"कुल मिलाकर, देश में 2019 मानसून के दौरान बारिश के अच्छी तरह से वितरित होने की उम्मीद है, जो आगामी खरीफ मौसम के दौरान देश में किसानों के लिए फायदेमंद होगा।" इसी तरह भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने अगला मानसून सीजन (जून-सितंबर) के पूर्वानुमान की घोषणा की है। आधिकारिक परिभाषा के मुताबिक, यह लगातार तीसरा सामान्य मॉनसून होगा और यह किसानों को राहत देगा। लेकिन क्या ऐसा होगा?
सबसे पहले भारत में सूखे के स्थिति की बात करते हैं। आईआईटी, गांधीनगर के एक अध्ययन के अनुसार, वर्तमान में भारत का 50 प्रतिशत हिस्सा सूखा झेल रहा है। पिछले दो साल के दौरान सामान्य मानसून के बावजूद तकरीबन 200 जिलों में सूखा दर्ज किया गया। आधिकारिक अनुमान के अनुसार, भारत के एक-तिहाई क्षेत्र के आसपास के इलाके काफी समय से सूखे से प्रभावित हैं और हर साल सामान्य मानसून के बावजूद सूखे से लगभग 5 करोड़ लोग प्रभावित होते हैं, जिनमें ज्यादातर किसान हैं।
इसलिए, एक सामान्य मानसून के पूर्वानुमान को किसानों के फायदे से जोड़ना बेमानी बात है। जो रूझान दिख रहे हैं, उसे एक आपदा की शुरुआत मानना चाहिए। ऐसे में, सामान्य मानसून की बात कह कर टाला नहीं जा सकता।
भारत के 52 प्रतिशत किसान परिवारों पर लगभग औसतन 47000 रुपए प्रति किसान कर्ज है। इनमें से अधिकांश ऋणी किसान परिवार उन 12 राज्यों से हैं, जो कई साल से से सूखे की चपेट में हैं। हर साल सूखे की वजह से ये परिवार अपनी आमदनी गंवा देते हैं और उन पर कर्ज बढ़ जाता है। अधिक ऋण का मतलब जोखिम लेने की क्षमता भी अधिक है। मौसम विभाग के पूर्वानुमान में कहा गया है कि मानसून की शुरुआत देर से होगी। इसका मतलब है कि किसानों को जून-जुलाई में बुवाई शुरू करने की चुनौती होगी। पिछले अनुभव बताते हैं कि सामान्य मानसून का पूर्वानुमान उनके लिए ज्यादा मायने नहीं रखता है, क्योंकि उनकी चिंता बारिश के वितरण से जुड़ी है। मानसून के आगमन में देरी से उन्हें परेशानी होती है और उन्हें फसल की बुआई देरी से करनी पड़ती है।
दूसरा, वर्तमान पूर्वानुमान कहता है कि मौसम के आखिरी दो महीनों अगस्त-सितंबर में बारिश अधिक स्पष्ट होगी। जून में बोई गई फसल को बनाए रखने के लिए किसानों को आमतौर पर जुलाई की बारिश की सबसे ज्यादा जरूरत होती है। इसलिए, देरी से हुई बारिश अगले महीने तक बुवाई का विस्तार कर देगी और पिछले दो सत्रों में हुई भारी बारिश उनकी मदद नहीं कर सकती है। आमतौर पर इन दो महीनों में होने वाली बारिश और बाढ़ का समय समान है। यानी कि भारी बारिश से बाढ़ का खतरा बढ़ जाएगा, जिससे फसल को नुकसान होगा।
सूखा प्रबंधन के 150 से अधिक वर्ष होने के बावजूद हमारी सूखा प्रबंधन योजना ऐसे हालात से निपटने के लिए तैयार नहीं है। आमतौर पर, हमारा संकट प्रबंधन प्रतिक्रियात्मक है। एक बार सूखा घोषित होने के बाद हम राहत कार्यों में लग जाते हैं। इसके अलावा, हम अपने सूखे प्रबंधन की योजना को पहले के वर्षों से जोड़ कर देखते हैं, जबकि ऐसा कुछ होता नहीं है। हर सूखे का अपना अलग स्वरूप होता है। कुछ मामलों में वे स्थानीय वर्षा के आधार पर बहुत पहले प्रभाव दिखाते हैं, जबकि कुछ मामलों में वे देरी से प्रभाव दिखाते हैं।
इस बात का समझना महत्वपूर्ण है कि मानसून की कमी एक गंभीर सूखा बन जाती है। सूखे को बेहतर ढंग से समझा जाना चाहिए और जब सूखे की स्थिति बने तो बेहतर प्रबंधन की आवश्यकता है।
आम तौर पर माना जाता है कि मानसून में कमी की वजह से सूखा होता है, लेकिन ऐसा नहीं है। बारिश, उसके समय और विस्तार और सरकार की प्रतिक्रिया में बड़ा अंतर है। हर सूखे की अलग-अलग विशेषताएं हैं। सूखे का प्रसार और तीव्रता पूरी तरह से इस बात पर निर्भर करती है कि कब मॉनसून बरसता है। स्थिति का प्रबंधन करने के लिए बाद में सरकार की प्रतिक्रियाएं तय करती हैं कि इसका प्रभाव लोगों पर कितना गंभीर होगा।
पिछले दो मानसून की तरह वर्तमान मानसून को भी सामान्य बताया गया, बावजूद इसके लगभग 150 जिलों में लगातार सूखे की स्थिति है।
इसलिए सूखे का असर लंबे समय तक बना रह सकता है। यह स्पष्ट है कि सरकार को दो दृष्टिकोण अपनाने होंगे। सबसे पहले, मानसून की विफलता के समय के आधार पर सूखा प्रबंधन योजना को परिभाषित करें। दूसरा, एक आजीविका कार्यक्रम की शुरुआत करे, जिससे सूखा ग्रस्त लोगों को रोजगार मिले। भारत में ऐसे कई कार्यक्रम हैं, जिससे सूखे का असर कम किया जा सकता है, लेकिन दिक्कत प्रबंधन की है। सूखे से निपटने की योजना बनाते वक्त इन दो पहलुओं को भी जोड़ा जाना चाहिए।