सूरज सिंह
थार रेगिस्तान के रेतीले क्षेत्र की प्रतिकूल परिस्थितियों में कृषि करना बेहद कठिन कार्य है, इसलिए यहां के ग्रामीण क्षेत्रों में आजीविका के साधन के रूप में पशुपालन का अहम योगदान है। पशुपालन में भी भेड़-बकरी पालन का प्रमुख स्थान है। 2019 में हुई 20वी पशुगणना के अनुसार राजस्थान की कुल पशु संपदा का 36.69 प्रतिशत हिस्सा बकरी है। बकरी पालन में 208.4 लाख बकरियों की संख्या के साथ राजस्थान पहले स्थान पर है। भारत की कुल बकरियों का लगभग 14 प्रतिशत हिस्सा राजस्थान में पाया जाता है। केंद्रीय बकरी अनुसंधान केंद्र राजस्थान के टोंक जिले में स्थित है।
वहीं अगर बात भेड़ की की जाये तो राजस्थान की कुल पशु संपदा का लगभग 13.90 प्रतिशत है। 79.04 लाख भेड़ के साथ राजस्थान देश में चौथे स्थान पर है। यहां एशिया की सबसे बड़ी ऊन मंडी बीकानेर में है। ऊन उत्पादन के मामले में राजस्थान पहले स्थान पर है। इसी कारण राजस्थान के जोधपुर में केन्द्रीय ऊन विकास बोर्ड का गठन किया गया।
इन आंकड़ों को समझना क्यों आवश्यक है, इसके तीन प्रमुख कारण हैं - पहला, राजस्थान की कुल पशु संपदा का 40 प्रतिशत से भी अधिक हिस्सा भेड़-बकरियों का है। इतना बड़ा हिस्सा होने के कारण यह समझा जा सकता है कि चरवाहों की आजीविका का यह प्रमुख साधन है।
दूसरा, लू और शीत लहर के कारण चरवाहे किस हद तक प्रभावित होते हैं यह समझने में मददगार है। तीसरा और सबसे प्रमुख यह आंकड़े इस बात को भी रेखांकित करेंगे कि पशुधन में इतना बड़ा हिस्सा होने के बावजूद चरवाहा समुदाय किस प्रकार राज्य की उपेक्षा का शिकार है।
पलायन और समस्याएं
इन पशुओं को चरवाहे बड़ी संख्या में पालते हैं। इनकी संख्या ज्यादा हाने के कारण इनकी चराई और पीने के पानी की व्यवस्था के लिए चरवाहे दूर के क्षेत्रों में पलायन करते हैं। गर्मियों के समय में यह समस्या और विकट हो जाती है। राजस्थान के थार रेगिस्तान से हर साल चरवाहे अपने झुंड के साथ चारे और पानी की पूर्ति के लिए मार्च से जून महीने की अवधि में पंजाब और हरियाणा की ओर पलायन करते हैं। यदि सर्दियों में भी चारे की समस्या है तो भी चरवाहों को पलायन करना पड़ता है। पंजाब और हरियाणा की और पलायन करने वाले चरवाहे मुख्यत: बीकानेर, नागौर, जैसलमेर जिले के होते हैं।
पलायन के दौरान भेड़-बकरियां सबसे ज्यादा लू और शीत लहर दोनों से बेहद बुरी तरह प्रभावित होते हैं। थार रेगिस्तान के सामाजिक सरोकारों को लेकर काम करने वाली संस्था उरमूल द्वारा बीकानेर और जोधपुर के 45 चरवाहों के किए गए सर्वे में यह बात निकलकर आई कि पिछले एक साल के अंदर ही लू और शीत लहर की चपेट में आने के कारण लगभग 430 भेड़ बकरियां मारी गई और इसमें से भी ज्यादातर पलायन के दौरान मरी।
लू और शीत लहर के कारण क्यों मरते हैं पशु?
चरवाहा समुदाय अपने भेड़-बकरियों के झुंड के साथ समूह में पलायन करता है जिसमें बड़ी संख्या में भेड़-बकरियां होती हैं। बीकानेर जिले के केलां गाँव के सतार खान जोकि खुद एक चरवाहे है और अपने झुंड के साथ पलायन करते हैं, के अनुसार "पलायन के दौरान पलायन करने वाले चरवाहों के एक गुट में कुल भेड़-बकरियों की संख्या एक हजार तक हो जाती है।"
चरवाहे बिना किसी व्यवस्था के खेत-खलिहानों के रास्ते पशुओं को चराते हुए पंजाब और हरियाणा की ओर बढ़ते हैं और रास्ते में रुकने की अस्थायी व्यवस्था स्वयं के माध्यम से करते हैं। ऐसी स्थिति में जब रास्ते में गर्मियों में लू या सर्दियां में शीत लहर चलती है तो चरवाहे आश्रय के अभाव में लू या शीत लहर के चपेट में आ जाते हैं। लू या शीत लहर के कारण कई पशु वहीं मर जाते हैं तो कई बाद में इलाज के अभाव में मर जाते हैं। चरवाहों के पास अपने पशुओं के इलाज के लिए प्राथमिक स्तर की दवाएं भी नहीं होती है और न ही पलायन के दौरान रास्ते में पशुओं के इलाज के लिए किसी भी प्रकार व्यवस्था होती है।
लू लगने के कारण पशु में शरीर का तापमान बढ़ना, सांस लेने में कठिनाई, बेचैनी, सुस्ती,अपच, चारा न खाना, कमजोरी और उत्पादन कम होना आदि लक्षण देखे जा सकते हैं वहीं शीत लहर की चपेट में आने के कारण पशु को सर्दी-जुकाम, निमोनिया, लेंगराइटिस हाइपोथर्मिया आदि रोग हो सकते हैं जिनके कारण पशु की मौत हो सकती है।
आश्रय और इलाज के अभाव के अतिरिक्त जब चरवाहे लू और शीत लहर के कारण रास्ते में कहीं फंस जाते है तो उस स्थान पर चारे और पानी की व्यवस्था कर पाना बेहद मुश्किल होता हैं जिसके कारण कई पशु चारे और पानी के अभाव में भी मर जाते हैं।
क्या हो सकता हैं समाधान?
इसका सबसे बड़ा समाधान स्थानीय सामुदायिक चारागाहों को पुनर्जीवित करना है। राजस्थान में चारागाह भूमि मुख्यत: ओरण और गोचर भूमि में बटी हुई है। सामुदायिक चरागाह का 88,56,101 हेक्टेयर गोचर भूमि है। ओरण भूमि को लेकर कोई स्पष्ट आंकड़े नहीं है लेकिन बाड़मेर, जैसलमेर बीकनेर एवं जोधपुर में बहुतायत में ओरण भूमि है। यहां 50 हेक्टेयर से लेकर 7000 हेक्टेयर तक के ओरण विद्यमान है जोकि आज दयनीय स्थिति में हैं। यदि इन सामुदायिक चारागाहों का विकास सही ढंग से किया जाता है तो चरवाहों को पलायन की आवश्यकता नहीं रहेगी और सामुदायिक चारागाह भूमि में पशुओं के लिए पर्याप्त चारे व पानी की व्यवस्था की जा सकती है।
पशुओं के लिए ईलाज की उचित व्यवस्था होने से लू और शीत लहर के कारण होने वाली मौतों को कम किया जा सकता है। यदि पशु अस्पतालों की दशा को सुधारते हुए चरवाहों की इन अस्पतालों तक पहुँच को सुलभ बनाया जाता है तो यह चरवाहों के लिए बेहद कल्याणकारी कदम होगा।
फोटो - पशुपालक सेवा केंद्र, कालू (सूरज सिंह)
इसके अतिरिक्त उरमूल द्वारा पशुपालक सेवा केंद्र की संकल्पना इस क्षेत्र में प्रस्तुत की गई जहां पलायन करने वाले चरवाहों और उनके पशुओं के लिए आश्रय, इलाज, पानी आदि बुनियादी चीजों की व्यवस्था पलायन मार्ग में ही की गई है। उरमूल द्वारा खाद्य एवं कृषि संगठन और राष्ट्रीय वर्षा सिंचित क्षेत्र प्राधिकरण के सहयोग से बीकानेर के दो गाँव केलां और कालू में दो पशुपालक सेवा केंद्र विकसित किए गए हैं। यदि बड़े स्तर पर ऐसे पशुपालक सुविधा केंद्रों को विकसित किया जाता है तो पलायन करने वाले चरवाहों के लिए काफी फायदेमंद होगा और पलायन के दौरान भेड़ बकरियों के लू और शीत लहर के चपेट में आने से होने वाले नुकसान को काफी कम किया जा सकता है।
यदि राज्य इन भेड़-बकरी चरवाहों की इस समस्या पर ध्यान दें तो इनके हित से जुड़ी नीतियों को बढ़ावा देकर कल्याणकारी योजनाओं के माध्यम से इस समस्या का समाधान कर सकता है।
(लेखक पिछले 2 साल से थार रेगिस्तान में उरमूल संस्था के माध्यम से यहां के पशुपालक समुदाय के साथ उनकी आजीविका को लेकर काम कर रहे हैं)