भारतीय उपमहाद्वीप में मानसून से जुड़े चरम अनुभवों को केरल, मेघालय और राजस्थान से बेहतर कोई नहीं जानता। केरल मानसून का स्वागत करता है तो राजस्थान मानसून की विदाई करता है। बादलों का घर कहे जाने वाले मेघालय के पास भी मानसून के अद्भुत अनुभव हैं। इन तीनों राज्य के मानसून अनुभवों में बहुत सी समानताएं और विभिन्नताएं हैं। कहीं बारिश पूरा उत्सव है तो कहीं बारिश के आने के इंतजार का उत्सव है। केरल में ऐसे उत्सवों की लंबी सूची है तो राजस्थान में सिर्फ मानसूनी बादल देखना ही रोमांचकारी होता है। जबकि मेघालय यानी बादलों के बीच रहने वाले लोग अपने हर सांस में नम और ठंडी बूंदों को महसूस करते हैं। बचपन से लेकर जीवन के तमाम मोड़ पर मानसून की यह यादें हैं जो भरपूर रोमांच पैदा करती हैं। ऐसे ही तीनों राज्यों के अनुभवों को यहां समेटा गया है। कैसी है इन राज्यों की मानसून डायरी...
रेजी जोसेफ, केरल
बारिश एक ऐसे वरदान की तरह है जो धरती के साथ-साथ हमारे मन को भी गर्माहट पहुंचाता है। यह न केवल कृषि, बल्कि वनस्पतियों और जीवों के भी फलने-फूलने का समय है। दक्षिणी मानसून का आगमन मई के अंत में होता है, जब आसमान पर काले बादल छा जाते हैं और बिजली के कड़कड़ाने की गूंज उठती है। इस मौसम में नदी नालों के साथ-साथ मैदान और बैकवाटर्स भी पानी से भर जाते हैं। हम दिन में मेंढकों के गीतों और रात में झींगुरों की चहकती आवाज का आनंद ले सकते हैं। यही नहीं, केरल में मानसून के साथ कड़ाके की ठंड भी आती है जो बारिश की रातों में कंबल को भी बेअसर कर देती है। ऐसी बारिश में फूस के छप्पर भी टपकने लगते हैं।
बारिश और सूरज मानसून के दौरान लुका-छिपी का खेल खेलते हैं। आधे घंटे की तेज धूप के बाद एक पल में आकाश काला हो जाएगा और मूसलाधार बारिश होने लगेगी। तीन-चार दिनों की लगातार बारिश के बाद बादल छंटते हैं और सूरज निकलता है। केरल का मानसून धूप वाले चंद गिने-चुने दिनों और बर्फीली बारिश को मिलाकर बनता है। यहां गर्मियों में तापमान 40 डिग्री तक पहुंच जाता है जो मानसून के दिनों में 30 डिग्री तक गिर जाता है और यह मन और शरीर को आंतिरिक खुशी प्रदान करता है। बारिश जो आनंद देती है, वह शब्दों से परे हटकर है। कभी सिर्फ बूंदा-बांदी होती है तो कभी मूसलाधार बारिश होती है। कभी-कभी तो पूरे दिन और रात लगातार बारिश होती है। केरल में मुख्य रूप से मानसून के दो मौसम होते हैं, पहला दक्षिण-पश्चिम मानसून जो जून में शुरू होता है। इसे “इदवापति” भी कहा जाता है। इसका अर्थ है कि यह मलयालम कैलेंडर में “इदवम” महीने के मध्य तक आता है। इस दौरान बारिश तेज हो जाती है। वहीं दूसरा मध्य अक्टूबर उत्तर-पूर्व मानसून का मौसम है, जिसे “थुलवर्षम” के नाम से जाना जाता है क्योंकि यह मलयालम कैलेंडर में “थुलम” के महीने में आता है। इस दौरान आमतौर पर दोपहर में राज्य भर में तेज गरज और बिजली के साथ बारिश होती है।
अरब सागर से आने वाली वर्षा भाप से लदी हवाओं (ट्रेड विंड)द्वारा लाई जाती है, जबकि तुलावर्ष में, तमिलनाडु में बंगाल की खाड़ी से हवाएं बारिश लाती है। आमतौर पर केरल के दक्षिणी जिलों में मानसून अधिक सक्रिय होता है। तेज बारिश से खेतों में काम कर रहे किसान भीग जाते हैं। वे आमतौर पर बारिश में ब्रेक का इंतजार किए बिना बुवाई, रोपाई और निराई करते हैं। हालांकि रबर टैपिंग जैसे अन्य काम इस दौरान बंद हो जाते हैं। इसी तरह, चाय, कॉफी और इलायची के बागानों में काम करना भी बेहद मुश्किल हो जाता है।
बारिश के मौसम में प्रकृति की सुंदरता अवर्णनीय होती है। कहीं इन्द्रधनुष खिलता है तो कहीं चिड़ियां चहकती हैं। नदी, घाटी, चारोंओर पानी ही पानी होता है। बरसात के मौसम में पश्चिमी घाट बारिश के बादलों से पूरी तरह छिप जाता है। छोटी जलधाराओं और बैकवाटर्स में नावें चलती हैं। लोग अपने कंधों पर छतरियां लेकर नाव खेते नजर आते हैं और मछली पकड़ने के लिए जाल फेंकते हैं। ओवरफ्लो शेड के ऊपर से बहकर पानी शेड तक आ जाता है और बिल्कुल किसी फव्वारे की याद दिलाता है। कुल मिलाकर यह हमारे मन-मस्तिष्क को तरोताजा कर देता है।
तटीय गांवों में, “एडवपति” से “कारकिदकम” (मलयालम कैलेंडर में एक और महीना अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार कर्क का महीना) तक के महीने अकाल के होते हैं। ये ऐसे महीने होते हैं जब रोजगार और आय न केवल तटों में, बल्कि केरल के पहाड़ी और अंतर्देशीय क्षेत्रों में भी घट जाती है। इस अवधि को पहले केरल में अकाल काल के रूप में जाना जाता था। मूसलाधार बारिश के साथ ॅपूर्वी पानी भी अक्सर होता है। घरों, यार्डों और नालों में बाढ़ आना बहुत आम है। इस दौरान कई लोगों को काम नहीं मिलता। कुछ लोग उत्पादों की बुनाई और स्टॉक करते हैं ताकि वे इस मुश्किल समय में उन्हें बेच सकें और राशन खरीद सकें। जो लोग झोपड़ियों में रह जाते हैं वे सभी घर के पास के पानी में चारा और जाल डालते हैं और मछलियां पकड़ते हैं।
प्रचंड बाढ़ के दौरान भी, छोटे पैडल का उपयोग करने वाली नावों द्वारा यात्रा संभव होती है। माताएं अपने बच्चों को दिन में कम से कम एक बार हरे चावलों को सुखाकर और पीसकर दलिया बनाकर देती थीं। भूस्खलन मानसून के दौरान आम हैं, हालांकि वे केवल कुछ स्थानों पर ही होते हैं। 2018 के बाद से हर साल आती बाढ़ केरलवासियों के लिए चिंता का कारण बन चुकी है। हालात तब और भी भयानक हो जाते हैं जब बांध ओवरफ्लो हो जाते हैं या उनसे पानी छोड़ा जाता है। इसके साथ ही भूस्खलन के कारण होने वाले भयानक हादसे भी शामिल हैं। 2018 की बाढ़ के दौरान केरल में हुई भीषण तबाही दुनिया भर की मीडिया में चर्चा का विषय बन गई थी। करीब 20 लाख लोगों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ा था । उसके बाद से केरल में ऐसी कोई प्राकृतिक आपदा नहीं आई है।
सबसे अधिक चिंता का विषय यह है कि केरल में बारिश का पैटर्न लगातार बदल रहा है। अप्रैल और मई के भीषण गर्मी के महीनों के दौरान, अनिश्चित बारिश के कारण मानसून की तरह महसूस होता है। यह मिट्टी, कृषि और जलवायु को प्रभावित करता है। जलवायु परिवर्तन से पैदावार कम होती है और पौधों के खिलने और फलने के समय में परिवर्तन आता है। अरब सागर में तापमान तेजी से बढ़ता है और गर्मियों में भी “सी रेज” (खराब मौसम) की घटनाएं होती हैं। मछलियों की कुछ प्रजातियों की उपलब्धता भी काफी कम हो जाती है। ऐसा भी देखा गया है कि जलवायु में परिवर्तन के कारण मछलियों की कुछ प्रजातियां केरल के तट से दूर चली जाती हैं।
पारथ जगानी, राजस्थान
जून का आखिरी सप्ताह चालू हो चुका है, राजस्थान के पश्चिमी शहर जैसलमेर में रहने वाली इंद्रा देवी, अपने गांव जाने की तैयारी में है। फाल्गुन के महीने से प्रारम्भ हुआ थार मरुस्थल में धूलभरी आंधियों का दौर अब थम चुका है, शहर में रहने वाली इंद्रा देवी को बस इनके थमने का ही इंतजार था। अब उन्हें जल्दी है गांव पहुंचकर घर की छत साफ करने की, थोड़े दिनों में हवा पूरब से चलने लगेगी, जिसके साथ आई उमस से उत्तर दिशा में बना घटाटोप बरस पड़ेगा, जो घर की इस साफ-सुथरी छत से बहता आंगन में बने टांके में निर्मल पावन जल के रूप में संग्रहित होगा, जिसका उपयोग इंद्रा देवी और उसका परिवार पूरे साल जब भी गांव आएंगे, इस जल का उपयोग करेंगे।
इंद्रा देवी की तरह ही थार मरुस्थल के सुदूर गांवों में कुछ आखिरी बचे पुराने घरों, जहां छत पर बहने वाले बरसाती जल को संग्रहित करने की प्राचीन व्यवस्था आज तक मौजूद है, उन सभी घरों की महिलाओं का यह मानसून के आगमन से पहले का सालाना नियम है, इन्हें इसकी खुशी भी होती है और गर्व भी होता है। वैसे तो मानसून का आगमन पूरे भारत में खुशियां साथ लाता है, लेकिन इसका जितना बेसब्री से इंतजार राजस्थान के लोगों को रहता है वैसा और कहीं नहीं देखने को मिलता। फाल्गुन के बाद वैशाख की अमावस्या, आखा तीज पर भीषण गर्मी में खेतों की जुताई कर सूरज के नौतपे की बाट देखी जाती है और बरसातों के चार महीनों जिन्हें चौमासा कहते हैं, उसे शगुन मानकर अच्छा जमाना आने की आस लगाई जाती है। जेठ के महीने की लू भरी गर्मी को भी खुशी के साथ आत्मसात किया जाता है। क्योंकि इन दिनों जितनी गर्मी पड़ेगी अषाढ़ में बादल उतनी जल्दी ही उमड़ने शुरू होंगे, जिसके साथ प्रकृति और लोकजीवन दोनों ही जीवन के आनन्द में डूब जाएंगे। मानसून के आखिरी छोर पर बसा राजस्थान प्राकृतिक रूप से भारत में सबसे कम वर्षा प्राप्त करने वाला राज्य है, लेकिन यहां मॉनसून लोक संस्कृति के अनेक रंग-रूपों को परिभाषित भी करता है, बंगाल की खाड़ी से सफर शुरू करने वाला जलधर, यहां पहुंचने से पहले ही गंगा-यमुना के मैदानों में झमाझम बरस कर लगभग खाली हो चुका होता है, थोड़ा बहुत बचा हुआ जल लेकर यहां पहुंच कर भी राज्य के लगभग बीच से गुजरती अरावली के पर्वतों की श्रंृखला से टकराकर आखिरी बचाखुचा जल पूर्वी इलाकों में ही बरसा देता है।
अरब सागर से चले दक्षिण पश्चिमी हवाओं वाले बादल भी गुजरात से राजस्थान में प्रवेश करते ही अरावली के साथ उत्तर-पूर्वी दिशा में सफर कर हरियाणा पंजाब तक पहुंच जाते हैं और फिर वहीं उत्तर दिशा से थार मरुस्थल में प्रवेश करते हैं। यही कारण है कि लम्बे सूखे और भीषण गर्मी को सहन करने के बाद यहां के निवासी उत्तर दिशा में चमकती दामिनी और उमड़ती घटा का स्वागत लोकगीतों में उत्तर दिशा के धुन्धकिए के रूप में करते हैं। थार में मानसून के आगमन की सूचना एक मांगणियार लोकगीत में कुछ इस तरह है “आज रे उत्तरीए में हांजी धुंधको रे, बरसे मोंजे जैसोणे रो मेह” लेकिन यह सूचना केवल गीत तक ही नहीं सीमित, पारम्परिक रूप से राजस्थान का पहनावा और खानपान भी मानसून का स्वागत करता है।
आकाश में उमड़ती घुमड़ती दल बादली की लहरदार रेखाओं वाली छाप का अनुसरण करती रंग-बिरंगी समन्दर लहरिए वाली पगड़ियां पुरुषों के सिर की शोभा बढ़ाती हैं तो उसी लहरिये की ओढ़नी व साड़ियां महिलाओं के सोलह श्रृंगार को नए आयाम दे जाती हैं।
मानसून में सजने-संवरने का भी अलग आनन्द होता है, जिसे राजस्थान की महिलायों से ज्यादा पूरे भारत में कोई नहीं जानता। मोटी छांटों वाली काली कलायण जब प्रत्येक गांव-ढाणी में बने समन्दर रूपी तालाबों को भरती है तो सावन की हरियाली तीज भी आ जाती है।
गांव के उस समन्दर रूपी तालाब की पाल पर थार में श्रृंगार व सौंदर्य का मापदंड लुद्रवे की मूमल की तरह सजकर शिव-पार्वती का उत्सव मनाने, खेजड़ी की डाल पर बंधे झूले पर बैठ आकाश को छू लेने का प्रयास करती तीज के गीत गाती महिलाओं को देख बादल भी आनन्दित हो उठते हैं और हल्की फुहारों के साथ बरसने लगते हैं, जिसे एक लोकगीत में इस पंक्ति में उल्लेखित किया गया है “बालम जी म्हारा, झिरमिर बरसे मेह”।
बच्चे भी मानसून आगमन के दिनों का भरपूर आनन्द सावन की डोकरी के नाम वाले मखमली लाल कीड़ों का पीछा कर मेंढक के रूप में इधर -उधर उछल कूद करके लेते हैं। मानसून की पहली बरसात के साथ शुरू हुई मेंढकों के अलाप की नकल को वो इन पंक्तियों “ढ़ेढ़रियों करे ढ़रूं ढ़रूं, पालर पानी भरूं भरूं” के साथ हर गली में गाते जाते हैं, जिस पर घरों के बड़े बुजुर्ग उन्हें मानसून के आगमन का नेग देते हैं और उससे गोठों का आनन्द ले अच्छी बरसात का शगुन मनाते हैं। जेठ की गर्मी में सोने जैसा चमकने वाला राजस्थान भादो के आगमन के साथ चारों तरफ हरियाली की चादर ओढ़ लेता है, सर्दियों में अपने मवेशियों के साथ राजस्थान से बाहर गए चरवाहे भी अब वापस अपने गांवों में लौट आते हैं और इस मौसम का भरपूर फायदा उठाते हैं।
भादवे में इस सुखद प्राकृतिक छटा से भरपूर गांवों के लोकदेवताओं के मंदिरों पर जनसमूह एकत्रित होकर मेलों का आयोजन कर चौमासे में अच्छी फसल की आस करते हैं और मवेशियों के भोजन-पानी की भरपूर व्यवस्था देने का धन्यवाद दाल-बाटी चूरमे के स्वादिष्ट प्रसाद से करते हैं। भादो के इन्ही दिनों गांव में होने वाले मेलों पर पुश्तैनी घरों में इकट्ठा होने वाले परिवार को जल की कमी न हो इसलिए हर साल मानसून से पहले शहर से गांव आकर घर की छत को विशेष रूप से इंदिरा देवी साफ करती हैं और मानसून के साथ जुड़ी इस उत्सवधर्मिता की परम्परा को जीवंत बनाए रखती हैं। राजस्थान के लोकजीवन में मानसून इतनी व्यस्तता भर देता है कि औरतें “झट चौमासो लाग्यो, झट सियाळो लाग्यो रे” गीत गाकर इन व्यस्तता भरे दिनों की खुशी मनाती हैं, वो कहती हैं कि इन चार महीनों खेती के कार्य में वो इतनी व्यस्त रहीं की उन्हें पता ही नहीं चला कब सर्दी आ गई।
गिदोन खार्कोंगोर और समंड खरमावफ्लांग, मेघालय
क्या हम सब बारिश की महक, हरी-भरी हरियाली और बारिश की बूंदों के दीवाने हैं? हमारे खूबसूरत “बादलों के घर” मेघालय आइए और यहां आप मानसून के जादू का मजा ले सकते हैं जो अपने आप में एक अद्वितीय अनुभव है। यहां बादल आपकी गोद में समाते नजर आते हैं। मेघालय सबसे अधिक वर्षा के लिए जाना जाता है और वर्ष के अधिकांश समय यह राज्य गीला ही रहता है। इसलिए हरियाली और भारी वर्षा का आनंद लेने के लिए यह एक आदर्श स्थान है। बारिश का लम्बा मौसम मेघालय को हमारे देश में सबसे अधिक जैव विविधता वाले राज्यों में से एक बनाता है। सोहरा (चेरापूंजी) और मौसिनराम राज्य की दक्षिणी तलहटी में स्थित दो महत्वपूर्ण शहर हैं, जहां मानसून के दौरान सर्वाधिक वर्षा होती है। ये दो शहर पृथ्वी पर सबसे अधिक वर्षा वाले स्थान हैं। इस क्षेत्र के चारों ओर के ताजी हरियाली वाले स्थान घूमने के लिए अच्छी जगहें होंती हैं। दिन में अक्सर कोहरा छा जाता है और आसपास का माहौल आपके मन पर अपनी छाप छोड़ जाता है।
जून में मानसून की शुरुआत के साथ, राज्य के विभिन्न हिस्सों में पानी के तेज प्रवाह वाले कई झरनों की आवाज तेज हो जाती है। ऐसे झरनों में हाथी जलप्रपात, नोहकलिकाई जलप्रपात, सेवन सिस्टर्स फॉल आदि ऐसे ही झरने है जिनके गिरने की आवाज मानसून में ओर तेज हो जाया करती है। इन झरनों की चट्टानों की आकृतियों इतनी सुरमयी होती हैं जिसे देश ही नहीं दुनिया भर के सैलानी देखने और महसूस करने आते हैं। मेघालय के दक्षिणी ढलानों में मानसून के दौरान सर्वाधिक वर्षा होती है लेकिन सोहरा (चेरापूंजी) और मौसिनराम का नाम उन जगहों पर मौसम विज्ञान स्टेशनों के स्थित होने के कारण दुनिया के सामने आता है।
मौकिरवाट, बोर्सोरा जैसे कई अन्य स्थानों की कहानियां भी इसी तरह की बारिश के कारण उल्लेखनीय हैं। राज्य में मानसून की शुरुआत से लेकर इसकी वापसी तक कई लोककथाएं और किंवदंतियां सामने आती हैं। ये इलाके सर्दियों के महीनों के दौरान सूखे और धूल भरे रहते थे और हर जगह कचरा जमा था पर अब बारिश आने वाली है और नदियों एवं नालों पर जमा कचरा स्वत: ही धुल जाएगा। सोहरा के एक बुजुर्ग की मानें तो बारिश “जीवन” लाती है और हवा की ताजगी और नई विकसित हरी वनस्पति पूरे क्षेत्र को ढक लेती है। कुछ लोग बारिश को “दवा” का दर्ज़ा देते क्योंकि इसके आने के कारण ही जड़ी-बूटियों, चेरी, मशरूम, जंगली सब्जियों आदि की नई उपज लोगों को बीमारियों से लड़ने में मदद करती है। एक बुजुर्ग महिला बताती है कि कैसे मानसून के समय वे हफ्तों घर में बंद रहती थीं, क्योंकि लैप खिंडिमियेट (नौ दिन की बारिश) के दौरान सारे कामकाज रुक जाते थे। लोग अपना समय इनडोर खेल खेलने में बिताते है और ज्यादातर बुजुर्ग अपने आसपास बैठे नाती-पोतों को लोककथाएं सुनाकर मन बहलाते हैं।
युवा आरन कहते हैं, “हम कागज की नावें बनाते हैं और बारिश के दिनों में छोटी धाराओं पर नाव दौड़ प्रतियोगिता दिवस आयोजित करते हैं।” उन्होंने आगे बताया कि इस मौसम में सब कुछ गीला और नम होता है, इसलिए वे उन्हें “खो” या “पोलो” नामक नुकीली टोकरियों पर “चौला” या “चारकोल” भट्टी के नीचे सुखाते हैं ताकि उन्हें गर्म और सूखा रखा जा सके। जुलाई के महीने को “नैतुंग” या “दुर्गन्ध का महीना” कहा जाता है, जो “लपबा” या भारी वर्षा के दौरान गीले कपड़ों और अन्य समान से आने वाली बदबू की वजह से है। ऐसी बारिश के दौरान बिजली का चले जाना भी आम बात है। बुजुर्ग लोग “काकनप” का उपयोग करते हैं जो बांस और फूस से बनी टोकरी होती है और वह उन्हें उन्हें “लैप किनरिआंग”अथवा गरज और बिजली के साथ होने वाली खड़ी बारिश से बचाती है। बच्चे इस दौरान बाहर नहीं निकलते क्योंकि “बाहर की दुनिया” डरावनी लगती है। आजकल लोग बरसात के दिनों में रंगीन छतरियां लेकर सड़कों पर उमड़ पड़ते हैं जो पहले से ही सुंदर माहौल में और भी रंग भर देता है। आज सोहरा को अक्सर “गीला रेगिस्तान” कहा जाता है जो वर्तमान स्थिति के लिए उपयुक्त विरोधालंकार है।
(केरल के लेखक ने मूलरूप से अपना आलेख मलयालम में लिखा था और इसे सीएसई के सुरेंद्रन टीटी ने अनुवाद किया। राजस्थान के लेखक जेसलमेर में जैव विविधता व पारिस्थितिकी पर काम कर रहे हैं। मेघालय के दोनों लेखक शिलांग स्थित सेंट एडमंड कॉलेज में बतौर प्रोफेसर कार्यरत हैं )