22 मार्च को विश्व जल दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस मौके पर पूरी दुनिया पानी की महत्ता और उसे बचाने के उपायों पर बात करती हैं। इस विशेष आयोजन से पूर्व डाउन टू अर्थ द्वारा पानी से जुड़े विभिन्न मुद्दों से संबंधित रिपोर्ट्स की सीरीज प्रकाशित की जा रही है। इस सीरीज की पहली कड़ी में आपने पढ़़ा भारत में किस तरह पानी की मात्रा घट रही है। दूसरी कड़ी में पढ़ें कि कैसे भूजल स्तर को कम होने से बचाया जा सकता है । जल संरक्षण को महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) के तहत खासी तवज्जो दी गई है। इसकी हकीकत जानने के लिए डाउन टू अर्थ ने 15 राज्यों के 16 गांवों का दौरा किया। मध्यप्रदेश के टीकमगढ़ के गांव के अलावा सीधी जिले के गांव की कहानी आप पढ़ चुके हैं। आज पढ़ें, राजस्थान के डूंगरपुर जिले के गांव की कहानी-
राजस्थान के डूंगरपुर जिले के बटका फाला गांव में रहने वाले मुकेश और चेतनलाल 30 साल की उम्र तक पढ़ाई के दौरान मनरेगा में काम करते रहे। अब वह पंचायत में एलडीसी (लोअर डिविजन क्लर्क) और ई-मित्र बन चुके हैं। आसपास के गांवों में ऐसे ढेरों उदाहरण हैं। मनरेगा ने डूंगरपुर के किसानों की रोजमर्रा की जरूरतें ही पूरी नहीं की हैं बल्कि मुकेश और चेतनलाल जैसे गांव के प्रगतिशील युवाओं को भी विकास के पथ पर भी अग्रसर किया है। मुकेश मनरेगा में ग्राम रोजगार सहायक के रूप में 2,500 रुपए के वेतन पर काम शुरू किया था। ग्रामीण मानते हैं कि मनरेगा से उनकी आमदनी बढ़ी है जिससे बच्चों की जीवनशैली बेहतर हुई है।
53 साल के देवीलाल गोहरा के परिवार में 6 लोग हैं और वह मूलभूत जरूरतें पूरी करते हुए मोटरसाइकल लेने में सक्षम हुए हैं। डूंगरपुर में व्यक्तिगत लाभ के अलावा कंटोर, अनीकट, तालाबों का विकास, डीसिल्टिंग और पुरानी संरचनाओं के पुनरोद्धार जैसे जल संरक्षण के बहुत से सामुदायिक कार्य भी हुए हैं। पानी के संरक्षण से खेतों में उपज बढ़ी है। चेकडैम में काम कर रही 36 साल की देवली बताती हैं कि इसके बनने से खेत को पानी मिलने लगेगा। वह सब्जियां उगाकर बच्चों को बेहतर शिक्षा देने के लिए पैसा कमा सकेंगी। चेकडैम के काम में लगी 9 महिलाएं और 5 पुरुष बिलकुल ऐसा ही मानते हैं।
डूंगरपुर में जिला परिषद की सीईओ अंजली राजोरिया के अनुसार, यह जिला पथरीला और पहाड़ी इलाका है और यहां खेती के लिए बहुत कम जमीन है। खेती का एक बहुत छोटा हिस्सा राजस्थान के दक्षिणी छोर पर है। जिले की 70 प्रतिशत आबादी अनुसूचित जनजाति है। राजोरिया कहती हैं कि यहां पानी के लिए संघर्ष करने वाली महिलाओं की अधिकांश आबादी को मनरेगा ने आत्मनिर्भर बनाया है। जिले में यह 2006 में लागू हो गया था। जिले में 710 एमएम बारिश होती है लेकिन यहां नियमित अंतराल पर सूखा पड़ता है। आंकड़े बताते हैं कि जिले में बारिश 22 प्रतिशत तक कम हो गई है।
जिला कलेक्टर सुरेश ओला बताते हैं कि शुद्ध बुवाई क्षेत्र केवल 31 प्रतिशत होने के बावजूद मनरेगा से बने जल संरक्षण के ढांचों की मदद से करीब तीन फसलें होने लगी हैं। धान, गेहूं, चना यहां प्रमुखता से उगाया जा रहा है। पहले केवल फसल चने की फसल ही प्रमुखता से होती थी क्योंकि यह पहाड़ी क्षेत्र में आसानी से उग जाती है और इसमें पानी भी कम लगता है। 28 साल के हीरालाल अपने छोटे से खेत में चना उगाते थे जिससे साल में 100 किलो की पैदावार होती थी। मनरेगा से उनके खेत को समतल किया गया जिसके बाद वह गेहूं के साथ सब्जियों भी उगाने लगे हैं। उनका कहना है कि अब खेत से 4 क्विंटल गेहूं हो जाता है और परिवार को बाहर से गेहूं खरीदने की जरूरत नहीं पड़ती। इससे उन्हें साल में 10 हजार रुपए की बचत हुई है क्योंकि पहले उन्हें गेहूं 20 रुपए प्रति किलो के भाव से खरीदना पड़ता था।
डूंगरपुर में पहले वर्ष यानी 2005-06 में 1.51 करोड़ रुपए खर्च कर जल से संबंधित कुल 14 काम किए गए। 2007-08 से काम में तेजी आई और इस साल 40 करोड़ रुपए खर्च 472 कार्य हुए। सबसे अधिक कार्य का रिकॉर्ड 2012-13 में बना। इस वर्ष 3,344 कार्यों के लिए कुल 47 करोड़ रुपए खर्च किए गए। हालांकि सबसे अधिक खर्च 2013-14 में हुआ। इस साल कुल 137 करोड़ रुपए व्यय कर जल से संंबंधित कार्य हुए। वर्तमान वर्ष तक कुल 15,751 कार्य किए जा चुके हैं। इन कार्यों पर 709 करोड़ रुपए से अधिक धनराशि खर्च हुई और 6.97 करोड़ मानव दिवस सृजित किए गए हैं।
जिले में मनरेगा के पहला काम 2006 में अनिकट के निर्माण से शुरू हुआ। यह अनिकट पाल देवल गांव में गोदल नदी पर बनाया गया था। अपने पशुओं के साथ घूम रही 35 साल की अमराई का दावा है कि इससे पानी की उपलब्धता बढ़ी है। उन्हें पहले पानी की तलाश में घंटों भटकना पड़ता था। अनिकट के निर्माण से पिछले कुछ सालों में जल स्तर भी 150 फीट से घटकर 100 फीट पर आ गया है। इस अनिकट की क्षमता 4,000 क्यूबिक मीटर की है और यह 300 एकड़ के कमांड एरिया को फायदा पहुंचाता है।
बटका फाला गांव में सरपंच पति प्रमोद कोटेड दावा करते हैं कि केवल एक अनिकट से तीन फसलें करने में मदद मिल रही है और लोग गेहूं और धान उगाकर अपनी वार्षिक जरूरतें पूरी कर रहे हैं। प्रमोद के पिता ने मनरेगा में काम करके ही उन्हें शिक्षित किया है। उनका कहना है कि गांव में ऐसी 12 जल संरचनाएं हैं जो करीब 296 हेक्टेयर मीटर में फैली हैं। इनका फायदा होते देख अब वे सरकार के साथ मिलकर ऐसी अन्य संरचनाएं बनवा रहे हैं। ग्राम सभा में अब ऐसी संरचनाओं की मांग उठ रही है और इनका प्रस्ताव खंड विकास अधिकारी (बीडीओ) को भेजा जा रहा है। इस काम में समुदाय का भरपूर साथ मिला है।
डूंगरपुर ब्लॉक को कभी डार्क जोन में शामिल किया था जिसकी स्थिति में काफी सुधार हुआ है। दो किलोमीटर से अधिक क्षेत्र में फैला बोलाधारा तालाब ऐसी संरचनाओं का उम्दा उदाहरण है। बहुत से ग्रामीणों के खेतों को इस तालाब से पानी मिल रहा है। इस तालाब में सिंचाई के लिए पूरे साल पानी रहता है और आसपास के गांवों की मिट्टी को नमी भी मिलती है। सूचना, शिक्षा एवं संचार (आईईसी) संयोजक महेश जोशी का दावा है कि इससे समुदायों के बीच नजदीकी बढ़ी है और वे एक साथ अधिक पर्व मना रहे हैं।
गांव के लोगों को वो दिन अब भी याद हैं जब सड़कें नहीं थीं। उन्हें मरीजों को चारपाई पर लेकर नजदीकी अस्पताल पहुंचना पड़ता था। इसमें घंटों लग जाते थे। अब सड़कें बन चुकी हैं और लोगों की मूलभूत सेवाओं तक पहुंच आसान हो गई है। ग्रामीण अब मूलभूत जरूरतों के लिए पलायन नहीं करते। अब आकांक्षाओं और आगे बढ़ने के मकसद से ही पलायन होता है।