उत्तराखंड में चमोली जिले के गैरसैंण और अल्मोड़ा के चौखुटिया में रविवार शाम को जोरदार बारिश के कारण भारी नुकसान हुआ। बागेश्वर में भी बहुत भारी बारिश दर्ज की गई। मानसून से पहले इतनी तेज बारिश को अप्रत्याशित माना जा रहा है। हालांकि मौसम विज्ञानी इस घटना को बादल फटना कहने से बच रहे हैं, लेकिन बारिश इतनी तेज है कि स्थानीय लोग इसे बादल फटना मान कर डरे हुए हैं।
अल्मोड़ा के चौखुटिया से करीब 7 किलोमीटर दूर खिड़ा क्षेत्र में रविवार शाम से दो किलोमीटर के दायरे में बादल फटने जैसे हालात बने। बारिश और उसके साथ भूस्खलन ने आसपास रहने वाले लोगों के घरों और मवेशियों को अच्छा खासा नुकसान पहुंचाया। अल्मोड़ा के प्रभारी जिला सूचना अधिकारी अजनेश राणा के अनुसार आपदा प्रबंधन की टीम ने राहत कार्य शुरू कर दिया है। इस घटना में एक व्यक्ति लापता है। जबकि 3 गौशालाएं बह गई हैं। जिसमें कुछ पशुओं की मौत की सूचना है। तेज बारिश से 52 लोगों के घरों में मलबा घुस गया। उन्होंने बताया कि जेसीबी मशीनों की मदद से मलबा हटाया जा रहा है। चमोली के लामबगड़ क्षेत्र में अतिवृष्टि से दो हेक्टेअर तक कृषि भूमि को नुकसान पहुंचा है। । इसके साथ ही चौखुटिया-महलचोरी मोटर मार्ग को काफी नुकसान पहुंचा है।
स्थानीय मीडिया में पिछले कुछ सालों में मानसून से पहले होने वाली तेज बारिश की इन घटनाओं को बादल फटना बताया जा रहा है। लेकिन, मौसम विभाग और पर्यावरणविदों का कहना है कि मई-जून में इस तरह की बारिश अप्रत्याशित तो है, लेकिन इसे बादल फटना नहीं कहा जा सकता। इन घटनाओं में अधिकतम बारिश 50 या 60 मिमी प्रति घंटा दर्ज की गई है, जबकि बादल फटना वह स्थिति होती है, जब एक घंटे में 100 मिमी अथवा उससे ज्यादा बारिश हो जाए। रविवार को सबसे ज्यादा 70 मिमी बारिश बागेश्वर में रिकॉर्ड की गई। इस दौरान पूरे कुमाऊं रीजन में अच्छी बारिश दर्ज की गई। गढ़वाल रीजन के गैरसैंण और चौखुटिया में 60 मिमी बारिश हुई।
क्या है वजह
जीबी पंत नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन इनवायरमेंट एंड सस्टेनेबल डेवेलपमेंट के वैज्ञानिक इंजीनियर किरीट कुमार का कहना है कि किसी एक पॉकेट में अति तीव्र गति से होने वाली बरसात बादल फटने जैसी स्थिति ही पैदा करती है। वे कहते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग की वजह से ही हिमालयी क्षेत्र अति संवेदनशील हो गए हैं और यहां भारी बारिश की घटनाओं में लगातार इजाफा हो रहा है। इसका असर रीजनल और सब-रीजनल क्षेत्र पर भी होगा। वे मानते हैं कि हमारे पास बादल फटने जैसी घटनाओं के अनुमान के लिए पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। ऐसी तकनीक हमारे पास अभी उपलब्ध नहीं है। तूफान जैसी स्थिति से निपटने की तैयारी तो हमारे देश में है लेकिन बादल फटने जैसी स्थिति के लिए अभी हम पूरी तरह तैयार नहीं हैं। उनका कहना है कि जब हम इस तरह की घटनाओं को रोक नहीं सकते हैं तो हम ऐसी स्थिति का प्रबंधन करना सीखें और खुद को इस स्थिति से निपटने के लिए तैयार करें। साथ ही भूस्खलन संभावित जोन में लोगों की बसावट न हो, इससे नुकसान कम किया जा सकता है।
उधर, देहरादून स्थित मौसम विज्ञान केंद्र के निदेशक बिक्रम सिंह का कहना है कि मई और जून के महीने में जब उत्तराखंड में तेज गर्मी पड़ रही होती है तो बंगाल की खाड़ी की तरफ से आने वाले हवाएं अच्छी-खासी नमी लेकर पहुंचती हैं और तेज गर्मी के कारण उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में घने बादल बनाने में सफल हो जाती हैं। हालांकि उनका कहना है कि हर घटना को मौसम परिवर्तन से जोड़ना ठीक नहीं है।
उत्तराखंड वानिकी एवं औद्यानिकी विश्वविद्यालय भरसार के पर्यावरण विज्ञान विभाग के प्रोफेसर डॉ. एस.पी. सती पिछले कुछ वर्षों से मई और जून के महीने में होने वाली तेज बारिश की घटनाओं के लिए जलवायु परिवर्तन (क्लाइमेट चेंज) को बड़ी वजह मानते हैं। इसके साथ ही वे इस तरह की घटनाओं में स्थानीय कारकों को भी महत्वपूर्ण मानते हैं। प्रो. सती कहते हैं कि रविवार को हुई बारिश को बादल फटना तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन यह स्थिति असामान्य अवश्य है। वे कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में इस तरह की घटनाओं और उनकी तीव्रता बढ़ी है। ये न तो प्री-मानसून है और न ही पश्चिमी विक्षोभ। दक्षिण पश्चिम से आने वाली आर्द्रतायुक्त हवाएं और स्थानीय कारण मिलकर ऐसी परिस्थितियों का निर्माण कर रहे हैं।
सती कहते हैं कि ग्लोबल वार्मिंग के कारण पूरी धरती का तापमान बढ़ रहा है, लेकिन हिमालयी क्षेत्रों में तापमान बढ़ने की गति ग्लोबल एवरेज से अधिक है, यह कई शोधों से साबित हो चुका है। इसके लिए वे ग्लोबल वार्मिंग के साथ ही हिमालयी क्षेत्र के वनों में लगने वाली आग को भी एक बड़ा कारक मानते हैं। वे कहते हैं कि तेज गर्मी के बीच जब अच्छी नमी वाली हवाएं इस क्षेत्र में पहुंचती हैं तो घने बादलों का निर्माण करती हैं, जिससे तेज बारिश के होती है। हालांकि यह बारिश कुछ देर के लिए ही होती है, लेकिन इससे नुकसान अधिक हो जाता है। सती कहते हैं कि मई के अंतिम और जून के पहले सप्ताह में तेज गर्मी के कारण पहाड़ों में आर्द्रता लगभग शून्य हो जाती है। जंगलों के आग के कारण जमीन भी पूरी तरह खुश्क रहती है, ऐसे समय में 50 से 60 मिमी प्रति घंटा की रफ्तार से होने वाली बारिश भी इतना नुकसान कर देती है, जितना कि बादल फटने की घटना से होता है।