लखनऊ में 15 और 16 सितम्बर के बीच 24 घंटे में 160 मिलीमीटर बारिश ने लम्बे समय के बाद तमाम रिकॉर्ड तोड़ दिए। इससे पहले 14 सितम्बर 1985 को 24 घंटे में 177 मिमी बारिश का रिकॉर्ड है।
शहर के कई पॉश माने जाने वाले इलाकों के लोगों को कई घंटो तक जलभराव से जूझना पड़ा, घरों-दुकानों में रखा सामान खराब हो गया। गोमती नदी बंधे से सटे कई कॉलोनियां पानी में डूब गयीं। लखनऊ के आशियाना कॉलोनी में जबरदस्त जलभराव हो गया। खजाना मार्किट काम्प्लेक्स के कई दुकान जो बेसमेंट में थे उनमे पानी भर गया।
एक भुक्तभोगी के दर्द को मैंने बहुत करीब से समझा। उनकी एक म्यूजिकल इंस्ट्रूमेंट की शॉप है। अच्छा स्टोर है, कई तरह के इंडियन और वेस्टर्न इंस्ट्रूमेंट्स का कलेक्शन है। महंगे बोस के स्पीकर्स और अन्य गैजेट्स हैं। लॉकडाउन के ठीक पहले मैंने इनके स्टोर से एक गिटार और पियानो खरीदा था।
पिछले साल भी इनके दुकान में रात में पानी भर गया। करीब बीस लाख का नुकसान हुआ था। महंगे वायलिन, गिटार, तबला, पियानो, स्पीकर्स सब के सब पानी में डूब कर रात भर दुकान के अंदर ही तैरते रहे।
इसबार मैंने इनको फोन किया, मालूम हुआ कि फिर वही वाकया हुआ जो पिछले साल हुआ था। पिछले साल मैंने उनको सलाह दी थी कि कहीं और स्टोर शिफ्ट कर लें। लेकिन वे ऐसा नहीं कर सके। इसी तरह फैजाबाद रोड के पास बेसमेंट में बनी दर्जनो फर्नीचर और सोफे की दुकानों में पानी भर गया और छोटे व्यापारियों को करोड़ों का नुकसान हुआ। तेज बारिश का अंदाजा नहीं था इसलिए पहले से तैयारी नहीं कर सके।
आशियाना के किला मोहम्मदी झील की नौ बीघे जमीं पर लखनऊ विकास प्राधिकरण (एलडीए) ने कॉलोनी बसा दी। एक तरफ इस पर जलवायु विहार बनाया तो दूसरी तरफ सेक्टर एल बस गया। धीरे-धीरे दुकान और माल बनते चले गए। झील की जो कुछ भी जमीन बची है, उस पर भी सबकी नजर है।
कभी यह झील पंद्रह बीघे में फैली थी। सेक्टर एल, आशियाना की 11 एकड़ झील के 7 एकड़ जमीन पर कब्जा है। अब तेज बारिश में लोगों के मकान और दूकान डूबते हैं। केवल लखनऊ के शहरी इलाकों में ही तीन दशक पहले एक हजार से ऊपर तालाब थे। कभी लामार्टिनियर लेक की सैर करने लोग जाते थे।
चिरैया झील कभी मशहूर थी, जो शाहनाजफ के पीछे तक फैली थी, अब ये सूख चुकी है। तेलीबाग और आशियाना की झील पट चुकी हैं। इंदिरा नगर के पानी गांव में नब्बे से अधिक छोटे-छोटे ताल और तलैया हुआ करते थे, जिनमें से अब एक भी नहीं बचे हैं। धीरे-धीरे तालाबों और झीलों को पाटकर इमारतें बनाने का काम शुरू हुआ। जिम्मेदारों ने ध्यान नहीं दिया, नतीजन तालाबों पर दुकान और मकान बनते गए। लोग काबिज होते गए और तालाबों का वजूद खत्म होता गया।
मानसून के आखिरी पड़ाव में जमकर बारिश
15 सितंबर की रात से ही लगातार रुक-रुक कर बारिश हो रही थी और 16 सितंबर की बारिश की वजह से लखनऊ के कई रिहायशी इलाकों में घरों के भीतर कई इंच पानी भर गया, सड़कें तालाब बन गई। कई लोगों के ड्राइंग और बेड रूम में पानी भर गया, कारें डूब गई, सड़कों पर घुटनों तक पानी भर गया। लोग अपने घरों में कैद हो गए। घरों में तैरते सामान और फर्नीचर्स के विजुअल्स अगले दिन सोशल मीडिया पर आते रहे।
पिछले कई दिनों से चिलचिलाती गर्मी से जूझ रहे लोगों को बारिश के बाद राहत तो मिली, लेकिन अब हालत कुछ और बयां कर रही है। भारी बारिश जमकर कहर बरपा गई। कई जगह काफी नुकसान हुआ। बारिश के साथ ही तूफान की वजह से कई जगहों पर पेड़ और खंभे गिर गए। बारिश की वजह से हुए हादसे में दीवार गिर गई। 9 लोगों की जान चली गई।
भारी बारिश से हजरतगंज के गोखले मार्ग स्थित सागर होटल की छत गिर गई। गोमती नदी के आसपास के घाट और छोटे मंदिर जलमग्न हो गए। तिलकनगर, आशियाना, जानकीपुरम में रात में तेज बारिश से घरों में पानी घुस गया। फैजुल्लागंज का दाउदनगर इलाका पानी से लबालब हो गया । साठ फुटा रोड से लगे पूरे इलाके में पानी ही पानी दिख रहा था। इस इलाके में पीएसी और एनडीआरएफ ने नावों के सहारे लोगों के घरों तक जरूरी सामान पहुंचाया।
अभी पिछले सप्ताह ही मध्य प्रदेश के ऊपर कम दबाव के क्षेत्र के कारण हुई भारी बारिश ने राजस्थान के कई हिस्सों को अपनी चपेट में ले लिया था। उदयपुर और कोटा में कुछ स्थानों पर भारी बारिश दर्ज की गई। 1 हफ्ते पहले से बादलों ने मध्यप्रदेश से यूपी का रुख कर लिया था। ऐसा मालूम होता है विदा हो रहे मानसून ने एक बार फिर रफ्तार पकड़ ली है।
दरअसल, बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से आने वाली लो प्रेशर की नम हवाएं यूपी और एमपी के ऊपर आते ही सर्कुलेशन बन गया। इसकी वजह से नम हवाएं यूपी आ रही हैं और आखिरी पड़ाव में जमकर बारिश कर रही हैं।
खादर की जमीन पर कॉलोनियां
ताल-पोखड़ों को हम पाटते जा रहे हैं और नदी-नालों के प्राकृतिक रास्तों को बंद करते जा रहे हैं। देश के ज्यादातर शहरों को बसाने में हमने नदी-नालों और तालाबों की जगह छीन ली। बड़ी नदियों के किनारे पर, जहां खादर का इलाका था, वहां हमने कॉलोनी, अपार्टमेंट्स, और माल बना लिया।
छोटी नदियों का तो रास्ता ही बंद कर दिया - सड़क और हाईवे बने जरूर, लेकिन पानी बहने का रास्ता ही खतम कर दिया। लखनऊ में गोमती नदी को संकरा कर हमने रीवरफ्रंट बनाया, खादर इलाके में पॉश कॉलोनी बसायी। कुकरैल नदी आज नाला भर है।
पुणे में भी मुला-मीठी नदी पर रीवरफ्रंट का जंजाल फैलाया जा रहा है। यही हाल मुंबई में मीठी नदी के साथ हुआ है। वाराणसी में वरुणा और ऐसी नदियां अब सिर्फ नाला भर है। सई नदी में मूल श्रोत को ही पाटा जा रहा है। नदियों के किनारे अगर हम कंक्रीट की दीवार या तटबंध बनाते हैं तो नदियों द्वारा तटबंधों के बीच गाद जमा कर दी जाती है। धीरे-धीरे नदी का पाट ऊंचा हो जाता है और कुछ समय बाद नदी अपने आस-पास की जमीन से ऊपर बहने लगती है।
ज्यादातर शहरों में नदी के किनारे खादर की जमीन पर कॉलोनियां बस चुकी हैं। पानी निकलने के सारे रास्ते ही बंद हो गए हैं। पानी को अब जहां जगह मिलती है, वहां जाता है। इसमें हम मौसम को ही सिर्फ क्यों दोष दे। समस्या बाढ़ नहीं है बल्कि बाढ़ के पानी का अधिक समय तक बने रहना है।
शहरों को बसाने की योजना में हमने कहीं भी पानी को तहजीब नहीं दी - जहां चाहा, वहां निर्माण कर लिया। इस प्रक्रिया में हमने पोखड़ों, तालाबों, और नदियों के जल-ग्रहण क्षेत्र या कैचमेंट एरिया को छिन्न-भिन्न कर दिया। कई छोटे-छोटे जल इकाईओं को पाट कर भवन खड़े कर दिए।
अब थोड़े ही बरसात में हमारी कॉलोनियों पर संकट के बादल मंडराने लगते हैं। आबादी वाले इलाकों में पानी भरने लगता है और दूसरी तरफ तालाबों और झीलों तक पानी नहीं पहुंच पाता है।
जाहिर है जब नदियों का रास्ता हम रोकेंगे तो बाढ़ के दौरान, मौका मिलते ही वे अपना रास्ता खुद तय कर लेंगी चाहे ये रास्ता हमारे कॉलोनी से निकले या, करोड़ों रुपये से बानी आईटी सिटी से। बाढ़ पहले से अधिक उग्र रूप ले रही है।
अब तो कई हिस्सों में साल भर की वर्षा चार-पांच दिनों में हो हो जा रही है। बारिश के पैटर्न में बदलाव दिख रहा है। बाढ़ नियंत्रण के प्रयासों में नदियों के जल-ग्रहण क्षेत्रों के पर्यावरण की रक्षी पर समुचित ध्यान नहीं दिया गया है।
कब्जे के मारे, तालाब बेचारे
लखनऊ की कई प्रमुख झीलों पर अवैध कब्जे हैं। शहरी क्षेत्र में नब्बे प्रतिशत तालाबों का अस्तित्व खतम हो चूका है जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में करीब पचास प्रतिशत तालाबों पर कब्जा है। गोमती नदी ने कई तालाबों और झीलों को जन्म दिया। नदी की धारा बार-बार घूमती थी, इस सर्पीली और घूमती नदी ने कई हजारों सालो में सैकड़ो ओक्स-बो तालों और वेटलैंड्स का निर्माण किया, जिसका वजूद आज भी कायम है।
सआदतगंज के सरीपुरा गांव का अन्ना सोती तालाब कभी साढ़े छह बीघे में फैला था, इसका रकबा काफी बड़ा होता था। अब यह सिकुड़कर महज ढाई बीघे बचा है। तालाब के चारों ओर खेत हुआ करते थे। तालाब हर मौसम में पानी से लबालब भरा रहता था। सरीपुरा गांव के आसपास शहर के लोग बसने लगे और इसके साथ ही तालाब कब्जे की जद में आता गया अब सिर्फ तालाब का वजूद बचा है।
यमुना झील के एक हिस्से की जमीन तो बिल्डर को बेच दी गयी। जिला प्रशासन ने भी इसे झील के हिस्से को मानने से इंकार कर दिया था कि ये एक झील है। मगर अदालती दखल के बाद बिल्डर का काम रोका गया । झील तो खतम होने से बच गयी, मगर बदहाली का आलम आज भी कायम है। सुप्पा झील आवास विकास परिषद की जद में है यहाँ भी कब्जे कर मकान बना दिए गए हैं। मोती झील ऐशबाग की सबसे बड़ी झील है। इस झील को सवांरने की कई बार योजनायें बनी लेकिन जमीनी हक़ीक़त कुछ और बयां करती हैं। अब तो तालाब के सुंदरीकरण का आश्वासन ही रह गया है।
बीकेटी की शिवरही झील, देवरी रुखरा, सौतल झील, उसरना, अलमदपुर सहित पांच पंचायतों तक फैली झील वन्य जीवों के संरक्षण के लिए जानी जाती थी। यहाँ कई देशी और विदेशी प्रजातियों के सैलानी पक्षी आते थे। आज यहाँ पर भी कब्जे हैं। जिले की हर तहसील में सैकड़ों तालाबों पर अवैध कब्जे हैं। मलिहाबाद तहसील के अंतर्गत आने वाली मुजासा ग्राम पंचायत में स्थित गदहा तालाब भी आज उपेक्षित है। बक्शी का तालाब विकास खंड के जलालपुर, अलमदपुर, उसरना तीन ग्राम पंचायतों के बीच 66 हेक्टेयर में फैली सौतल झील के प्राकृतिक जल श्रोत करीब डेढ़ दशक पहले सूख गयी। इस पर ग्रामीणों द्वारा कब्जा करके खेती की जा रही थी । कभी पानी से लबालब भरी रहने वाली इस झील पर साइबेरियन पक्षियों का बसेरा रहता था। जल स्रोत सूखने से वीरान हुई सौतल झील पर लोगों ने खेती करनी शुरू कर दी।
योजनायें जरूर बदलती गई लेकिन जिन तालाबों के सुधार के लिए रकम खर्च हुए तालाब वहीँ रहे, वैसे ही। उलटे तालाबों की जमीन पर प्लॉटिंग बदस्तूर जारी रहा। कभी जल-संरक्षण के जागीर रहे तालाब अब भ्रष्टाचार और गंदगी के नमूने बन गए हैं। तेजी से बढ़ती जमीन की कीमतों के कारन रसूखदार इन्हे कब्जाने की फिराक में लगे रहते हैं। मौका लगते ही तालाब भर देते हैं। मौजूदा समय भी जितने तालाब खाली हैं और बचे हैं, अगर उसे भी बचाकर सही कर लिया जाये तो धरती का पेट भर सकता है।