जामा मस्जिद के गेट नंबर दो के बाहर सूफी संत हरे-भरे शाह दरगाह की दहलीज पर बैठे 60 वर्षीय मोहम्मद खलील ज्यादा बात नहीं करते। बहुत कुरेदने पर वह मुश्किल से थोड़ी देर बात करने को राजी हुए। बुझे मन से उन्होंने बताया, “हम जब तक जिंदा है, तभी तक काम है। न काम करने वाले रहे और न काम कराने वाले।” उनकी बातों से उनकी हताशा और निराशा साफ झलक रही थी।
भिश्ती समुदाय से वास्ता रखने वाले खलील और उनके पूर्वजों ने मशक (बकरे के खाल से बना पानी भरने का थैला) से पानी िपलाने की जिस परंपरा को सैकड़ों वर्ष जिंदा रखा, अब उसी परंपरा को खलील अपनी आंखों के सामने मरता देख रहे हैं।
भारत में भिश्तियों को अन्य पिछड़ा वर्ग का दर्जा प्राप्त है और इनमें से अधिकांश भूमिहीन हैं। भिश्ती शब्द की उत्पत्ति फारसी शब्द ‘बहिश्त’ से हुई जिसका अर्थ है जन्नत। वेब पोर्टल जोशुआ प्रोजेक्ट के अनुसार, भारत के 210 जिलों में 6.32 लाख भिश्तियों की आबादी है। दिल्ली में इनकी संख्या करीब 400 है। इनमें से अधिकांश दूसरे काम धंधों में लग गए हैं।
मोहम्मद खलील और उनके पांच भाइयों ने बड़ी शिद्दत से अपना पुश्तैनी काम किया है। अब खलील और उनके भाइयों की उम्र ढल चुकी है। वर्तमान में केवल उनका भतीजा मोहम्मद रफीक ही इस काम में लगा है। रफीक भी दिन के कुछ घंटे ही यह काम करते हैं, क्योंकि मशक के पानी की मांग बहुत सीमित है।
मौजूदा समय में मीना बाजार और जामा मस्जिद में इक्का-दुक्का दुकान वाले ही उनकी सेवाएं लेते हैं। खलील मानते हैं कि यह उनकी आखिरी पीढ़ी है जो मशक से पानी पिलाने और पहुंचाने की परंपरा को जिंदा रखे हुए है। खलील दिनभर दरगाह के बाहर खाली बैठे रहते हैं और शाम परिवार पालने के लिए जामा मस्जिद के बाहर चाट की दुकान लगा लेते हैं। कभी वह रिक्शा चलाते और कभी मजदूरी करके किसी तरह दिन काट रहे हैं।
अपने पुश्तैनी काम को आखिरी सांसें लेते देख खलील बेहद तकलीफ में हैं। दिमाग पर जोर डालने के बाद उन्होंने बताया कि करीब 22 साल पहले तक स्थिति बेहतर थी। तब करीब 50 मशक वाले कुएं से पानी भरने के लिए लाइन लगाए खड़े रहते थे। हरे भरे शाह दरगाह में कुआं अब भी मौजूद है लेकिन इससे मशक में पानी भरने वाला केवल एक ही शख्स यानी उनका भतीजा रफीक ही बचा है।
ज्यादा बात करने पर खलील के जख्म ताजा हो जाते हैं। वह तंज भरे अंदाज में कहते हैं, “पानी पिलाना सबाब का काम है लेकिन पेट भरने कहां जाएं? लोग पानी पीकर दुआएं देते हैं, लेकिन उनसे पेट नहीं भरता। कई बार खाने के लिए भी पैसे नहीं होते।” सुनहरे अतीत को याद करते हुए वह बताते हैं कि इंदिरा गांधी के समय में मशक के पानी से सड़क धुलवाने का काम होता था। इसी तरह नुमाइश में पानी का छिड़काव कराने के लिए भी हमारी मदद ली जाती थी। वर्तमान में ये सभी काम इतिहास बन चुके हैं।
हरे भरे शाह दरगाह के संरक्षक पीर सैयद मोहम्मद इकबाल बताते हैं कि दरगाह की वजह से पानी पिलाने और उसे पहुंचाने वाले भिश्ती की आखिरी पुश्त बची हुई है। दरअसल, दरगाह की तरफ से रफीक को हर महीने 6,000 रुपए का भुगतान किया जाता है। इसकी वजह बताते हुए पीर सैयद मोहम्मद इकबाल कहते हैं कि दरगाह में बाबा की मटकी मशक के पानी से ही भरी जाती है। दरगाह की धुलाई भी मशक के पानी के जरिए ही होती है।
इस परंपरा के निर्वाह के लिए भिश्तियों की सेवाएं जरूरी है और इसी परंपरा की वजह से परंपरागत जल वाहकों की आखिरी पीढ़ी को फिलहाल रोजगार मिला हुआ है। वह भिश्तियों की एक खूबी की तरफ इशारा करते हुए बताते हैं कि पुराने जमाने से भिश्ती मीठे पानी के स्रोत के अच्छे जानकार रहे हैं। उन्हें अपने काम से सम्मान मिलता था। वे मुगल बादशाह शाहजहां के जमाने से खुद शाही भिश्ती मानते रहे हैं और खुद्दारी उनकी रग-रग में भरी है। वे किसी का नौकर बनना पसंद नहीं करते।
जामा मस्जिद के बाहर पिछले 25 साल से इबादत का सामान बेचने वाले 50 वर्षीय सैयद जावेद रजा जैदी के भिश्तियों से घनिष्ठ संबंध रहे हैं। खलील को वह मामू कहकर बुलाते हैं। उन्होंने डाउन टू अर्थ को बताया कि भिश्ती अपनी सेवा के बदले पैसों की मांग नहीं करते। पानी पिलाने और पानी की आपूर्ति के बदले लोग अपनी श्रद्धा से मुट्ठी बंद करके जितने रुपए भी उन्हें देते हैं, वे राजी खुशी उसे स्वीकार कर लेते हैं। जैदी के घर में भी कभी भिश्ती पानी पहुंचाते थे और वह उन्हें प्रति मशक 20 रुपए देते थे।
जामा मस्जिद और मीना बाजार में हमें कई ऐसे दुकानदार मिले जिन्होंने बताया कि करीब दो दशक पहले तक जैदी की तरह उनके घर भी भिश्तियों के जरिए ही पानी की आपूर्ति होती थी। जामा मस्जिद के बाहर दुकान चलाने वाले ऐसे ही एक शख्स मोहम्मद शफीक के घर में भी पानी का एकमात्र स्रोत भिश्ती ही थे। वह बताते हैं कि लेकिन अब ये अतीत की बातें हो गई हैं।
समय बदलने के साथ उनकी सेवाएं समाप्त हो गई और लोग भी पानी के लिए अन्य स्रोतों पर निर्भर हो गए। हालांकि जामा मस्जिद के गेट नंबर दो के बाहर शर्बत की दुकान चलाने वाले चांद मियां दिन में तीन चक्कर (करीब 100 लीटर) भिश्ती से पानी मंगवाते हैं। मशक में दरगाह के कुएं से आने वाले मीठे पानी से ही वह शर्बत बनाते हैं। उनका कहना है कि शर्बत बनाने में नल या अन्य जलस्रोत का पानी इस्तेमाल नहीं करते।
जामा मस्जिद और मीना बाजार में चांद मियां जैसे कुछ दुकानदारों और दरगाह की बदौलत ही भिश्तियों की आखिरी पीढ़ी विलुप्त होने से बची हुई है। इस पीढ़ी के आखिरी ध्वजवाहक मोहम्मद रफीक ने डाउन टू अर्थ को अपना दर्द साझा करते हुए बताया, “दिन में मुश्किल से 200-250 रुपए की आमदनी हो पाती है। कई बार तो 100-150 रुपए की कमाई भी मुश्किल से होती है। ऐसे हालात में भिश्ती काम नहीं छोड़ेंगे तो क्या करेंगे।” रफी नाराज हैं कि मीडिया वाले उन्हें परेशान करने आ जाते हैं, लेकिन मदद को कोई आगे नहीं आता।
भिश्तियों के खलनायक
खलील बोतलबंद पानी, घर-घर में लगे पानी के फिल्टर और गर्मियों में मशीन से मिलने वाले पानी को अपनी पुश्तैनी काम के खत्म होने का जिम्मेदार ठहराते हैं। घर-घर में पाइप से पानी पहुंचने के बाद भिश्तियों की सेवाएं निरर्थक हो गईं। खलील के अनुसार, वर्ष 2000 तक दिल्ली में पांच जगह मशक मिलती थीं और काम भी जामा मस्जिद के अलावा कई इलाकों में होता था, लेकिन अब कहीं मशक नहीं मिलतीं और काम भी जामा मस्जिद के पास चुनिंदा दुकानों तक ही सिमटकर रह गया है। दरगाह के बाहर टंगी कुछ पुरानी मशक के बूते ही सीमित जलापूर्ति हो रही है।
पीर सैयद मोहम्मद इकबाल बताते हैं कि 70 साल पहले तक स्थिति उनके अनुकूल थीं। तकनीक और मशीन से पानी का काम होने के बाद शहरों और कस्बों से भिश्तियों का वजूद खत्म हो गया। ऐसे समय में उनकी जरूरत भी नहीं रही। जब इनके बिना भी पानी का बंदोबस्त हो गया तो वे दरकिनार कर दिए गए। वह बताते हैं कि शहर की आबादी के साथ पानी की मांग बढ़ने पर नल, पाइपलाइन, मोटर, फिल्टर के चलन के बाद भिश्ती अप्रासंगिक हो गए। 2020 में कोरोनाकाल से पहले तक जामा मस्जिद में तीन से चार भिश्ती मशक से पानी की आपूर्ति किया करते थे, लेकिन लॉकडाउन और महामारी ने पहले से विलुप्तप्राय इस प्रजाति को खत्म होने की कगार पर पहुंचा दिया।
माना जाता है कि भिश्ती मूलत अरब के रहने वाले थे जो मध्यकाल में मुगलों के साथ भारत आ गए। शुरुआत में वे मुगल सेना और ग्रामीणों को निशुल्क पानी पिलाते थे लेकिन बाद में उन्होंने पानी पिलाने को अपना पेशा बना लिया। इन्हें लोकप्रियता तब मिली, जब निजाम नामक भिश्ती ने मुगल बादशाह हुमायूं को गंगा नदी में डूबने से बचाया। बाद में हुमायूं ने अपनी जान बचाने वाले निजाम को एक दिन का बादशाह बना दिया। एक दिन की बादशाही में निजाम ने चमड़े के सिक्के चलवा दिए थे। मुगल साम्राज्य के पतन के बाद भिश्तियों ने ब्रिटिश सेना को अपनी सेवाएं दीं। वे युद्ध के दौरान घायल सैनिकों को अपनी जान की परवाह किए पानी पिलाते थे।
गली सक्कों वाली
जामा मस्जिद से करीब 500 मीटर की दूरी पर मटिया महल के पास सक्कों वाली गली है। इस तंग और अंधेरी गली में शायद ही सूरज की रोशनी पहुंचती हो। यह गली सक्कों यानी भिश्तियों की पुरानी बस्ती है, लेकिन मौजूदा समय में यहां कोई भी सक्का मशक से पानी पिलाने या उसकी आपूर्ति का काम नहीं करता। 56 वर्षीय आका भाई भी यहां रहते हैं जो भिश्ती समाज से ताल्लुक रखते हैं। उनके परिवार ने 15 साल पहले अपना पुश्तैनी काम छोड़कर खानसामा का काम अपना लिया।
सक्कों वाली गली में रहने वाले 55 वर्षीय शाहिद के पिता भी मशक से पानी पहुंचाने का काम करते थे, लेकिन शाहिद ने पिता के निधन के बाद हलवा बेचने का काम शुरू कर दिया। सक्कों वाली गली में करीब 20 परिवारों के 105 सदस्य रहते हैं। सभी अतीत का पुश्तैनी काम छोड़ चुके हैं। आका भाई बताते हैं कि शाहजहां के समय में हमें बसाया गया था। हमारे पूर्वज महलों में पानी भरते थे और वे बादशाही मुलाजिम थे। परंपरागत पेशे से घर न चलने के कारण ज्यादातर लोगों ने कैटरिंग का काम अपना लिया है। गली में रहने वाले मोहम्मद अली आखिरी शख्स थे जो मशक में पानी भरकर नालियों की सफाई करते थे। वह दिल्ली नगर निगम में कार्यरत थे। दो साल पहले उनके निधन के बाद मशक से काम करने वाला गली का आखिरी शख्स भी इतिहास में दर्ज हो गया।
पुरानी दिल्ली में लंबे वक्त तक रह चुके वरिष्ठ पत्रकार रामेश्वर दयाल बताते हैं कि एमसीडी में भिश्तियों का स्थायी पद होता था। ये लोग नालियों की सफाई के अलावा सड़क पर पानी का छिड़काव करते थे। एमसीडी में अब इस पद को खत्म कर दिया गया है। रामेश्वर दयाल के अनुसार, पुरानी दिल्ली क्षेत्र में दो से तीन दशक पहले तक बड़ी संख्या में भिश्ती देखे जा सकते थे। वे एक बेहद शानदार तांबे के कटोरे से पानी पिलाते थे और उसे छन-छन बजाते थे। छन-छन की आवाज सुनकर प्यासे लोग उनके पास पहुंच जाते थे और उनके कटोरे में पानी पीकर अपनी प्यास बुझा लेते थे। रामेश्वर दयाल मानते हैं, “कोविड काल में उनकी प्रजाति विलुप्ति की कगार पर पहुंच गई है और ये लोग भी विकास की भेंट चढ़ गए हैं।”