खेतों में पानी जमा करके सूखने के बाद फसल लेने की अनोखी विधि

मध्य प्रदेश में प्रचलित जल संचयन और सिंचाई की हवेली व्यवस्था फसल चक्र बदलने से गायब होती जा रही है
नर्मदा घाटी के ऊपरी इलाकों में प्रचलित हवेली प्रणाली जल संचय और खेती की एक अनोखी विधि है। इसकी शुरूआत तो जबलपुर शहर से आगे उत्तर-पश्चिम के मैदानी इलाके से हुईं थी, फिर यह नर्मदा पार करके नरसिंहपुर जिले में पहुंची। ऊंचे बांधों के जरिए बरसाती पानी को फसलों की बुआई तक रोके रखा जाता है। फिर पानी निकालकर खेत सुखा लिया जाता है और फसल बोई जाती है। इसके बाद सिंचाई की जरूरत नहीं रहती। पर अब इस प्रणाली को स्प्रिंकलर (छिड़काव) मशीनों के आने से खतरा हो गया है (दाएं ) (फोटो: गणेश पंगारे / सीएसई)
नर्मदा घाटी के ऊपरी इलाकों में प्रचलित हवेली प्रणाली जल संचय और खेती की एक अनोखी विधि है। इसकी शुरूआत तो जबलपुर शहर से आगे उत्तर-पश्चिम के मैदानी इलाके से हुईं थी, फिर यह नर्मदा पार करके नरसिंहपुर जिले में पहुंची। ऊंचे बांधों के जरिए बरसाती पानी को फसलों की बुआई तक रोके रखा जाता है। फिर पानी निकालकर खेत सुखा लिया जाता है और फसल बोई जाती है। इसके बाद सिंचाई की जरूरत नहीं रहती। पर अब इस प्रणाली को स्प्रिंकलर (छिड़काव) मशीनों के आने से खतरा हो गया है (दाएं ) (फोटो: गणेश पंगारे / सीएसई)
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मध्य प्रदेश में जल संचय की अनूठी परंपराएं रही हैं। कुछ ही लोग यह जानते हैं कि नर्मदा घाटी के ऊपरी हिस्से में खेतों में ही पानी जमा करके उसके सूखने के बाद एक फसल लेने की अनोखी विधि आज भी प्रचलित है। यह तरीका जबलपुर, नरसिंहपुर और दमोह तथा सागर जिलों के कुछ हिस्से यानी करीब 1.4 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में बड़े पैमाने पर प्रचलित है।

जबलपुर और नरसिंहपुर में तो सिंचाई की यही व्यवस्था काम में लाई जाती है और वहां इसे हवेली कहते हैं। खेतों में चारों ओर ऊंची मेड़ बनाकर बारिश का पानी बुआई के मौसम तक रोका जाता है। जमीन सूखने पर पानी निकाल दिया जाता है और फसल लगा दी जाती है। इसके बाद अब सिंचाई की और जरूरत ही नहीं रह जाती।

यह व्यवस्था बहुत पुरानी है। जबलपुर शहर के उत्तर-पश्चिम की उर्वर समतल भूमि में इसका विकास हुआ। वहां खेतों में ऊंची मेड़ बनाने का प्रचलन उस समय से है, जब उत्तर दिशा से खेतिहर लोग पहली दफा इस घाटी में आए और स्थानीय गोंड आदिवासियों को खदेड़ दिया। उसके बाद नर्मदा पार और नरसिंहपुर जिले में भी यही व्यवस्था अपनाई जाने लगी।

इस इलाके के शासकों ने भी किसानों को खेतों में मेड़ लगाने को प्रोत्साहित किया। हवेली व्यवस्था विशेष इलाके में संभव है, जैसे देश के अन्य हिस्सों में एक फसल लेने की दूसरी व्यवस्थाएं प्रचलित हैं। यह व्यवस्था काली मिट्टी वाले इलाके में अपनाई जाती है। काली मिट्टी अधिक से अधिक पानी सोख लेती है। यह मिट्टी धान या कपास जैसी खरीफ की फसलों के लिए उपयुक्त नहीं होती, लेकिन गेहूं की फसल इसमें खूब अच्छी होती है।

हवेली व्यवस्था के विकास की एक और प्रमुख वजह है। इस इलाके में कांस नामक घास बहुत होती है। खेत में कुछ समय तक पानी खड़ा रहे तो कांस सड़कर नष्ट हो जाती है। इसके अलावा यहां की जलवायु कुछ ऐसी है कि भारी वर्षा के बावजूद फसल लेना मुश्किल होता है। इसलिए किसानों ने यह व्यवस्था विकसित की ताकि कम-से-कम एक फसल अच्छी ली जा सके।

जबलपुर-नरसिंहपुर के हवेली व्यवस्था वाले इस क्षेत्र में अच्छी मिट्टी की हल्की ढलान वाली समतल भूमि पर ही मेड़ बनाई जाती हैं। यहां दो तरह की मिट्टी पाई जाती है- काबर और मुंड। काबर भारी काली मिट्टी होती है और उसमें बालू या पथरीले कण नहीं होते। सूखने पर यह मिट्टी बहुत कड़ी हो जाती है और उसमें मोटी-मोटी दरारें पड़ जाती हैं। यह अधिक पानी सोखती है और पानी के सूखने पर खेती मुश्किल हो जाती है। मुंड हल्की मिट्टी होती है। उसमें खेती आसान होती है और चूना तथा पथरीले कण पर्याप्त मात्रा में होते हैं। यह काबर के मुकाबले कम उर्वर होती है और पानी भी कम सोखती है।

ऊंची मेड़ या बंधान बनाने और उनकी मरम्मत का काम हमेशा फसल का काम खत्म होने के बाद गर्मी के मौसम में किया जाता है। बंधन खेत की मिट्टी से ही बनाए जाते हैं और अमूमन एक मीटर ऊंचाई के होते हैं। वैसे, 3 मीटर या उससे अधिक ऊंचाई के बंधान भी मिलते हैं। बनाने के बाद उनके रखरखाव पर खास ध्यान देने की जरूरत नहीं पड़ती।

अगर इंद्र देवता अधिक मेहरबान हुए तो बंधान में दरारें भी पड़ जाती हैं, खासकर काबर मिट्टी वाले क्षेत्रों में, क्योंकि गर्मी में यह मिट्टी फट जाती है। वैसे, मूसलधार बारिश के पहले दो-चार फुहारें पड़ जाएं तो ये दरारें भर जाती हैं और बंधान के टूटने का डर नहीं रह जाता। टूटने का खतरा नए बंधान में अधिक होता है। सो, उसे मजबूत करने के लिए गहरी जड़ों वाली घास बंधान पर रोप दी जाती है।

बंधान हर तरह के आकार और ऊंचाई के होते हैं। खेत 2 हेक्टेयर से 10-12 हेक्टेयर तक के होते हैं। जमीन के नक्शे के अनुसार ही खेत का क्षेत्रफल और आकार तय होता है। सो, खेतों में अनियमित आकार में यह महत्वपूर्ण बात होती है।

अगर बारिश अच्छी हुई तो बंधान अगस्त के महीने तक पूरे भर जाते हैं। इस समय तक मिट्टी पूरी तरह गीली हो जाती है। लेकिन बारिश अच्छी नहीं हुई और बंधान अगस्त तक पूरे नहीं भरे तो खर-पतवार नष्ट नहीं हो पाते। तब उन्हें उखाड़कर पानी में सड़ने के लिए छोड़ दिया जाता है। बंधान में पानी अक्टूबर महीने के शुरू तक खड़ा रहता है। बुआई से कुछ दिन पहले अतिरिक्त पानी निकाल दिया जाता है। पानी निकालने में सावधानी बरती जाती है, ताकि वह धीरे-धीरे निकले। किसान लंबे अनुभव से यह जान लेते हैं कि किस खेत का पानी पहले निकाला जाए।

फिर बंधान में एक बारीक सुराख किया जाता है और उसे धीरे-धीरे चौड़ा किया जाता है, ताकि निचली जमीनों में अधिक पानी जमा न हो। इस तरह बंधान को खोलने को मोंधा कहा जाता है। पानी एक खेत से दूसरे में होता हुआ प्राकृतिक नालों या झीलों में समा जाता है। पानी कब निकाला जाए, यह आम सहमति से तय होता है।

काबर मिट्टी में पानी निकलने के तुरंत बाद बुआई नहीं की गई तो बुआई असंभव हो जाती है। लेकिन मंड मिट्टी में बुआई के मामले में देरी की जा सकती है। अमूमन रबी की प्रचलित फसलें ही बोई जाती हैं। गेहूं और चना साथ-साथ बोने का रिवाज अधिक है। खाली गेहूं की बुआई अमूमन नहीं की जाती। किसानों का मानना है कि चने से जमीन की उर्वरा शक्ति कायम रहती है। इसके अलावा मसूर और तीसी (या अलसी) की खेती भी होती है।

अगर जमीन हल्की ढलान के साथ चौरस न हो तो बंधान बनाना महंगा पड़ता है और खेत भी छोटे होते हैं। इसी वजह से दमोह और सागर जिलों में यह व्यवस्था नहीं अपनाई गई। इस व्यवस्था के लिए मिट्टी में चिकनी मिट्टी ( मटियार) की मात्रा 50 प्रतिशत से अधिक होनी चाहिए। तभी वह मिट्टी लंबे समय तक गीली रह सकेगी। फिर बंधान बनाने और उसके रखरखाव का ज्ञान भी जरूरी है। और सबसे जरूरी है खेतों में से पानी निकालने के समय और क्रम के बारे में किसानों के बीच आम सहमति।

सन 1902 में सरकार ने होशंगाबाद जिले में इस व्यवस्था के प्रदर्शन के लिए कई खेतों पर बंधान बनवाए। जमीन उपयुक्त चुनी गई और मिट्टी तथा बारिश की स्थितियां भी अच्छी थीं। लेकिन दिक्कत यह हुई कि यहां के किसान बंधान बनाने के तरीकों से अनभिज्ञ थे और उनमें खेतों से पानी निकालने के क्रम को लेकर सहमति नहीं बन पाई। इस तरह यह प्रयोग नाकाम साबित हुआ। आज, फसलें बदल जाने से हवेली व्यवस्था लगभग आधी रह गई है। अधिक से अधिक किसानों की रुचि सोयाबीन की बुआई में होती जा रही है। चूंकि सोयाबीन खरीफ फसल है, इसलिए किसान अब खेतों में पानी नहीं लगने देते और बंधान तोड़ दिए गए हैं।

हवेली व्यवस्था का इलाका आज देश में छिड़काव सिंचाई वाले क्षेत्रों में सबसे बड़ा है। पिछले कुछ साल से अनगिनत नलकूप खुद गए हैं। पहले हवेली व्यवस्था के तहत खेतों में पानी खड़ा रहने से भूजल का स्तर भी सामान्य बना रहता था। लेकिन अब पानी रोका नहीं जाता, सो भूजल के स्तर की थोड़ी ही भरपाई हो पाती है। दिनोंदिन नलकूपों की संख्या में वृद्धि से कई जगहों पर भूजल स्तर काफी नीचे पहुंच गया है। वैसे, परंपरागत और आधुनिक विधियां एक-दूसरे की पूरक भी हो सकती हैं। अगर कुछ समय तक पानी खेतों में खड़ा रहने दिया जाए तो भूजल स्तर दुरुस्त हो जाएगा और छिड़काव सिंचाई के लिए नलकूपों से अधिक पानी मिल सकेगा।

(बूंदों की संस्कृति पुस्तक से साभार)

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