जुलाई 2023 से भारत में अल नीनो सक्रिय हो गया है। आखिर यह मौसमी घटना क्या है? इसका असर क्या होता है? इन सब पहलुओं पर डाउन टू अर्थ, हिंदी की मासिक पत्रिका में आवरण कथा प्रकाशित की गई थी। इसे अलग-अलग भागों में पाठकों को वेब पर प्रकाशित किया जा रहा है। अब तक तक आप दो भाग पढ़ चुके हैं। पहले भाग में आपने पढ़ा - डाउन टू अर्थ आवरण कथा: अल नीनो के बारे में जानें सब कुछ, कैसे करता है हम पर असर । इससे अगले भाग में आपने पढ़ा - डाउन टू अर्थ आवरण कथा: कितने महीने तक रहेगा अल नीनो का असर? । तीसरे भाग में आपने पढ़ा, क्या है अल नीनो का चरित्र! । आज पढ़ें, जलवायु विशेषज्ञों का यह लेख :
इस वर्ष भारत में मॉनसून में तीन सप्ताह की देरी हुई, जिसके कारण जून महीने की शुरुआत में पूरे उपमहाद्वीप में बहुत कम बारिश हुई और भीषण गर्मी पड़ी। उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में तापमान 47 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया। विलंबित और कमजोर मॉनसून आमतौर पर तब होता है जब (उत्तरी-गोलार्द्ध) वसंत ऋतु में अल नीनो विकसित होता है, जैसा कि ला नीना के लगातार तीन वर्षों के बाद इस वर्ष हुआ है। यह आने वाले महीनों में और मजबूत होता रहेगा।
अल नीनो घटनाएं दुनिया भर में चरम मौसम की घटनाओं को गहराई से प्रभावित करती हैं। इसके चलते खाद्य उत्पादन और पानी की उपलब्धता के साथ पारिस्थितिक तंत्र पर दूरगामी परिणाम पड़ते हैं। भारत के लिए इसके निहितार्थ महत्वपूर्ण हैं। खासतौर से कृषि उत्पादन पर प्रभाव सबसे गंभीर चिंताओं में से एक है।
अल नीनो की घटनाएं सीधे तौर पर उपमहाद्वीप में बढ़ते तापमान, अत्यधिक गर्मी और अधिक अनियमित वर्षा पैटर्न को प्रेरित करने से जुड़ी हुई हैं। अगर इनके लंबे इतिहास को देखा जाए तो अल नीनो की कम से कम आधी घटनाएं गर्मियों के मॉनसून के मौसम के दौरान सूखे से जुड़ी हुई हैं। 2015 में दक्षिणी भारत के चेन्नई में एक असाधारण वर्षा की घटना हुई। यहां एक दिन में इतनी वर्षा रिकॉर्ड की गई, जितनी पूरी एक सदी में कभी 24 घंटे में नहीं देखी गई थी। एक दिन में होने वाली इस रिकॉर्ड भीषण वर्षा के लिए आंशिक रूप से 2014 और 2016 के बीच चरम अल नीनो घटना को जिम्मेदार ठहराया गया। यहां 30 लाख से अधिक लोग आवश्यक सेवाओं से वंचित हो गए और भारतीय अर्थव्यवस्था को करीब 3 अरब अमेरिकी डॉलर का झटका लगा। ये घटनाएं उन दूरगामी प्रभावों की याद दिलाती हैं जो चरम मौसम की घटनाओं के बढ़ने से समुदायों और अर्थव्यवस्थाओं पर पड़ सकते हैं।
ग्लोबल वार्मिंग के कारण महासागर लगभग 93 प्रतिशत अतिरिक्त गर्मी को अवशोषित कर रहे हैं और इस कारण अल नीनो मजबूत हो रहे हैं। अधिकांश जलवायु मॉडल का अनुमान है कि अल नीनो से संबंधित वर्षा में उतार-चढ़ाव अगले कुछ दशकों में काफी बढ़ जाएगा। वर्षा में उतार-चढ़ाव का कारण वायुमंडलीय नमी की मात्रा में वृद्धि हो सकती है जिसे ग्लोबल वार्मिंग लगातार बढ़ा रहा है। जलवायु मॉडल के अनुसार, अल नीनो और भारतीय ग्रीष्मकालीन मॉनसून के बीच संबंध भविष्य में और गहरा होगा, अगर हम उच्च कार्बन उत्सर्जन जारी रखते हैं।
भारत को एशिया के सबसे कमजोर देशों में गिना गया है जहां अल नीनो के प्रभाव के चलते फसल उत्पादन पर प्रभाव पड़ेगा। इसलिए भारत में तत्काल ऐसे उपाय किए जाने की जरूरत है जो जोखिम को कम कर सकें। भारतीय किसान कैसे बदलाव को अपना सकते हैं? ऐसी फसल की किस्मों और पशुधन को अपनाना आवश्यक है जो जलवायु परिवर्तन से लड़ सकें। हम फसल पैटर्न में बदलाव करके और विविध फसल प्रणालियों को बढ़ावा देकर विशिष्ट फसलों पर निर्भरता कम कर सकते हैं।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद सक्रिय रूप से जलवायु परिवर्तन की मार से बचाने वाली और बीमारियों से लड़ने वाली फसल किस्मों का विकास कर रही है। इन्हें अपनाकर जोखिम को कम किया जा सकता है। सिंचाई के बुनियादी ढांचे में कुछ सुधारों के बावजूद, लगभग 50 प्रतिशत कृषि अभी भी वर्षा पर निर्भर है। कुशल सिंचाई और जल प्रबंधन प्रथाएं भारतीय कृषि की जल आवश्यकताओं को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी। कृषि वानिकी और अन्य वानिकी पहलों के साथ-साथ मिट्टी की नमी बनाए रखने व जल संरक्षण वाली विधियों को अपनाने से एक स्वस्थ पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने में मदद मिल सकती है। अनुकूलन रणनीतियों में पशुधन और मत्स्य पालन क्षेत्रों को भी शामिल किया जाना चाहिए, जो जलवायु प्रभावों के प्रति संवेदनशील हैं। पशुपालन क्षेत्र में पशुधन नस्लों में विविधता लाना और पशु स्वास्थ्य प्रबंधन में सुधार करना एक अच्छा उपाय हो सकता है।
इसी तरह, मछली पकड़ने की टिकाऊ प्रथाओं को सुनिश्चित करना, मछली के आवासों की रक्षा करना और उन्हें बहाल करना और मछली की आबादी की निगरानी महत्वपूर्ण है। बदलती जलवायु से उत्पन्न चुनौतियों से निपटने के लिए स्वदेशी समुदायों का ज्ञान महत्वपूर्ण है। भारत में स्वदेशी किसानों ने बीजों की कई जलवायु-रोधी किस्मों को संरक्षित किया है जो सूखे, बाढ़ और उच्च लवणता का सामना कर सकते हैं। इन बीजों का उपयोग करके, किसान तेजी से बदलती जलवायु के प्रति अपनी प्रतिरोधक क्षमता बढ़ा सकते हैं। पारंपरिक ज्ञान को अपनाने के अलावा किसानों के लिए प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण कार्यक्रमों में निवेश करना महत्वपूर्ण है। ये पहल किसानों को बदलती जलवायु के अनुकूल ढलने और लचीली कृषि करने के लिए ज्ञान और कौशल प्रदान करती हैं। कृषि बीमा जैसे वित्तीय प्रोत्साहन किसानों को सुरक्षा प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और उन्हें चरम मौसम की घटनाओं से होने वाले संभावित नुकसान से बचाने में मदद कर सकते हैं। मई और जून के दौरान, लू के पूर्वानुमान और मॉनसून की करीबी निगरानी से प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों को सूचित करने में मदद मिल सकती है। यह सुनिश्चित करना आवश्यक होगा कि ज्यादा से ज्यादा किसान मौसम की आवश्यक जानकारी प्राप्त कर सकें।
(चिराग धारा भारत के क्रेया विश्वविद्यालय में पर्यावरण अध्ययन के सहायक प्रोफेसर हैं। रॉक्सी मैथ्यू कोल भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान में एक जलवायु वैज्ञानिक हैं। लेख 360info से साभार)