अक्टूबर 2018 को संयुक्त राष्ट्र द्वारा दिया जाने वाला “चैंपियंस ऑफ द अर्थ” पुरस्कार स्वीकार करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा “हम वो लोग हैं, जिन्होंने प्रकृति को सजीव और सहजीव माना है।” लेकिन देश की जमीनी सच्चाई इससे काफी अलग है। आज पर्यावरण और प्रकृति को मात्र दोहन की वस्तु के रूप में देखा जा रहा है, जिसका मकसद केवल मानव जाति और उसमें भी जो ताकतवर और सम्पन्न वर्ग हैं, उनकी जरूरतें पूरी करना ही है। हमारी नदियां इसका एक अच्छा उदाहरण हैं। हम नदियों में तरह-तरह के हस्तक्षेप कर चुके हैं, जिनके चलते अधिकतर नदियां सूख गईं हैं या गंदे नाले में तब्दील हो चुकी हैं। नदियों के पाट हर तरह के अतिक्रमण के कारण सिकुड़ गए हैं और गैरकानूनी, अनियंत्रित रेत खनन के कारण उनकी जलवहन क्षमता को क्षति पहुंची है। इस सब के चलते नदियों की पारिस्थितिकी और नदियों पर निर्भर समुदायों की जीविका बुरी तरह से प्रभावित हुई है। नदियों की हालत देखकर पर्यावरण के प्रति जिस संवेदनशीलता का जिक्र मोदी ने किया, वह असल में विपरीत दिखाई देता है।
इस स्थिति को बदलकर बेहतर बनाने के बदले, सरकार नदियों में और बड़े हस्तक्षेप करने पर तुली हुई है, जिससे नदियों की यह स्थिति बद से बदतर होने की आशंका है। पिछले कई दशकों से बड़े बांध नदियों के दोहन और उन्हें खत्म करने के साधन बन रहे हैं। नदी जोड़ो परियोजना इसी कड़ी को आगे बढ़ाने वाली योजना है। अब एक नई परियोजना सामने आई है, जो हमारी नदियों पर बड़ा हमला साबित हो सकती है। यह है राष्ट्रीय अंतर्देशीय जलमार्ग परियोजना।
मार्च 2016 को भारतीय संसद में राष्ट्रीय जलमार्ग अधिनियम पारित किया गया। इसके चलते 111 नदियों या उनके कुछ हिस्सों को राष्ट्रीय (अंतर्देशीय) जलमार्ग घोषित किया गया है। इस कानून के पारित होने पर इन जलमार्गों पर यन्त्रनोदित जलयानों के द्वारा नौ-परिवहन और यातायात के विकास और नियंत्रण के सारे अधिकार केंद्र सरकार के अधीन हो गए हैं। इस योजना का मकसद है बड़े पैमाने पर नदियों में पोत परिवहन का विकास जिससे बड़े जहाजों पर माल की ढुलाई और यात्री परिवहन की आर्थिक संभावनाओं का लाभ उठाया जा सके। इन नदियों में सदियों से चल रही छोटी नौकाओं द्वारा, आमतौर पर पास के क्षेत्रों को जोड़ते हुए परिवहन का पूरा स्वरूप बदल जाएगा। इन अंतर्देशीय जलमार्गों का सबसे महत्वपूर्ण फायदा यह बताया जा रहा है कि रेल और सड़क यातायात के मुकाबले इस तरह के यातायात से ईंधन कम खर्च होगा और ये पर्यावरण को कम क्षति पहुंचाएंगे। सरकार इस दावे को एक अटल सत्य के रूप में पेश कर रही है। पर यह लाभ किसी भी लिहाज से सुनिश्चित और स्वतः स्फूर्त नहीं है। यह लाभ कुछ विशेष परिस्थितियों और कुछ निश्चित शर्तें पूरी होने की स्थिति में ही अर्जित होंगे। सारे जलमार्ग लाभदायी हों ऐसा जरूरी नहीं है। इन लाभों का स्तर अलग-अलग होगा और प्रस्तावित जलमार्गों में से कुछ आर्थिक रूप से भी अव्यावहारिक हो सकते हैं। यह बात भी महत्वपूर्ण है कि जलमार्गों के अनेक सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभाव है जिनका आकलन नहीं किया जा रहा है।
नदियों को इस तरह के जलमार्गों में परिवर्तित करने के लिए कई हस्तक्षेप करने पड़ते हैं। जलमार्ग विकास के लिए नदियों में अपेक्षित गहराई और चौड़ाई वाला नौ-परिवहन मार्ग बनाने की जरूरत पड़ती है ताकि बजरों (माल ढोने वाली बड़ी नाव) पर माल की ढुलाई हो सके। मगर हमारे देश की अधिकतर नदियों में प्राकृतिक रूप से इतनी गहराई कई हिस्सों में नहीं है। अतः यह गहराई बनाई जाएगी। नदियों को गहरा करने के लिए या तो नदी तल की कटाई या खुदाई की जाती है, जिसे ड्रेजिंग कहा जाता है, या फिर जगह-जगह पर बैराज बनाए जाते हैं। इसके अलावा, बजरों और नौकाओं के सुरक्षित आवागमन के लिए नदियों को सीधा करना पड़ता है। तटों को सुरक्षित रखने के लिए काम करना पड़ता है और अन्य बाधाओं जैसे कम ऊंचाई वाले पुलों को हटाने की व्यवस्था करनी पड़ सकती है। जलमार्गों पर घाटों, नदी-बंदरगाहों, टर्मिनल, संपर्क सड़कों आदि सहायक बुनियादी ढांचे की भी जरूरत होगी। ये सारे पहलू नदियों में बड़े स्तर पर हस्तक्षेपों को दर्शाते हैं, जिसके प्रभाव भी व्यापक हो सकते हैं। नदियों की पूरी पारिस्थितिकी, जीव जंतु, वनस्पति, मछलियां सभी बड़ी मात्रा में प्रभावित होंगी। सबसे ज्यादा स्थानीय समुदाय जैसे मछुआरों की आजीविका प्रभावित होगी।
विडम्बना तो यह है कि इतने सारे प्रभाव होने के बावजूद जलमार्ग बनाने और चलने के लिए पर्यावरणीय मंजूरी की कोई आवश्यकता नहीं है। केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय का राष्ट्रीय हरित अधिकरण में कहना है कि चूंकि जलमार्ग “पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना 2006” की सूची में शामिल नहीं है, अतः कानूनी रूप से बंधनकारी पर्यावरणीय मंजूरी जरूरी नहीं है। हालांकि पर्यावरण मंत्रालय के इस बहाने में कोई तुक नहीं है क्योंकि पर्यावरण प्रभाव आकलन अधिसूचना 2006 की सूची में जलमार्गों के कुछ हिस्से जैसे ड्रेजिंग शामिल है, भले ही मंत्रालय उस पर अमल करने में झिझक रहा हो। दूसरा, यह सूची भी खुद पर्यावरण मंत्रालय ही बनाता है। तीसरा, मंत्रालय की खुद की विशेषज्ञ समिति ने यह सिफारिश की है कि जल मार्गों को उनके सभी हिस्सों के साथ इस सूची में शामिल करना जरूरी है। हालांकि कुछ जलमार्गों के लिए पर्यावरणीय मंजूरी के लिए आवेदन किया गया है और मंत्रालय ने इस प्रक्रिया को भी जारी रखा है, पर जिन जलमार्गों के लिए आवेदन नहीं किया है, उन पर काम शुरू है और ऐसे जलमार्गों पर निर्माण कार्य चलने पर मंत्रालय ने या सरकार ने कोई आपत्ति भी नहीं उठाई है। पर्यावरण मंत्रालय के ऐसे ढुलमुल रवैये के चलते कई सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभाव के बावजूद जलमार्गों पर कार्य जोरों से चल रहा है।
हाल ही में भारतीय अंतर्देशीय जलमार्ग प्राधिकरण ने बताया कि कैसे कोयले की राख से लदे हुए जहाज ने बिहार से असम की यात्रा बांग्लादेश होते हुए सफलतापूर्वक पूरी की। यह भी खबर आई है कि इस जहाज ने बांग्लादेश में कई जगह मछुवारों के नदी में बिछाए जाल तोड़ दिए, और इसके कारण जहाज पर इन मछुआरों ने हमला भी किया। गंगा के निचले क्षेत्रों में डॉल्फिन पर अध्ययन कर रहे एक जाने माने विशेषज्ञ व शोधकर्ता नचिकेत केलकर ने कहा है कि भारत का राष्ट्रीय जलपशु गंगाई डॉल्फिन ड्रेजिंग और नौ-परिवहन के प्रभावों से खतरे में है। इसी तरह से कई और प्रभाव हैं जिनको अनदेखा करते हुए इन जलमार्गों को कार्यान्वित किया जा रहा है।
एक और गंभीर बात है कि जलमार्ग विकास से सबसे ज्यादा प्रभावित होने की सम्भावना स्थानीय जनता को है। इसके बावजूद जलमार्ग के विकास से संबंधित ज्यादातर कामों के आयोजन और क्रियान्वयन के लिए न तो इनकी सलाह ली गई है, और न ही इनके बारे में जनता को जानकारी दी गई है। कुल मिलाकर इन जलमार्गों के सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों का ठीक से आकलन नहीं हुआ है, ऊपर से इन्हें पर्यावरणीय मंजूरी के दायरे से बाहर रखा गया है और सारी प्रक्रिया में लोगों की सहभागिता का भी पूरा अभाव है। ऐसे में जलमार्गों के रूप में इतना बड़ा हस्तक्षेप हमारी नदियों पर एक और बड़ा हमला है जो पहले से बुरी हालत में हैं। (लेखक गैर लाभकारी संस्था मंथन से जुड़े हैं)