राजस्थान के दो ऐसे शहर (चुरु और धौलपुर) हैं जो देश के उन पांच शहरों में शामिल हैं जहां गर्मियों में तापमान 50 डिग्री से अधिक होता है। इस तापमान से मुकाबले के लिए स्थानीय और राज्य स्तर पर क्या-क्या किया जाना चाहिए और क्या-क्या हो पाता है। इन सभी मुद्दों पर "डाउन टू अर्थ" ने जयपुर स्थित राजस्थान विश्व विद्यालय के पर्यावरण विभाग इंदिरा गांधी परिस्थितिकी मानव संस्थान के प्रमुख डॉ. टीआई खान से बातचीत की। बातचीत के प्रमुख अंश।
क्या प्रशासन हीटवेव (लू) की सही स्थिति आमजन को नहीं बताती?
यदि तापमान पचास डिग्री सेल्सियस से ऊपर चला जाता है तो कलेक्टर की जिम्मेदारी होती है कि वह पानी का छिड़काव करे, कॉलोनी को ठंडा रखा जा सके, लेकिन मुसीबत तो यह है कि वे पीने को तो पानी तो अब तक दिया नहीं तो पानी का छिड़काव कहां से करेंगे। वास्तविकता तो यह है कि प्रशासन अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए कभी भी पचास डिग्री सेल्सियस घोषित ही नहीं करते। वे 49.6 या 49.9 तक घोषित कर देते हैं लेकिन वे इसे पचास पूरा नहीं होने देते हैं। पहली स्टेज में ही प्रशासन अपना हाथ ऊपर कर लेता है। सरकार से लेकर प्रशासन हीटवेव के विज्ञानियों की एक नहीं सुनते हैं। बस उन्हें त्वरित परिणाम चाहिए। आखिर वे जनप्रतिनिधि जो ठहरे। हर हाल में उन्हें परिणाम दिखाना है। सरकार अपने ऊपर किसी प्रकार का दबाव नहीं लेना चाहती है। सरकार अपनी योजनाएं पांच सालों को ध्यान में रखकर ही बनाती है और यही कारण कि वे हीटवेव जैसी वास्तविकता समस्या के हल की दिशा में कोई भी कारगर उपाय करने में हिचकती है। वे असली समस्या को छूने से डरते हैं।
क्या लू का असर राजस्थान में अधिक होता है और क्या सही है कि तापमान मानव द्वारा नियंत्रित किया जाता है?
बिल्कुल, तापमान को पचास डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के लिए मौसम विभाग के ऊपर से लेकर नीचे तक के अधिकारियों को इस बात की खास हिदायत रहती है कि वे किसी भी सूरत में तापमान को पचास से ऊपर नहीं दिखाना है। क्योंकि इसके पिछे जो व्यवस्था करनी होती है, वहप्रशासन को उसके बूते से बाहर की बात होती है। इसके तहत उसे हर गांव में, हर सड़क पर, हर कस्बे में पानी की व्यवस्था करनी होती है। चूंकि प्रशासन से यह सब होता ही नहीं है। यही कारण है कि लू का सीधा असर आम जनता पर पड़ता है। क्योंकि सरकारी तापमान कम दिखाने से क्या वास्तिविक तापमान तो कम नहीं होता। लेकिन जैसा कि हम देखते हैं जब प्रशासन इस प्रकार की अपनी जिम्मेदारियों से दूर भागता है तो हीटवेव का असर अधिक दिखाई पड़ता है। चूंकि कहने के लिए सरकारी आंकड़ों में तो आपने तापमान कम करके दिखा दिया लेकिन वास्तव में तापमान बढ़ाहुआ है। ऐसे में आम जनता धोखा खा जाती है उसे लगता है कि सरकार तो बता रही है यह लू नहीं है, जबकि वास्तिविकता ये है कि लू चल रही होती है और आम जनमानस उसका शिकार होता है। इस प्रकार से आंकड़ों की हेराफेरी से सरकार व प्रशासन लू से मरने वालों को यह मानने से ही इंकार कर देती है कि जब तापमान लू के लायक था ही नहीं तो इससे कैसे कोई मर सकता है। इस प्रकार सरकार अपने आंकड़ों की कलाबाजी से कागजों पर लू को पस्त करने में सफल होती है। और इसका नतीजा होता है कि लू की घटनाएं साल दर साल और बढ़ रहा है और इसके शिकार होने वालों की संख्य में तेजी से वृद्धि होती जा रही है।
क्या लू की घटनाएं लगातार बढ़ रही है?
अब सवाल है कि लू है कि नहीं या उसकी शिद्दत कम हो रही है या बढ़ रही है। औद्योगिक क्रांति से पूर्व 1752 में कार्बन डाई आक्साइड के जो आंकड़े हैं, उसके अनुसार सीओटू का स्तर 280 पीपीएम था। अब नासा कह रहा है कि कार्बन का लेबल 406 पीपीएम है। इसका मतलब हुआ कि68 फीसदी कार्बन की मात्रा में इजाफा हुआ है। इसके अलावा हमने जंगलों को काटना शुरू कर दिया। कार्बन को सोखने वाले कौन थे, यही जंगल था। तापमान में लगातार वृद्धि के मुख्य कारणों में से एक है कार्बन डाइ डाक्साइड की मात्रा में बढ़ोतरी होना। नासा ने 28 मार्च, 2018 को जो आंकड़े दिए हैं, वह है सीओटू की मात्रा 406 पीपीएम है। कार्बन डाई आक्साइड जिसके कारण वैश्विक तापमान बढ़ रहा है उसके जो कारण हैं उन कारणों पर कोई रोकटोक नहीं, जिसके कारण इसमें लगातार बढोतरी हो रही है। यह हर क्षण बढ़ रही है। जहां तक इसके प्रभाव क्षेत्र की बात है तो यह जरूरी नहीं है कि एक ही स्थान विशेष पर हो वह कहीं भी हो सकता है। प्राकृतिक आपदाएं तो आती रहती हैं लेकिन जब उसका स्केल बढ़जाता है तो तब एहसास होता है आपदा आ गई है।
क्या सीओटू के प्रभाव अलग अलग स्थानों पर अलग होते हैं?
सीओटू तो लगातार बढ़ रहा है, लेकिन उसका प्रभाव अलग-अलग समय पर होता है। जैसे कभी ग्लेशियर पर, समुद्री सतह का बढना,आंधी तेज आने लगी हैं। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा बढ़ने से लू के दिन बढ़ रहे हैं। पृथ्वी के अंदर अब अधिक उथलपुथल होने लगी है और यह उथल पुथल पहले भी होती थी लेकिन अब इसकी संख्या में बढोतरी हो रही है। सीओटू के अलावा ग्रीन हाउस गैसें जैसे मिथेन, एनटूओ ओजोन, क्लोरो फ्लोरो कार्बन आदि कई गैसें आ गई हैं। ये बड़ी मात्रा में उत्सर्जन होती हैं।
वास्तव में लू की स्थिति कब बनती है?
हीटवेव यानी लू का संबंध हवा की दिशा है, उसकी तेजी और उसका तापमान, ये तीनों कारक जब एक साथ अटैक करते हैं तो वह लू के शक्ल में बाहर आता है। लू के तापमान में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। इसका अकालन कैसे करें। तो सबसे पहले बायोलॉजिकल इंडिकेटर यानी जिस इलाके में हीटवेब के आने की संभावना होती है तो वहां से पुशु-पक्षी, जीव-जंतु आदि का पलायन हो जाता है। वे किसी को सताते नहीं है, बस उनको अहसास होता है और पलायन कर जाते हैं। वास्तव में इस प्रकार की सूचना को हम इंडिजनेस टैक्नोलजि कहते हैं।
क्या मौसम के लिए पारंपरिक ज्ञान असरकारक होता है?
जी हां, जब कुछ साल पहले मैं जेसलमेर इलाके में यात्रा कर रहा था तो एक बुढ़े सज्जन ने कहा इस बार बारिश नहीं आएगी। इस पर हमने पूछा कि क्यों? उन्होंने समझाते हुए कहा कि देखिए पेड़- पौधों की पत्तियां कितनी हरी हो गई हैं। इसका मतलब क्या है? इस पर बुजुर्ग ने कहा कि पेड़ को पता होता है कि जब बारिश नहीं आएगी तो उसकी जड़ें और नीचे तक चली जाती हैं, जहां पानी होता है। हालांकि इसे वैज्ञानिक रूप से साबित करना कठिन है। लेकिन यह एक पारंपरिक ज्ञान तो है ही।
क्या हीटवेब लू का आकलन करने के लिए कोई सपोर्ट करने वाले आंकड़े उपलब्ध नहीं है?
हां, यह एक खतरनाक बात है कि लू कम हो रही है तो इसे सपोर्ट करने के लिए जो आंकड़े होने चाहिए वह हमारे पास नहीं हैं। बल्कि इसके बढ़ने के कारणों के लिए दिए जान वाले सपोर्टिंग आंकड़े हमारे पास उपलब्ध हैं। ग्रीन हाउस गैसों को शोषित करने वाले प्लांट हैं, लेकिन उनकी संख्या में लगातार कमी हो रही है। इसका मतलब यह है कि लू को बढ़ाने वाले जो कारक हैं, उसके पैरामीटर लगातार बढ़ रहे हैं।