मध्य प्रदेश के झाबुआ जिले के सोंदवा प्रखंड में आने वाले बाहरी लोग खेतों की सिंचाई के लिए पहाड़ी पर चढ़ते पानी को देखकर अचंभित हो जाते हैं। इस अचंभित करने वाली तकनीक को भील आदिवासियों ने इस जगह की विशेष बनावट को देखते हुए विकसित किया है और यह स्पष्ट रूप से गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत को उलट देती है। इस प्रणाली के अंतर्गत पहाड़ी से नीचे बहते हुए पानी को खास तरह से सिंचाई-नालों की तरफ मोड़ दिया जाता है, जिन्हें पाट कहा जाता है।
नर्मदा नदी और कारी सोते के संगम पर स्थित भिटाडा गांव ने इस प्रणाली को सबसे अच्छी तरह अपनाया है। इस गांव के निवासी और पाट प्रणाली के जानकार कहारिया रणसिंह कहते हैं,“बखतगढ़ के राजा के बेगार से बचने के लिए मेरे दादा और उनके भाइयों ने अरहा गांव, जो पहाड़ी के ऊपर स्थित था, छोड़ दिया और यहां आकर बस गए।” इस गांव के घर एक साथ नहीं बने हैं। लोगों ने कारी के दोनों तटों पर अपने घर अपने-अपने खेतों में बनाए हैं। ये करीब तीन किमी. तक फैले हुए हैं। ये खेत मकई और चने की फसलों के कारण काफी हरे-भरे हैं, जिनकी सिंचाई करीब चार किमी. लंबे पाट में होती है, जो ऊपर की तरफ से आ रहे सोते से बनाया गया है।
गांव के एक युवा किसान बनसिंह गुलाबसिंह बताते हैं, खरीफ की फसल (बाजरा और मकई) की कटाई के बाद हर परिवार एक आदमी को पाट की मरम्मत और बांध के लिए भेजता है। यह काफी कठिन और मेहनत का काम है। पानी की दिशा परिवर्तन करने वाले बांध को तैयार करने की विधि काफी जटिल है। पहले पत्थरों का ढेर लगाया जाता है, फिर उन्हें सागौन की पत्तियों और मिट्टी को रखकर जोड़ा जाता है, जिससे पानी रिसकर बाहर न जाए। पाट को छोटे-छोटे नालों और खड़ी चट्टानों को संभालते हुए खेतों तक पहुंचना होता है। मानसून के दिनों में ये हिस्से पानी में बह ही जाते हैं।
नालों से इन्हें बचाने के लिए चट्टानों से निर्मित कृत्रिम जल-प्रणाल बनाए जाते हैं। जिस तरह से खड़ी चट्टानों के किनारों को काटकर ये पतले नाले बनाए जाते हैं, यह एक अचंभे वाली बात है। इन नालों पर हर समय ध्यान देना पड़ता है। जो परिवार जिस दिन अपने खेतों की सिंचाई करता है, उसी पर उस दिन की देखभाल की जिम्मेदारी होती है। इस को काम करने योग्य बनाने में दो सप्ताह का समय लगता है। जाड़े की फसलों की बुआई नवंबर महीने में की जाती है।
चेलार सिंह औरों से दोगुनी मेहनत करते हैं। नर्मदा नदी अपनी तलहटी में स्थित उनके खेत में मानसून के महीनों के खत्म होने पर काफी मिट्टी छोड़ जाती है, जिसे साफ करना पड़ता है। वह अपने घर के पास भी एक छोटे से खेत में खेती करते हैं।
वह और उनके सभी भाई मिलकर कारी की धारा के प्रतिकूल दिशा में बांध बनाते हैं। यह बांध कारी और नर्मदा के संगम पर है। फिर वे पत्थरों का पाट तैयार करते हैं जिसमें सागौन की पत्तियां और मिट्टी लेती जाती है। पानी को मोड़कर नई मिट्टी से भरे खेत में ले जाया जाता है। बीच रास्तेेे में जहां गड्ढे या दरारें आती हैं, वहां पानी को पेड़ों की खोखली डालों में भरकर दूसरी ओर ले जाया जाता है। चेलार सिंह कहते हैं, “पहले जब हमारे पूर्वजों ने पाट को अपनाया तो उन्होंने जल्दी ही उसे छोड़ दिया, क्योंकि उन दिनों काम करने वाले लोगों की कमी थी। अब जबकि हमारे बेटे बड़े हो गए हैं, हम अधिक लोगों को काम पर लगा सकते हैं। पिछले पांच सालों में हम 100 हेक्टेयर में दो फसलें उपजाने में सफल हुए हैं।”
पर दुखद बात यह है कि नर्मदा नदी पर सरदार सरोवर बांध के निर्माण से भिटाडा के डूब जाने की आशंका है। स्थानीय लोग सरकार के इस फैसले पर नाराज हैं, क्योंकि काफी मेहनत के बाद यहां के खेत अच्छी फसल की पैदावार करने लगे थे।
भिटाडा से 8 किमी. ऊपर पहाड़ी में स्थित है काराबाड़ा-पर्वतमाला, जो कारी और कारा की जल व्यवस्थाओं को अलग करती है। कारा के जल ग्रहण क्षेत्र के वन कारी के मुकाबले ज्यादा कट गए हैं। काराबाड़ा को यहां के आदिवासी पूजनीय स्थल मानते हैं। बहुत दूरदराज के इलाकों से आदिवासी इस पर्वतमाला की चट्टानों को पूजने आते हैं। काराबाड़ा सिर्फ दो भौगोलिक व्यवस्थओं को ही अलग नहीं करती है, बल्कि दो भिन्न नजरियों के बीच विभाजन भी है। कारा के जल ग्रहण में स्थित दो गांवों-गेंद्रा और अट्ठा के लोगों ने वनों को बचाने के लिए अपने आपको एकजुट कर लिया है। इसके अलावा, लोगों ने कारा पर एक बांध बना लिया है जो खेतों को पाटों से सींचने में सहायक हो रहा है। और तो और, उन्होंने मिट्टी के कटाव को रोकने के लिए कई बांध भी बनाए हैं।
गुहटिया नैकड़ा कहते हैं, “हममें से करीब बीस लोगों ने अट्ठा और गेंद्रा में एकजुट होकर “लास” पद्धति (पारंपरिक श्रमिक दल बनाने की प्रक्रिया) के द्वारा अपने खेतों के बीच गहरे नालों को पाटने का काम किया है। इस तरह मैंने पिछले दस सालों में एक एकड़ सीढ़ीदार खेत बनवाने में सफलता हासिल की है।” अब उनके पास स्वयं के द्वारा तैयार किए गए खेत के लिए पाट द्वारा सिंचाई की पूरी व्यवस्था है। आज वह मकई, चना और कपास की खेती कर रहे हैं। मध्य प्रदेश के पहाड़ी इलाकों में बसे झाबुआ और खरगोन और महाराष्ट्र के धुलिया जिले में बसे गांवों के भील सिंचाई की यही तकनीक अपना रहे हैं।
विंध्य और सतपुड़ा के भील, जो नर्मदा के किनारे रहते हैं, पारंपरिक रूप से टिककर खेती नहीं करते थे। सन 1956 में झाबुआ, धार और खरगोन मध्य प्रदेश राज्य में शामिल हुए। मध्य प्रदेश सरकार ने जगह बदल-बदल कर और जंगल जलाकर की जाने वाली खेती पर रोक लगा दी और भीलों को स्थायी रूप से उनकी जमीन पर, जहां वे खेती किया करते थे, बसाया। वनों की देखरेख का कार्यभार वन विभाग को सौंप दिया गया। बाद में, वन विभाग ने वनों का व्यावसायिक दोहन शुरू कर दिया।
इन सभी नीतियों का जनजातियों पर बहुत बुरा असर पड़ा। तीखी ढलान वाली जमीन पर जबरन बसने, खेतों से खराब उपज, वनों के विनाश और खेती के वाणिज्यीकरण से उनकी आर्थिक जिंदगी बिगड़ गई। ऐसे हालात से भीलों को उपज बढ़ाने के लिए अलग तरह के उपायों पर सोचने को मजबूर किया होगा। लेकिन किसने सिंचाई पहली बार शुरू की, यह कोई ठीक से नहीं जानता। बड़ी वैगलगांव के 70 वर्षीय किसान चेना अंजहरिया, जिसने अपनी जवानी में अपना पाट बनाया था, के अनुसार, “एक दिन मुझे ऐसा लगा कि पानी को मेरे खेतों में लाया जा सकता है। मैंने तुरंत ही पास के सोते को ध्यान से देखना शुरू किया।” ऐसा माना जा सकता है कि यह खोज किसी सांयोगिक घटना पर चिंतन-विश्लेषण का परिणाम है। बाकी का काम नई कठिन परिस्थिति के दबाव ने किया होगा।
सबसे रहस्यमयी बात यह है कि अनपढ़ भीलों ने, बिना किसी सर्वेक्षण के उपकरणों की सहायता से, सही-सही उस स्थान को चुना जहां पानी की दिशा मोड़ने वाले बांध को बनाना सबसे उपयोगी है। भील अपनी इस कला को अन्य कलाओं की तरह भगवान की देन मानते हैं। धार जिले के कटरखेड़ा गांव के निवासी भुवन सिंह का गांव में 4 किमी. लम्बा पाट है। वह दावा करते हैं, “भगवान की सहायता के बिना ऐसा कुछ भी करना हमारे लिए संभव नहीं है।”
पिछले चार दशकों में भीलों ने जमीन और पानी के संचालन की स्वदेशी तकनीक तैयार की है, जो राज्य की विनाशकारी नीतियों से उन्हें सुरक्षा प्रदान करती है। पर हाल में सरकार ने अदूरदर्शिता दिखाते हुए उन पर इन स्वदेशी तकनीकों को छोड़ने के लिए जोर देना शुरू किया हैं। पाट प्रणाली के विकास की कहानी कुछ और तथ्य सामने लाती है।
वन विभाग के द्वारा बड़े पैमाने पर की गई वन की कटाई ने झाबुआ जिले और धार एवं खरगोन जिलों के कुछ जगहों को 1970 के दशक के मध्य में दीर्घकालिक रूप से निरंतर सूखा के अंदेशे वाला इलाका बना दिया था। सरकार के सूखा राहत कार्यक्रमों में इन जगहों पर विशेष ध्यान दिया गया। इनके अंतर्गत मिट्टी के बांधों के निर्माण पर ज्यादा जोर दिया गया था।
पिछले दो दशकों के अनुभव बताते हैं कि सिंचाई के लिए बने ऐसे बांध खर्च के हिसाब से महंगे ही साबित हुए हैं। इनसे गाद के जमा होने की दर और बढ़ गई है, और करीब 60 प्रतिशत पानी इस्तेमाल होने से पहले ही बेकार हो जाता है। शायद ही कहीं कमांड क्षेत्र भी 100 हेक्टेयर से बड़े हैं। इस योजना में भारी कमियां हैं। बड़ी योजनाओं की तरह घूस की कमाई न होने से सरकारी कर्मचारियों-अधिकारियों की इसमें ज्यादा दिलचस्पी नहीं है। इन सबसे बड़ी अपव्ययपूर्ण योजना 1989 में प्रारंभ की गई है। पहली, एक बहुत बड़ी लिफ्ट सिंचाई की योजना शुरू की गई है।
इसके अंतर्गत सामूहिक सिंचाई की योजना पर जोर दिया गया है, जिसमें सौ से ज्यादा सदस्यों और बिजली से चलने वाली मोटरों (150 हार्स पावर और ज्यादा) को उपलब्ध कराया गया है। चूंकि वनों की कटाई बहुत बड़े स्तर पर की गई थी, इसलिए जंगली सोतों में अब पानी भी कम आता है। इसके कारण सिर्फ पांच वर्षों में ही यह योजना असफल होने लग गई है। डीजल और बिजली की कमी के कारण इन पर और भी बुरा असर पड़ा है।
झाबुआ जिले के गेदा गांव के निवासी दिलू सिंह कहते है, “आज गोदा-चिखली में 31 पंप सेट हैं, और हम एक-दूसरे से उस कारा से पानी लेने के लिए झगड़ते रहते हैं जो अब बिल्कुल सूख चुके हैं।”
अट्ठा गांव के पाटखेत टोले, जो नाम यहां के एक लंबे पाट के चलते पड़ा, के लोगों को इस पाट को छोड़ने के लिए लुभाया गया था, और यहां 1991 में सामूहिक सिंचाई की योजना शुरू की गई थी। आज वहां के लोग इस फैसले से नाखुश हैं।
ऐसे भी लोग हैं जिन्होंने सरकार को अपनी नीति बदलने पर जोर दिया है। वाकनेर पंचायत के लोगों ने जवाहर रोजगार योजना के तहत समोच्च (कंटूर) बांध को बनाने का काम शुरू किया है। पर उन्हें रोजगार की योजना के अंतर्गत कोई मदद नहीं मिली है। झाबुआ के कलेक्टर, मनोज झलानी कहते हैं कि सरकारी पैसा सिर्फ उस सरकारी एजेंसी या स्वयंसेवी संस्थाओं को दिया जा सकता है, जो इसका सही ढंग से उपयोग कर सकें। इसके फलस्वरूप अधिकतर धन नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण को दिया गया है।
इन विपरीत परिस्थितियों के बावजूद विंध्य के भील अपना रास्ता बनाने में लगे हैं। पाट के अंदर आने वाली जमीन दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है। इन लोगों ने इस बदहाल जलवायु में स्थितियों को अपने अनुकूल बनाने और इस बदहाली को रोकने में अपना कौशल लगाकर ही इस तकनीक को ईजाद किया है। (“बूंदों की संस्कृति” पुस्तक से साभार)