जल संकट का समाधान: बारिश का आधा पानी बचाने से दूर हो सकती है प्यास
पिछले लगभग सौ साल के दौरान दुनिया ने जल प्रबंधन के मामले में दो बड़े बदलाव किए हैं। पहला- व्यक्ति और समुदायों ने जल प्रबंधन से हाथ खींच लिए और सरकार को यह जिम्मेवारी सौंप दी, जबकि 150 साल पहले किसी भी सरकार द्वारा पानी उपलब्ध नहीं कराया जाता है।
दूसरा- बारिश के पानी के इस्तेमाल और इकट्ठा करने के आसान तरीकों में कमी आई है, जबकि बांधों के माध्यम से नदियों और नलकूपों के माध्यम से भूजल का दोहन किया जाने लगा और इन्हें पानी का मुख्य स्त्रोत बना दिया गया। नदियों और जलाशयों का पानी बारिश के पानी का छोटा सा हिस्सा मात्र है। जबकि उन पर दबाव बढ़ता जा रहा है।
राज्यों पर निर्भरता का अर्थ होता है कि पानी की आपूर्ति की लागत बढ़ जाती है। मरम्मत और रखरखाव पर होने वाले खर्च और उसकी वसूली का खराब इंतजाम की वजह से यह व्यवस्था प्रभावित होगी। पानी के इस्तेमाल में कोई भी सावधानी नहीं बरत रहा है, जिससे जल संसाधनों की निरंतरता पर संदेह बन गया है, यह समस्या हाल ही में देखने को भी मिली है। इसका मतलब यह है कि सरकार की पीने के पानी की आपूर्ति से जुड़ी योजनाएं में कई तरह की समस्याएं हैं।
पिछले 7 साल से हर साल 1.4 लाख बस्तियां ग्रामीण पेयजल कार्यक्रम से बाहर हो गई। 2016 में लोकसभा में पेश की गई रिपोर्ट में यह जानकारी दी गई। 2007 से 2014 के बीच ग्रामीण क्षेत्रों में पानी पहुंचाने के लिए करोड़ों रुपए खर्च किए गए। बावजूद इसके नई परियोजनाएं 58 प्रतिशत लक्ष्य हासिल नहीं कर पाई। यही कारण है कि सरकार को सूखे के दौरान गांवों में पानी की आपूर्ति करने के लिए सैकड़ों टैंकरों को तैनात करना पड़ा।
सामुदायिक भागीदारी
लेकिन सरकार की बजाय समुदाय कैसे अपने लिए पानी का इंतजाम कर सकते हैं। उदाहरण के लिए, सबसे सूखे इलाकों में से एक बाड़मेर में एक साल में 100 मिलीमीटर बारिश होता है तो उसका मतलब है कि लगभग 10 लाख लीटर पानी, जो एक साल के लिए 182 लोगों की पीने और खाना बनाने की जरूरत को पूरा कर सकता है। एक व्यक्ति को रोजाना 15 लीटर पानी मिल सकता है।
यदि आप सारा बारिश या सतह के पानी को पूरी तरह इकट्ठा नहीं कर पाते, तब भी आप कुछ प्राथमिक तरीके अपना कर साल भर में लगभग 0.5 मिलीलीटर पानी इकट्ठा कर सकते हैं। इस तरह की प्राथमिक तकनीक का इस्तेमाल कर थार जैसे इलाके में लोग रहते हैं और इस इलाके को दुनिया का सबसे घनी आबादी वाला रेतीला इलाका बना दिया है। ऐसे में अनुमान लगाइए कि पूर्वी भारत में हर साल औसतन 2000 एमएम बारिश होती है और यह सारा पानी इकट्ठा किया जा सकता है। बारिश का लगभग 10 लाख लीटर पानी इकट्ठा करने के लिए केवल 21 मीटर लंबा और 21 मीटर चौड़ा 500 वर्ग मीटर जमीन चाहिए।
ज्यादातर ग्रामीण क्षेत्रों में सालाना अच्छी बारिश होती है। कम बारिश वाला इलाका बाड़मेर है, जिसकी आबादी भी कम है। यहां प्रति व्यक्ति काफी जमीन उपलब्ध है। इसके विपरीत, पश्चिम बंगाल में 24 परगना में प्रचुर मात्रा में बारिश होती है और यहां की आबादी घनी है।
हालांकि, भारत में कोई ऐसा गांव नहीं है, जो सालाना होने वाली बारिश से पीने और खाने के लिए पानी की अपनी मूल जरूरत को पूरा न कर सके। जनगणना 2011 के आंकड़ों के मुताबिक लगभग 6 लाख 40 हजार गांवों में रह रहे लगभग 83.3 करोड़ लोग रहते हैं। इसका मतलब है कि लगभग हर गांव में लगभग 1300 लोग रह रहे हैं और भारत में औसतन 1088 मिलीमीटर सालाना बारिश होती है।
हालांकि यह अलग-अलग है, जैसे कि पश्चिमी भारत के रेतीले इलाके में 200 एमएम बारिश होती है, जबकि पूर्वोत्तर भारत की पहाड़ियों में 25 हजार एमएम बारिश होती है। देश के लगभग 12 फीसदी हिस्से में औसतन 610 एमएम बारिश होती है, जबकि 8 फीसदी हिस्से में 2500 एमएम बारिश होती है, लेकिन लगभग 50 फीसदी हिस्से में 15 दिन और लगभग 100 घंटे बारिश होती है। जबकि साल में कुल 8760 घंटे होते हैं। गुजरात और राजस्थान के रेतीले इलाके में साल में पांच दिन से कम बारिश होती है, हालांकि इनमें कुछ दिन भारी बारिश होती है, जबकि पूर्वोत्तर में 150 दिन बारिश होती है।
यदि एक व्यक्ति को दिन में 8 लीटर पानी दिया जाए तो औसतन एक गांव को लगभग साल भर में खाने और पीने के लिए 38 लाख लीटर पानी की जरूरत होगी। इसका मतलब है कि औसतन एक गांव को 0.17 हेक्टेयर क्षेत्र में बारिश के पानी का इकट्ठा करना चाहिए, जो कुल बारिश का लगभग आधा ही होगा। यदि वहां सूखा ग्रस्त क्षेत्र है और बारिश कम होती है तो जमीन की आवश्यकता बढ़ सकती है। राजस्थान और गुजरात में भौगोलिक अंतर है, इसलिए राजस्थान में 0.98 से 2.29 हेक्टेयर जमीन की जरूरत पड़ेगी और गुजरात में 1.22 से 2.39 हेक्टेयर क्षेत्र की जरूरत पड़ेगी।
दिल्ली में जहां गांव बड़े हैं और बारिश कम होती है, वहां लगभग 8.46 हेक्टेयर क्षेत्र की जरूरत पड़ेगी, जबकि अरुणाचल प्रदेश में केवल 0.10 हेक्टेयर क्षेत्र की जरूरत पड़ेगी। और हां, अगर बारिश अधिक होती है और उसे इकट्ठा किया जा सकता है तो उस पानी का इस्तेमाल सिंचाई के लिए भी किया जा सकता है।
क्या यह संभव है?
क्या कोई ऐसा गांव है, जहां इतनी जमीन उपलब्ध नहीं है। भारत का कुल क्षेत्रफल 28.8 करोड़ हेक्टेयर है। यह मानते हुए कि दुर्गम जंगल, ऊंचे पहाड़ और अन्य निर्जन इलाकों को छोड़ दें तो लगभग 14.4 करोड़ हेक्टेयर सतह का इस्तेमाल किया जा सकता है। इस तरह हर गांव औसतन 224 हेक्टेयर जमीन या लगभग 244 करोड़ लीटर बारिश का पानी दे सकता है। यह आंकड़े बताते हैं कि बारिश के पानी के संचयन की बहुत संभावनाएं हैं और इससे इंकार नहीं किया जा सकता।
इस तथ्य को स्वीकार करते हुए कि लगभग बारिश कुछ दिनों में कम हो गई, प्राचीन भारतीयों ने विभिन्न तरीकों से बारिश के पानी का संचयन करना सीखा। राजस्थान में, लोगों ने छतों से बहने वाले पानी को एकत्र किया और इसे अपने आंगन में बनी टंकियों में इकट्ठा किया। उन्होंने कृत्रिम कुओं में खुली सामुदायिक भूमि पर गिरने वाली वर्षा को कुंडियों के रूप में इकट्ठा किया। उत्तर बिहार और पश्चिम बंगाल में भी लोगों ने बाढ़ वाली नदियों के पानी का संचयन किया।
इसलिए देश को सूखा मुक्त करना संभव है। यह भी संभव है कि सभी को न केवल पीने का पानी मिल सके, बल्कि खेतों को सिंचाई का पानी मिल सके, हालांकि ऐसी फसल बोनी होगी, जिसे पानी की जरूत पड़ती है। इसके लिए ऐसी रणनीति बनानी होगी कि हर गांव अपनी जमीन, राजस्व भूमि व वन भूमि से बहने वाले पानी को अपने टैंकों, तालाबों में इकट्ठा करे। इसका पानी का इस्तेमाल करे, साथ ही इससे भूजल स्तर बढ़ेगा।
तब ही देश के पास हर एक गांव में खेतों को सिंचित करने के लिए उसके टैंकों और कुओं में पर्याप्त पानी हो सकता है।
यह लेख पर्यावरणविद और डाउन टू अर्थ के संस्थापक संपादक स्वर्गीय अनिल अग्रवाल द्वारा सांसदों के लिए तैयार की गई सामग्री पर आधारित है। पूरा पेपर यहां से डाउनलोड कर सकते हैं। http://www.rainwaterharvesting.org/downloads/drought_english.pdf)