीय बिजली की घटनाओं और उसकी शक्ति का अध्ययन करती है। इसी अध्ययन के बाद नामकुम के सेफ्टी ग्रिड में जर्मन लाइटनिंग अरेस्टर लगाए गए। लंबे समय तक झारखंड के आपदा प्रबंधन विभाग में विशेष परियोजना पदाधिकारी की जिम्मेदारी संभालने के बाद फिलहाल बिहार, आंध्र प्रदेश, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक आदि में आपदा प्रबंधन सलाहकार के रूप में सेवारत संजय श्रीवास्तव कहते हैं कि झारखंड में नामकुम के हालात के कारण बहुत परिवर्तन हुआ। नामकुम के साथ ही रांची एयरपोर्ट और स्टेडियम के अलावा देवघर के बाबा धाम मंदिर में भी लाइटनिंग अरेस्टर लगाने का काम पूरा हो गया। इस प्रोजेक्ट में स्कूलों-कॉलेजों और अस्पतालों को भी जोड़ा जाना था। लेकिन फिलहाल मुख्य रूप से कुछ खास स्थलों पर ही अरेस्टर लगाने का काम हो सका है।

जोखिम कम करना

आकाशीय बिजली के गिरने पर नियंत्रण तो नहीं किया जा सकता है लेकिन केरल के तिरुवनंतपुरम में इंस्टीट्यूट आॅफ लैंड एंड डिजास्टर मैनेजमेंट का सुझाव है कि इस संबंध में हर राज्य सरकारें अपने-अपने राज्यों में कमजोर क्षेत्रों की पहचान कर सकती हैं। अमेरिका या कनाडा की तरह भारत में आकाशीय बिजली की पहचान करने वाला नेटवर्क नहीं है। हालांकि इस बार बिहार सरकार ने बिजली गिरने की घटनाओं से बचाव के उपायों पर जन-जागरुकता को लेकर पहली बार मीडिया में विज्ञापन जारी किए थे। वहीं दूसरी ओर कई विशेषज्ञों ने कहा कि भारत को भी आकाशीय बिजली से होने वाली मौतों को कम करने के लिए बांग्लादेश की रणनीतियों को अपनाना चाहिए। वहां के लोक गीतों, नुक्कड़ नाटकों और कहानियों में आकाशीय बिजली से बचने के उपायों को बताया गया है। 

जब आसमानी बिजली गिरती है
 

आईएमडी के अनुसार, बिजली का गिरना या आघात एक बड़ा विद्युतीय प्रवाह है जो तूफान के दौरान हवा की गति के बढ़ने और कम होने के कारण उत्पन्न होता है। इस दौरान, पृथ्वी की बाहरी परत पर सकारात्मक चार्ज होता है क्योंकि विपरीत चार्ज आकर्षित करता है, आंधी के बादलों में मौजूद नकारात्मक चार्ज पृथ्वी की बाहरी परत पर मौजूद सकारात्मक चार्ज से जुड़ना चाहता है।

बादल के निचले हिस्से में हवा के दबाव को दूर करने के लिए जब यह बहुत ज्यादा चार्ज हो जाता है तो चार्ज का बहाव पृथ्वी की ओर तेजी से भागता है। इसे “स्टैप्ड लीडर” कहते हैं। पृथ्वी का सकारात्मक चार्ज इस “स्टैप्ड लीडर” की तरफ आकर्षित होता है, और सकारात्मक चार्ज हवा की ओर रुख कर लेता है। जब “स्टैप्ड लीडर” और पृथ्वी से आया सकारात्मक चार्ज आपस में मिलते हैं, एक मजबूत विद्युतीय प्रवाह बादल में सकारात्मक चार्ज उत्पन्न करता है।

इस विद्युतीय प्रवाह को बिजली का “स्टैप्ड लीडर” कहा जाता है जिसे देखा जा सकता है। चूंकि मानव का शरीर विद्युत का अच्छा संवाहक होता है, इसलिए हमारा शरीर आसमानी बिजली के प्रवाह को स्वीकार कर लेता है, जिसे बिजली गिरना कहते हैं।

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