बिहार का गया भारत का पहला जिला है, जहां लू (हीटवेव) के थपेड़ों से लोगों को बचाने के लिए प्रशासन को आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा-144 (कर्फ्यू) लागू करनी पड़ी। गया में लू की वजह से खतरा बहुत बढ़ गया था। इस कारण सभी तरह के निर्माण कार्यों, मजदूरी और खुले में आयोजित होने वाले सार्वजनिक कार्यक्रमों पर सुबह 11 बजे से शाम 4 बजे तक रोक लगा दी गई। लेकिन, सिर्फ गया ही इकलौती जगह नहीं थी, जहां के लोगों को भीषण गर्मी का सामना करना पड़ा। इन गर्मियों में उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, झारखंड, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, राजस्थान, तेलंगाना, पंजाब और महाराष्ट्र के अधिकतर हिस्सों में रिकॉर्ड तोड़ तापमान और लू का सामना करना पड़ा। इस बार गर्मियों में दिल्ली में अधिकतम तापमान 48 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया, जबकि राजस्थान के चुरू में अधिकतम तापमान 50.80 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया, जो अब तक भारत के किसी भी जिले में दर्ज किया गया सर्वोच्च स्तर है। ऐसे में सवाल खड़ा हो गया है कि क्या लू के थपेड़ों का एक नया दौर शुरू हो रहा है?
इस बात के पुख्ता प्रमाण उपलब्ध हैं कि भारत में लू की तीव्रता और आवृत्ति में बढ़ोतरी हो रही है। 2017 में पर्यावरण अनुसंधान पत्रों में प्रकाशित विमल मिश्रा एवं अन्य के एक अध्ययन के मुताबिक, 1951 से लेकर 2015 के दौरान लू की आवृत्ति में लगातार बढ़ोतरी हुई है। 2017 में ही साइंस एडवांसेज में प्रकाशित ओमिड मज्दियास्नी के एक अध्ययन के अनुसार, 1960-1984 की तुलना में 1985-2009 के दौरान भारत में हीटवेव की संख्या, अवधि और तीव्रता सब में बढ़ोतरी हुई है।
लू के कारण होने वाली मौतों की संख्या में भी बढ़ोतरी हुई है। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अनुसार, 1992-2016 के बीच हीटवेव से 25,716 जानें जा चुकी हैं। लेकिन, इस संख्या पर ज्यादा भरोसा नहीं किया जा सकता है, क्योंकि लू से होने वाली अधिकतर मौतों की जानकारी दर्ज ही नहीं की जाती है। इसके बाद भी देश में प्राकृतिक आपदाओं की वजह से होने वाली मौतों के मामले में हीटवेव तीसरा सबसे बड़ा कारण है।
वैश्विक तापमान के कारण लू की भयंकरता के और अधिक बढ़ने की आशंका है। पुणे स्थित भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान के वैज्ञानिकों ने हाल ही में एक पेपर प्रकाशित किया है, जिसमें उन्होंने 9 जलवायु मॉडलों की जांच की और पाया है कि वैश्विक तापमान में वृद्धि के चलते भारत में 2020 से हीटवेव की आवृत्ति और अवधि में बढ़ोतरी तेजी से होने लगेगी।
मिश्रा के अनुमान के अनुसार, अगर 2100 तक वैश्विक तापमान में औद्योगिक युग से पहले की तुलना में 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होती है, तो भारत में गंभीर रूप से लू की आवृत्ति 30 गुना तक बढ़ जाएगी। वहीं, मज्दियास्नी का अनुमान है कि अगर तापमान में मामूली बढ़ोतरी भी होती है, तब भी भारत में इससे होने वाली मौतों की संख्या काफी बढ़ जाएगी और इसका सबसे ज्यादा शिकार गरीब तबके के लोग होंगे। इस तरह से सभी अनुमानों से यह स्पष्ट है कि आने वाले वर्षों में लू सबसे बड़ी वार्षिक प्राकृतिक आपदा होगी। लेकिन, हम इस संकट से निपटने के लिए तैयार नहीं हैं।
सरकार राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन अधिनियम 2005 के तहत लू को प्राकृतिक आपदा ही नहीं मानती है। इसको लेकर कुछ राज्यों और मुट्ठी भर शहरों ने अपने स्तर पर अपनी योजनाएं तैयार की हैं। देश में लू से निपटने के लिए पर्याप्त संसाधन भी नहीं उपलब्ध कराए गए हैं।
अब समय आ गया है कि केंद्र सरकार सामने आ खड़े हुए इस खतरे को पहचाने और लू को प्राकृतिक आपदा के तौर पर मान्यता प्रदान करे। इसके साथ सरकार को हीट कोड के निर्माण और कार्यान्वयन के जरिए राज्यों और शहरों को लू के चलते पैदा होने वाली आपातकालीन परिस्थितियों से निपटने के लिए तैयार होने में भी मदद करनी चाहिए। तापमान और आर्द्रता जैसे कारकों के आधार पर लू की आपातकालीन परिस्थितियों को परिभाषित करना चाहिए। वर्तमान में भारतीय मौसम विज्ञान विभाग सिर्फ तापमान के आधार पर लू को परिभाषित करता है, जिसे अधिकतर वैज्ञानिक उष्मागत तनाव को स्पष्ट करने के लिहाज से अपर्याप्त मानते हैं।
हीट कोड में भीषण गर्मी के दौरान आदर्श संचालन प्रक्रिया को भी परिभाषित किया जाना चाहिए, जैसे कि लू अलर्ट, काम के घंटों पर प्रतिबंध, सार्वजनिक स्थानों पर राहत के प्रावधान और अस्पतालों में आपातकालीन सेवाओं को लेकर इसमें स्पष्ट निर्देश होने चाहिए। हालांकि, हीट कोड बस एक शुरुआत है, हमें इस वार्षिक आपदा से निपटने के लिए अपने शहरों को नया स्वरूप देना होगा।