एक नई रिसर्च से पता चला है कि अगले कुछ दशकों तक एरोसोल भारत और दक्षिण एशिया में मॉनसून और बारिश के पैटर्न को प्रभावित करते रहेंगें। इनकी वजह से मॉनसून के दौरान होने वाली बारिश में कमी का दौर आगे भी जारी रह सकता है। लेकिन बाद में आगे चलकर मॉनसून पर ग्रीनहाउस गैसों का प्रभाव हावी हो जाएगा। वैज्ञानिकों के अनुसार यह एरोसोल ने केवल मॉनसून बल्कि मॉनसून से पहले और बाद में होने वाली बारिश पर भी असर डाल रहे हैं।
रिसर्च में यह भी सामने आया है कि स्थानीय एरोसोल बारिश के पैटर्न में आने वाले अधिकांश बदलावों की वजह बन रहे हैं। आइए समझते है कि क्या हैं यह एरोसोल और भारत में मॉनसून के दौरान और उससे पहले या बाद में होने वाली बारिश को यह कैसे प्रभावित कर सकते हैं।
हमारे चारों और हवा में अत्यंत महीन कण मौजूद होते हैं, जिन्हें ‘एरोसोल’ कहा जाता है। इनमें से कुछ प्राकृतिक गतिविधियों जैसे रेगिस्तानी धूल, ज्वालामुखी की राख, जंगल की आग, पौधों से मुक्त होते कार्बनिक पदार्थ आदि से पैदा होते हैं। वहीं कुछ के लिए इंसानी गतिविधियां जिम्मेवार होती हैं, जैसे शहरों से पैदा होता प्रदूषण, धूल, कृषि से पैदा होती धूल और धुंध, वाहनों और विमानों से होता उत्सर्जन और यहां तक की हमारे डिओडोरेंट और हेयरस्प्रे जैसे रोजमर्रा के उत्पाद भी इसका स्रोत होते है।
हालांकि आकार में यह एरोसोल अत्यंत छोटे होते हैं लेकिन यह हमारे ग्रह को बड़े पैमाने पर प्रभावित करते हैं। गौरतलब है कि ऐसा ही कुछ क्लोरोफ्लोरोकार्बन के मामले में भी देखें को मिला था जो एक प्रकार का एरोसोल है। इसने धरती के सुरक्षा कवच ओजोन परत पर गहरा प्रभाव डाला था, जो वैश्विक स्तर पर बड़ी चिंता का विषय बन गया था। बता दें कि यह परत हमें सूर्य की हानिकारक किरणों से बचाती है।
इतना ही नहीं वैज्ञानिकों के मुताबिक यह एरोसोल सूर्य के प्रकाश को रोक सकते हैं और गर्मी को फंसा सकते हैं, जिससे पृथ्वी और गर्म हो सकती है। यह एरोसोल बादलों के बनने के तरीके को भी प्रभावित कर सकते हैं जिससे धरती और भी गर्म हो सकती है। वहीं अब वैज्ञानिकों ने दक्षिण एशिया के मौसम पर भी मानव निर्मित एरोसोल के प्रभावों को दर्ज किया है।
रिसर्च से पता चला है कि हवा में एरोसोल का उच्च स्तर बारिश विशेषकर मॉनसून को कमजोर कर सकता है। शोधकर्ताओं ने इस बात की भी पुष्टि की है कि यह एरोसोल, ग्रीनहाउस गैसों की तुलना में बारिश को कहीं ज्यादा प्रभावित कर रहे हैं। इंस्टीट्यूट फॉर एटमॉस्फेरिक एंड क्लाइमेट साइंस, ईटीएच ज्यूरिख के डॉक्टर जितेंद्र सिंह द्वारा अंतराष्ट्रीय शोधकर्ताओं के सहयोग से किए इस अध्ययन के नतीजे जर्नल जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित हुए हैं।
अपने इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने अतीत के मौसम का अध्ययन करने और भविष्य के बारे में भविष्यवाणी करने के लिए एक विशेष कंप्यूटर मॉडल का उपयोग किया है, जिससे 1920 से 2080 के बीच दक्षिण एशिया में बारिश पर इनके प्रभावों को समझा जा सके। जहां वातावरण में एरोसोल का स्तर दुनिया में सबसे ज्यादा है।
भारत में कैसे बदल रहा मॉनसूनी समीकरण
अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इस बात की जांच की है कि ग्रीनहाउस गैसों में होती वृद्धि के साथ एरोसोल के वितरण में आता बदलाव दक्षिण एशिया में बारिश और मॉनसून के पैटर्न को कैसे आकार दे रहा है। अध्ययन में शोधकर्ताओं ने तापमान में होते वृद्धि और उत्सर्जन के लिए आरसीपी 8.5 परिदृश्य के आधार पर गणना की है।
रिसर्च के जो नतीजे सामने आए हैं उनके मुताबिक दक्षिण एशिया में स्थानीय स्तर पर बढ़ता एरोसोल का स्तर आने वाले वर्षों में बारिश में कमी को जारी रख सकता है। ऐसे में ग्रीनहाउस गैसों के कारण मॉनसून (जून से सितंबर) में जो वृद्धि के कयास लगाए गए हैं उनके प्रभाव सामने आने में कई दशकों का समय लगेगा। इसी तरह मॉनसून के बाद (अक्टूबर से दिसंबर) होने वाली बारिश में भी सुधार आने में करीब दस साल और लगेंगें। शोधकर्ताओं का मानना है कि 21वीं सदी के मध्य तक मॉनसून और उसके बाद बारिश में बढ़ोतरी देखने को मिल सकती है। रिसर्च के मुताबिक यह कण बारिश में 30 से 50 फीसदी तक की कमी का कारण बन सकते हैं।
देखा जाए तो न केवल भारत बल्कि दक्षिण एशिया के अन्य देशों के लिए भी मॉनसून के दौरान और उससे पहले या बाद में होने वाली बारिश बेहद मायने रखती है। इस बारिश में आती कमी इन क्षेत्रों के लिए बड़ी समस्या का सबब बन सकती है, क्योंकि इस क्षेत्र में न केवल जलापूर्ति बल्कि कृषि और अर्थव्यवस्था भी बड़े पैमाने पर मॉनसून और उसके दौरान होने वाली बारिश पर निर्भर करती है। ऐसे में इस क्षेत्र में बढ़ते एरोसोल को कम करने के लिए सख्त नियम और नीतियां बनाना बेहद जरूरी हैं।
यह इसलिए भी बेहद जरूरी है क्योंकि अनुमान है कि आने वाले दशकों में इस क्षेत्र एरोसोल का स्तर कहीं ज्यादा बढ़ सकता है। रिसर्च के अनुसार उत्तरी गोलार्ध में बड़े पैमाने पर मौजूद एरोसोल दक्षिण में भारत के मॉनसून को भी प्रभावित करते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि इन कणों द्वारा अंतरउष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र को जहां उत्तरी और दक्षिणी गोलार्ध में व्यापारिक हवाएं भूमध्य रेखा के पास मिलती हैं, उस क्षेत्र को दक्षिण की ओर धकेला जाता है। साथ ही यह इस जलवायु पैटर्न को कमजोर कर देता है, जिससे विशेष रूप से भारत में होने वाली बारिश प्रभावित होती है। इतना ही नहीं, एरोसोल का प्रकार, साथ ही उनका स्थानिक वितरण और दक्षता भी बारिश में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
बारिश के मौसम से पहले और बाद में, हवा में मौजूद एरोसोल का मुख्य स्रोत जलते पौधे और जीवाश्म हैं। बरसात के दौरान, यह ज्यादातर मानव निर्मित स्रोतों, धूल और समुद्र नमक के कारण अधिक बनते हैं। रिसर्च में यह भी सामने आया है कि 2049 तक दक्षिण एशिया के उत्तर-पश्चिमी हिस्सों में, फिर 2060 के दशक में मध्य और दक्षिणी भारत में, और 2079 तक दक्षिण एशिया में ज्यादातर हिस्सों में बारिश धीरे-धीरे बढ़ेगी। हालांकि एरोसोल पर ग्रीनहाउस गैसों के प्रभाव के चलते 2049 तक दक्षिण एशिया के मध्य, दक्षिण और पूर्वी हिस्सों में बारिश में होने वाली वृद्धि में देरी होगी।
हवा में कितने एरोसोल हैं, जिसे "एरोसोल ऑप्टिकल डेप्थ" या एओडी कहा जाता है उसे मापकर वैज्ञानिकों ने देखा कि 2020 के बाद से हवा में कम एरोसोल मौजूद हैं। उन्हें लगता है कि ऐसा उत्तरी अमेरिका, यूरोप और पूर्वी एशिया में हवा को लेकर बनाए नियमों के कारण हो सकता है।
शोधकर्ताओं को यह भी पता लगा है कि मॉनसून के दौरान जहां स्थानीय एरोसोल बारिश में कमी की वजह बने थे। वहीं दूर उत्तर में मौजूद एरोसोल के कारण पूरे दक्षिण एशिया में अधिक बारिश हुई। रिसर्च में इस बात की भी पुष्टि हुई है कि सदी के मध्य तक, मॉनसून के दौरान बारिश का पैटर्न एरोसोल की तुलना में ग्रीनहाउस गैसों से अधिक प्रभावित होगा, खासकर यदि आरसीपी 8.5 परिदृश्य के आधार पर देखें तो यह प्रभाव कहीं ज्यादा स्पष्ट होगा।