भारत में बढ़ रहा है लू का कहर, हर साल 300 से अधिक मौतें

जहां 1978 से 2014 के बीच 36 वर्षों में लू से 12,273 लोगों की जान गई थी, वहीं 2015 से 2020 के बीच यह आंकड़ा 3,499 रिकॉर्ड किया गया है
भारत में बढ़ रहा है लू का कहर, हर साल 300 से अधिक मौतें
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देश में तापमान बढ़ने के साथ-साथ लू का कहर भी बढ़ता जा रहा है। पिछले तीन दशकों में 1978 से 2014 के बीच लू की करीब 600 से ज्यादा घटनाएं सामने आई हैं, जिनमें 12,273 लोगों की जान गई है, जिसका मतलब है कि इस दौरान हर साल औसतन 332 लोगों की जान गई थी। यह जानकारी हाल ही में जर्नल करंट साइंस में प्रकाशित शोध में सामने आई है। शोध के अनुसार सबसे ज्यादा जानें आंध्रप्रदेश में गई हैं, जहां लू की 49 घटनाओं में 5,119 लोगों की जान गई थी।

केवल पांच राज्यों आंध्र प्रदेश , राजस्थान, ओडिशा, उत्तर प्रदेश और बिहार में करीब 80 फीसदी मौतें हुई थी। इनमें से आंध्र प्रदेश में 42 फीसदी, राजस्थान में 17 फीसदी, ओडिशा में 10 फीसदी,  उत्तर प्रदेश में 7 फीसदी और बिहार में भी 7 फीसदी मौतें दर्ज की गई थी। वहीं दूसरी तरफ अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, मणिपुर, मेघालय, त्रिपुरा, सिक्किम, मिजोरम, उत्तराखंड और गोवा में 1978 से 2014 के दौरान लू की घटनाएं सामने नहीं आई थी।

भारत के कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में भूगोल के प्रोफेसर और इस शोध के प्रमुख शोधकर्ता ओमवीर सिंह ने बताया कि, भारत, एक उष्णकटिबंधीय देश है, जो अपनी अनूठी भौगोलिक और जलवायु दशाओं के कारण गंभीर लू का अनुभव करता है। जब वैश्विक रूप से चरम तापमान के कारण होने वाली मौतों की बात करें तो उसमें भारत को सबसे गंभीर रूप से प्रभावित देशों की श्रेणी में रखा जाता है।

इस शोध में एक और जानकारी जो सामने आई है वो यह है कि इस देश में महिलाओं और बच्चों की तुलना में लू ने कहीं अधिक संख्या में पुरुषों की जान ली है, जिसके लिए शोधकर्ताओं ने पुरुषों को काम के लिए लू के अधिक जोखिम में घर से बाहर निकलने को दोषीं ठहराया है। इस शोध से जुड़ी शोधकर्ता प्रीती मालिक ने बताया कि वो लोग जो घर से बाहर खुले में काम करने को मजबूर हैं और सामाजिक आर्थिक रूप से पिछड़े हैं उनपर लू का असर पड़ने की सबसे ज्यादा सम्भावना है।

भारत में उमस के साथ लू का आना सबसे ज्यादा खतरनाक है। रॉयल मेट्रोलॉजिकल सोसाइटी द्वारा प्रकाशित अध्ययन से पता चला है कि हाल के वर्षों में लू का कहर कहीं ज्यादा बढ़ गया है। जिसके लिए आर्कटिक में बढ़ रही गर्मी जिम्मेवार है।

हालांकि यह शोध 2014 तक के आंकड़ों पर आधारित है पर यदि हम 2015 में आए लू के कहर को देखें तो वो इसकी गंभीरता को स्पष्ट कर देता है। 2015 में लू से भारत और पाकिस्तान में करीब 3,500 लोगों की जान गई थी। वहीं 2015 से 2020 तक करीब 3500 लोगों की जान लू ने ली है। जहां 2008 के दौरान देश में लू से 111 लोगों की जान गई थी यह आंकड़ा 2012 में 729, 2013 में 1433 और 2015 में 2,081 रिकॉर्ड किया गया था। वहीं 2019 में लू से 498 लोगों की जान गई थी।

जलवायु परिवर्तन का कितना पड़ रहा है असर

शोधकर्ताओं की मानें तो जैसे-जैसे तापमान में वृद्धि हो रही है लू की घटनाएं भी बढ़ती जा रही हैं। यदि संयुक्त राष्ट्र द्वारा जारी आंकड़ों को देखें तो वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि पहले ही 1.28 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा हो चुकी है, जिसका मतलब है कि औद्योगिक काल के बाद से तापमान में करीब इतनी वृद्धि हो चुकी है। वहीं 40 फीसदी संभावना है कि अगले पांच वर्षों में वैश्विक तापमान में हो रही वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर जाएगी, जबकि सदी के अंत तक यह वृद्धि 3.2 डिग्री सेल्सियस के पार चली जाएगी।

जर्नल जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स में लू पर छपे एक अन्य शोध के अनुसार तापमान में 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ लोगों के लू की चपेट में आने का जोखिम करीब तीन गुना बढ़ जाएगा। यदि वेट बल्ब तापमान की बात करें तो 32 डिग्री सेल्सियस तापमान को इंसान के लिए खतरनाक माना जाता है जबकि 35 डिग्री सेल्सियस पर इंसान का शरीर अपने आप को खुद ठंडा नहीं कर सकता है।

हालांकि यदि तापमान में हो रही वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर रोक लिया जाता है तो यह जोखिम आधा रह जाएगा। इसके बावजूद एक बड़ी आबादी इस बढ़ते तापमान की चपेट में होगी, जिसका सबसे ज्यादा असर भारत और पाकिस्तान जैसे देशों में होगा जहां की एक बड़ी आबादी आज भी कृषि और मजदूरी जैसे कार्यों में संलग्न है जिसके लू की चपेट में आने का खतरा सबसे ज्यादा है। वहीं जर्नल नेचर क्लाइमेट चेंज में छपे शोध से पता चला है कि दुनिया भर में गर्मीं के कारण होने वाली 37 फीसदी मौतों के लिए तापमान में हो रही वृद्धि जिम्मेवार है।

समस्या तब और गंभीर हो जाती है जब इस आपदा से निपटने के लिए साधन ही उपलब्ध नहीं है, क्योंकि आपदा से निपटने के लिए भारत सरकार द्वारा जारी नेशनल डिसास्टर मैनेजमेंट एक्ट 2005 और नेशनल पालिसी ऑन डिसास्टर मैनेजमेंट 2009, लू को प्राकृतिक आपदा नहीं मानते। इसलिए इससे बचाव के लिए किसी तरह का बजटीय आवंटन भी नहीं किया जाता। न ही उनके लिए किसी तरह का कोई इंफ्रास्ट्रक्चर तैयार किया जाता है। ऐसे में बढ़ते तापमान के साथ यह लोगों के लिए बड़ी परेशानी का सबब बनती जा रही है।

भारत के कई हिस्सों में पहले ही काफी गर्मी पड़ती है, साथ ही मौसम में नमी और उमस रहती है। ऊपर से जो लोग इसका सबसे ज्यादा शिकार बनते हैं वो समाज के कमजोर और पिछड़े वर्ग से सम्बन्ध रखते हैं, जहां एयर कंडीशन तो बहुत दूर की बात है उनके लिए घरों को ठंडा रखना भी एक लग्जरी से कम नहीं है।

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