फरवरी में जब समूचा विश्व रामसर समझौते को याद करते हुए नम-भूमि (वेटलैंड) को बचाने के लिए याद करता है, तब भारत जैसा देश पोखर, चंवर, तालाब आदि की बदहाली पर आंसू बहाता है।
देश में अस्सी रामसर साइट हैं लेकिन प्रकृति के जल चक्र को शुद्ध करने वाली ये किडनियां मरणासन्न हालत में हैं। मानव की इसी प्रवृति पर ओजोन परत पर महत्वपूर्ण काम के लिए रसायन विज्ञान में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित शेरवुड़ रोलैंड की टिप्पणी सटीक बैठती है, “सटीक पूर्वानुमान लगा लेने की विज्ञान की प्रगति का क्या फायदा, अगर अंत में हम सिर्फ खड़े रहकर उसे सच होने का इंतजार करने के अलावा और कुछ करने को तैयार नहीं है।”
जलवायु परिवर्तन के दौर में वैश्विक स्तर पर सूखा प्रभावित क्षेत्र का दायरा बढ़कर कुल भू-भाग का लगभग आधा हो चुका है। संतुलित जल चक्र में वेटलैंड्स की भूमिका महत्वपूर्ण है। जल संग्रहण, भूजल स्तर को बनाए रखने और पानी की सफाई तक में इसकी भूमिका है, तभी तो इन्हें प्रकृति के किडली का दर्जा दिया गया है। बाढ़ का पानी अपने में समेटकर ये फ्लड वाटर हार्वेस्टिंग का काम करते हैं और इंसानी आबादी को बाढ़ से बचाने में मददगार हैं। मौसम परिवर्तन की घटनाएं जैसे बाढ़ और सूखे से निपटने में वेटलैंड्स सहायक हैं। 1970 के बाद मानव गतिविधियां वेटलैंड पर कहर बनकर टूटी हैं और दुनिया के 35 प्रतिशत वेटलैंड खत्म हो गए हैं। भारत में पिछले चार दशक में करीब एक तिहाई जैव-विविधता से भरे वेटलैंड्स शहरीकरण और कृषि भूमि के विस्तार में गुम हो गए।
संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रकाशित “ग्लोबल लैंड आउटलुक” रिपोर्ट के मुताबिक, भू-क्षरण प्रभावित क्षेत्र 20 प्रतिशत तक बढ़ चुका है, जो आकार में अफ्रीका महाद्वीप के बराबर बैठता है। आज एक बड़ी आबादी भूमि की नमी में हो रहे कमी के कारण सूखे की चपेट में है और नतीजा जीवन यापन की तलाश में व्यापक स्तर पर विस्थापन है। पर्यावरणीय संकट के चलते सालाना हो रहे दो करोड़ से अधिक विस्थापन में भू-क्षरण, सूखा और पानी की कमी प्रमुख कारण हैं। अपनी हालिया रिपोर्ट में संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2050 तक ऐसे विस्थापन में कई गुणा वृद्धि की आशंका जाहिर की है।
सूखे और मरुस्थलीकरण से सबसे ज्यादा प्रभावित क्षेत्र मुख्य रूप से अफ्रीका, मध्य-पूर्व के देश, भारत और ऑस्ट्रेलिया हैं, साथ ही अधिकांश प्रभावित आबादी कम विकसित और विकासशील देशों में हैं। भारतीय संदर्भ में भूमि-क्षय और मरुस्थलीकरण के मुख्य कारणों में जल-अपरदन, हरित आवरण में कमी और वायु अपरदन शामिल है। वैश्विक औसत 11 प्रतिशत के मुकाबले भारतीय क्षेत्र के लगभग 51 प्रतिशत भू-भाग पर खेती की जाती है जिस पर 1.4 अरब जनसंख्या के अलावा 53.6 करोड़ पशु भी निर्भर हैं। इसरो के हालिया अध्ययन के अनुसार, पिछले डेढ़ दशक में भारत में लगभग 30 लाख हेक्टेयर की वृद्धि के साथ भूमि-क्षय का दायरा बढ़कर कुल भूमि का 29.7 प्रतिशत (राजस्थान, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के संयुक्त क्षेत्रफल 9.58 लाख वर्ग किमी से अधिक) तक जा पहुंचा है। वहीं उसी अवधि में मरुस्थलीकरण से प्रभावित दायरा भी 20 लाख हेक्टयर से ज्यादा फैला है। कुछ राज्यों को छोड़कर लगभग सारा भारतीय भूभाग भूमि क्षरण और मरुस्थलीकरण से प्रभावित है।
असमान बारिश
भारत के एक तिहाई भाग में 750 मिलीमीटर से कम बारिश, दूसरे एक-तिहाई भाग में मात्र 750-1,125 मिलीमीटर बारिश होती है। कुल बारिश का तीन- चौथाई मात्र 80 दिन में ही हो जाती है। पानी की असमान उपलब्धता, चरम मौसमी परिस्थितियां और अनियमित मॉनसून के कारण मिट्टी की नमी में लम्बे समय तक कमी खासकर महाराष्ट्र, गुजरात और राजस्थान जैसे पश्चिमी राज्यों में सुखाड़ का कारण बन रही है। दूसरी तरफ खाद्यान्न सुरक्षा के मद्देनजर पिछले पांच दशक में फसलों के प्राकृतिक चक्र में आमूलचूल परिवर्तन आया है, साथ ही अत्यधिक रसायन और सिंचाई आधारित कृषि चलन में है, खासकर पश्चिमोत्तर भारत में तो भूमिगत जल अब खत्म होने के कगार पर है।
भारत में मॉनसून के कुछ दशक के आंकड़ों पर ध्यान दें तो ये स्पष्ट हो जाता है कि पूरे दक्षिण एशिया में इसके विन्यास में व्यापक बदलाव देखा जा रहा है। कुछ दिनों की अतिवृष्टि के बाद लम्बे समय तक गायब बरसात अब मॉनसून की पहचान हो गई है। मॉनसून में भी सूखे दिनों की संख्या धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है और बरसात वाले दिनों के संख्या सिकुड़ती जा रही है, जिससे न सिर्फ बाढ़ का दायरा बढ़ रहा है बल्कि भूमिगत जल का पुनर्भरण भी कम हो रहा है। शहरीकरण, रहवास के बढ़ते दायरे और भूमि के कंक्रीटीकरण से भूमिगत जल के पुनर्भरण में लगातार कमी आ रही है। साथ-साथ सतही जल के स्रोत जैसे पोखर, तालाब और छोटी-छोटी नदियां जो मॉनसून के आगमन तक भूमि में आवश्यक नमी बरकरार रखती थी, अब जाड़े के मौसम के बाद ही सूखने लगी हैं।
भूमि-क्षरण के मुख्य कारणों में पिछले कुछ दशकों में भूमि उपयोग में आए व्यापक स्तर के बदलाव और चरम मौसम की स्थिति (अत्यधिक गर्मी और कम बारिश) है। विशेष रूप से सूखे के अलावा सिंचाई और रासायनिक खाद और कीटनाशक आधारित कृषि भी शामिल है, जिसके कारण भूमि में जमा होते हानिकारक रसायन और लवण जो धीरे-धीरे भूमि की उर्वरता कम कर देते है। अकेले कृषि के लिए तीन-चौथाई ज्यादा जंगल कटे हैं, वहीं अवैज्ञानिक आधुनिक और लाभ आधारित कृषि कार्य में दो-तिहाई से ज्यादा मीठा पानी खप रहा है। बेतहाशा बढ़ती जनसंख्या के लिए कृषि-भूमि, खनन, अधिवास, यातायात और अन्य जरूरतों के लिए जरूरी ढांचागत विकास के कारण जंगल, घास के मैदान, यहां तक की वेटलैंड सहित अन्य प्राकृतिक भूमि के उपयोग में हो रहे व्यापक स्तर के बदलाव ने भू-क्षरण की प्रक्रिया को और तेज कर दिया है।
पृथ्वी पर मानव की सभी गतिविधियों को दीर्घकाल तक सुचारू रूप से चलते रहने के लिए ग्रहीय सीमा की अवधारणा को वैश्विक मान्यता मिली है, जिसके अंदर ही पृथ्वी की जीवन रक्षा प्रणाली सुरक्षित रूप से काम कर पाएगी। ग्रहीय सीमा के नौ प्रमुख घटकों में भू-उपयोग परिवर्तन प्रमुख है। इसके अनुसार, ग्रहीय सीमा के पार जाने की स्थिति में अचानक, व्यापक, अपरिवर्तनीय और चरम पर्यावरणीय परिवर्तनों की आशंका बढ़ेगी। इन नौ ग्रहीय सीमाओं में से वैश्विक स्तर पर चार ग्रहीय सीमाओं जैव विविधता क्षय, भू-उपयोग परिवर्तन, जलवायु परिवर्तन और भू-रासायनिक चक्र में बदलाव को हम पहले ही पार कर चुके हैं। ये चारों उल्लंघन मूलरूप से मानव-जनित मरुस्थलीकरण, भूमि-क्षरण और सूखे के फैलते दायरे से सीधे जुड़े हुए हैं।
विदित है कि पेड़ों के बाद मिट्टी, स्थलीय जैविक कार्बन का सबसे बड़ा भंडार है। भूमि में मौजूद कार्बन की मात्रा वायुमंडल में मौजूद कार्बन का दोगुना और पेड़-पौधों में मौजूद सम्पूर्ण कार्बन का तीन गुणा है। बड़े स्तर पर भूमि क्षरण और सुखाड़ के उपरोक्त सीधे नकारात्मक प्रभाव के अलावा मिट्टी के दीर्घकाल के लिए संग्रहित जैविक कार्बन का ह्रास, जो कार्बन-डाईऑक्साइड के रूप में वायुमंडल में होता है, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को और भी तेज कर रहा है। ऐसे में सतत विकास का लक्ष्य, बिना भू-क्षरण, सुखाड़ और मरुस्थलीकरण को रोके संभव नहीं है। दूसरी तरफ भू-संरक्षण जलवायु परिवर्तन के रोकथाम के लिए एक बहुत प्रभावी कदम साबित हो सकता है, जिस दिशा में भारत ही नहीं वैश्विक स्तर पर भी लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं। इन सारी विकट परिस्थितियों में भूमि क्षरण तटस्थता और 2.5-3 बिलियन टन कार्बन-डाईऑक्साइड के समकक्ष अतिरिक्त कार्बन सिंक तैयार करने का निर्धारित लक्ष्य एक दुरूह परिकल्पना ही नजर आती है, बशर्ते भूमि संपदा संरक्षण को समेकित समझ के साथ लागू न किया जाए। भू-क्षरण और मरुस्थलीकरण के विस्तार पर लगाम लगाने की दिशा में पहला कदम भूमि-क्षरण तटस्थता (मिट्टी में जैविक कार्बन के आगमन और ह्रास को संतुलित करना) के लक्ष्य को निर्धारित कर हासिल करना है।
भारत ने पेरिस जलवायु समझौते के आलोक में ऊर्जा और अर्थव्यवस्था संबंधी वायदे के अलावा 2030 तक भू-क्षरण तटस्थता का लक्ष्य रखा है जिसके मूल में भू-संपदा का संरक्षण और मिट्टी की उर्वरता में आ रही कमी को रोककर उसकी उत्पादकता सुनिश्चित करना है। हवा में, मिट्टी में या फिर जीव में नमी प्राण का प्रतीक है, अगर नमी न रहे तो हरा-भरा जंगल रेगिस्तान में बदल जाए। आज नम क्षेत्रों को बचाने की जरूरत है क्योंकि कचरों के अंबार से भरते तालाब और खत्म होती कृषि भूमि, भविष्य में पानी के लिए तड़पती आबादी ही छोड़ती नजर आ रही है।
(कुशाग्र राजेंद्र एमिटी विश्वविद्यालय हरियाणा के स्कूल ऑफ अर्थ एंड एनवायरमेंट साइंस के प्रमुख व विनीता परमार विज्ञान शिक्षिका एवं “बाघ विरासत और सरोकार” पुस्तक की लेखिका हैं)