जल संकट का समाधान: ग्रामीणों ने सूखारौला को बना दिया सदानीरा गाडगंगा

उत्तराखंड में पौड़ी जिले के उफरैंखाल व आसपास के गांवों के लोगों ने बरसाती नाले को न सिर्फ एक छोटी सदानीरा नदी बना दिया, बल्कि आसपास की पहाड़ियों में घना सदाबहार जंगल भी उगा दिया
उत्तराखंड़ के पौड़ी क्षेत्र में बहती गाडगंगा, जो कभी सूखारौला थी। फोटो:त्रिलोचन भट्ट
उत्तराखंड़ के पौड़ी क्षेत्र में बहती गाडगंगा, जो कभी सूखारौला थी। फोटो:त्रिलोचन भट्ट
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बारिश होने पर प्रचंड वेग के साथ तटवर्ती क्षेत्रों को जबरदस्त नुकसान पहुंचाने और वर्ष के बाकी दिनों में पत्थरों से पटे सूखे नाले को एक सदानीरा नदी का रूप देना किसी दंतकथा जैसा लगता है, लेकिन जल संरक्षण के प्रति जागरूकता और मेहनत से पीछे न हटने का जज्बा हो तो ऐसा संभव है। उत्तराखंड में पौड़ी जिले के एक गंवई कस्बे उफरैंखाल और आसपास के गांवों के लोगों ने कुछ ही सालों की मेहनत के बाद इस क्षेत्र से गुजरने वाले सूखारौला नाम के बरसाती नाले (जिसे स्थानीय भाषा में गदेरा कहा जाता है) को न सिर्फ एक छोटी सदानीरा नदी बना दिया, बल्कि वनस्पतिहीन तीव्र ढलान वाली आसपास की पहाड़ियों पर घना सदाबहार जंगल भी उगा दिया। इस मुहिम को नाम दिया गया ‘पाणी राखो आंदोलन’ और मुहिम के प्रेरणास्रोत बने एक अध्यापक सच्चिदानन्द भारती।

पाणी राखो आंदोलन पर लगातार नजर रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार केदारदत्त के अनुसार इस मुहिम की शुरुआत 80 के दशक में उस समय हुई जब सच्चिदानन्द भारती नामक युवक अपनी पढ़ाई पूरी करके शिक्षक के रूप में अपने कस्बे उफरैंखाल लौटे। उन्हें पता चला कि इस क्षेत्र में लगे विस्तृत दूधातोली वन क्षेत्र में वन विभाग द्वारा फर-रागा प्रजाति के लुप्त हो रहे भोजपत्र वृक्षों को काटने की योजना बनाई जा रही है। कुछ साथियों के साथ भारती ने ‘दूधातोली लोक विकास संस्थान’ का गठन किया और इस क्षेत्र के ग्रामीणों को संगठित करने निकले। लोगों को बताया गया कि ये जंगल बेशक सरकारी हों, लेकिन इनके समाप्त होने से पहला बड़ा नुकसान इस क्षेत्र के ग्रामीणों को ही होगा। लोगों की समझ में बात आई और जंगल काटने का विरोध दर्ज किया गया। आखिरकार बिना किसी बड़े संघर्ष के वन विभाग को पेड़ काटने की अपनी योजना वापस ले ली।

वरिष्ठ पत्रकार और पर्यावरण कार्यकर्ता रमेश पहाड़ी के अनुसार इस मुहिम से एक विचार सामने आया कि ग्राम पंचायतों की बंजर भूमि, जो कि आमतौर पर वनस्पतिविहीन है, क्यों न उस पर वन उगाये जाएं, जिससे के ग्रामीणों की लकड़ी-चारे के समस्या हल हो और उनके पास अपना एक वन हो। इस विचार को जबरदस्त समर्थन मिला और पुरुषों से ज्यादा महिलाओं ने इसमें दिलचस्पी दिखाई। देखते ही देखते क्षेत्र के 136 गांवों में महिलाओं के संगठन बन गये। इन संगठनों को महिला मंगल दल कहा गया। इन संगठनों का कोई लेखा-जोखा नहीं होता था। सब कुछ स्वतःस्फूर्त और अनुशासित। सबसे पहले अपनी नर्सरी तैयार की गई। शुरुआत अखरोट के पौधों से हुई और बाद में कई तरह की पौध उगाई जाने लगी। इन्हें बेचा गया और इससे जो पैसा आया, उसे फिर से इसी काम में लगाया गया।

‘उत्तराखंड के पर्यावरणीय आंदोलन’ पुस्तक की संपादक डाॅ. हर्षवंती बिष्ट कहती हैं कि सच्चिदानन्द भारती के इस आंदोलन में महिलाओं ने हर आंदोलन की तरह महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पौधे रोपने के बाद दूसरा जरूरी काम था इनकी सुरक्षा करना। यह काम इन गांवों की महिलाओं ने संभाला। गांवों की महिलाएं अपने-अपने ग्राम पंचायत क्षेत्र में बारी-बारी पहरा देने लगी। पहरे के दौरान उनके पास एक अनोखा हथियार होता, जिसे नाम दिया गया खांकर। यह एक लम्बी लाठी होती थी, जिसके सिरे पर बड़े आकार के घुंघरू बांधे जाते। महिलाएं पहरा देते समय लाठी को पटकते हुए चलती, घुंघरुओं से निकलने वाली संगीतमय ध्वनि नीरव पहाड़ियों में गूंजती हुई दूसरे गांव के वन क्षेत्र तक पहुंचती, जहां उस गांव की महिलाएं इसी तरह का पहरा दे रही होती और इस तरह गांवों की ये महिलाएं एक-दूसरे से संगीतमय संपर्क बनाये रखती।

कुछ ही सालों में मेहनत नजर आने लगी और सभी गांवों के अपने-अपने सामूहिक वन विकसित होने लगे। पौधे रोपने और इनकी रखवाली के दौरान एक बात जो सबसे ज्यादा खलती थी वह यह थी कि बरसात के दिनों में तीव्र ढलान वाली पहाड़ियों से पानी तेजी से बह जाता है। इससे कुछ देर के लिए सूखारौला जैसे गदेरे में उफान आ जाता है और उसके बाद सूखे जैसी स्थिति बन जाती है। यह 1993 का साल था, जब तय किया गया कि पहाड़ी ढलानों पर जहां जगह मिले वहां छोटी-छोटी तलैया बनाई जाएं। इसे स्थानीय लोग चाल कहते हैं। चाल की नाप निश्चित की गई 3 से 5 घन मीटर। यानी 3 मीटर लंबी, 3 मीटर चैड़ी और 3 मीटर गहरी। इसकी शुरुआत उफरैंखाल के गाडखर्क से शुरू हुई और जल्दी ही यह काम 35 गांवों में शुरू कर दिया गया। ढलानों पर पानी यहां-वहां से बहता है, लिहाजा चाल भी यहां वहां बनाई गई। इस मुहिम को नाम दिया गया ‘पाणी राखो आंदोलन’। देखते ही देखते इन गांवों में 7,000 चालें वर्ष भर पानी से भरी चमकने लगी। वर्ष 2015 तक क्षेत्र में इन चालों की संख्या 20,000 तक पहुंच गई। अब बरसात से ठीक पहले नियमित और अनुशासित रूप से इन चालों को साफ किया जाता है। इसके अलावा जरूरत पड़ने पर नई चाल भी बनाई जाती हैं।

पहाड़ी ढलानों पर चालें भरपूर पानी समेटने के बाद रिसने लगी तो निचले क्षेत्रों में 5 से 10 घन मीटर के खाल बनाये गये और कई जगह इनसे कुछ बड़े आकर के ताल। नतीजा यह हुआ कि जो वन ग्रामीण ने लगाये थे वे और घने होने लगे। पूरे क्षेत्र में पानी की कमी के कारण जो खेती अनउपजाऊ हो गई थी, उससे उपज मिलने लगी और सबसे आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ सूखारौली गदेरे में। वर्ष 1999 में इस गदेरे में मई और जून के महीनों में पानी नजर आने लगा, जो साल दर साल बढ़ने लगा। कुछ साल बाद जब यह गदेरा सदानीरा छोटी नदी बन गया तो इसका नामकरण किया गया और ग्रामीणों ने सूखारौला को नया नाम दिया ‘गाडगंगा’। आज मई और जून के महीने में भी गाडगंगा में 3 लीटर प्रति मिनट पानी बहता है।



सच्चिदानन्द भारती के अनुसार यह काम आसान नहीं था। बीच-बीच में कई समस्याएं भी सामने आई। आर्थिक संकट भी था, लेकिन हम लोग डटे रहे। हमारी यह मेहनत कितनी सफल रही, इसका एक उदाहरण 1998 में सामने आया। जब इस क्षेत्र में जलागम विभाग की ओर से जगह-जगह पानी संग्रहण संबंधी योजना के बोर्ड चमचमाने लगे। 90 करोड़ रुपये की यह योजना विश्व बैंक के आर्थिक मदद से बनाई जा रही थी। लोगों ने मेरे पास आकर शिकायत की कि इस तरह तो सरकारी योजना के नाम पर हमारी मेहनत पर पानी फेर लिया जाएगा।  लिहाजा मैंने सरकार को एक पत्र लिखा और कहा कि जो काम इस योजना के तहत होना है, वह यहां पहले ही लोग कर चुके हैं, फिर 90 करोड़ रुपये खर्च करने की क्या जरूरत है। आश्चर्यजनक रूप से इस पर कार्रवाई हो गई। कुछ दिन बाद वन विभाग के अधिकारियों का एक दल क्षेत्र में पहुंचा और इस क्षेत्र में पहले से लगाये गये और पनपे जंगलों और जलस्रोतों को देखकर न सिर्फ चुपचाप लौट गये, बल्कि इस योजना को भी वापस ले गये। 

भारती कहते हैं कि गंगा में हिमालय से आने वाले पानी की मात्रा केवल 20 फीसदी है और लगभग 80 फीसदी पानी गाड़ गदेरों का है, ऐसे में यदि इस तरह के प्रयास बड़े स्तर पर होते हैं तो गंगा का जल स्तर भी बढ़ाया जा सकता है। लेकिन इसके लिए जनता को आगे आना होगा, जैसा कि सूखारौला के साथ हुआ। 

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