पूरब की नष्ट होती जल संस्कृति: छठी मईया होइ ना सहाय
छठ व्रत की शुरुआत हो चुकी है, बिहार-झारखण्ड और पूर्वांचल का यह महापर्व अब मोतिहारी से मैनचेस्टर और बेगूसराय से बोस्टन तक पहुंच पुरबियों के साथ-साथ अब ग्लोबल हो चला है।
बदल रही स्थानीय और वैश्विक जलवायु, प्रदूषण, उजड़ते जंगल और क्षीण होती जैव-विविधता का असर किसी न किसी रूप में अब हर घर पहुंच रहा है, ऐसे में प्रकृति के साथ मानव के संबंधों पर खुलकर चर्चा भी होने लगी है।
अब हमारे हर क्रिया कलाप चाहे वो आर्थिक हो, सामाजिक हो, धार्मिक हो या व्यक्तिगत यहाँ तक कि खानपान ही क्यों ना हो पर बात होने लगी है कि इन सब का पर्यावरण पर क्या प्रभाव है।
अभी हाल ही में एक वैश्विक रैंकिंग में एक आम भारतीय के खानपान को धरती पर का सबसे ज्यादा प्रकृति सम्मत माना गया है। हालांकि कुछ आर्थिक गतिविधियों को छोड़ यह जागरूकता अभी इस विमर्श के स्तर तक ही पहुंच पायी है।
इसी क्रम में परम्परागत रूप से भोजपुरी, मगही, अंगिका मैथिली, खोरठा और कुछ-कुछ पश्चिम के अवधी से शुरू होकर पूरब के बंगाल के द्वार तक में मनाया जाने वाला छठी छठ पूजन अपने प्रकृति सम्मत स्वरुप के कारण बरबस लोगो का ध्यान अपनी तरफ खींच रहा है, जिसमें ना सिर्फ पर्यावरण से जुड़े लोग शामिल है बल्कि समाजशास्त्री, आर्थिकी, भाषाविद, और नियोजन के अकादमिक लोग भी शामिल हैं।
इस पर्व के सामाजिक, आर्थिक, पर्यावरणीय सन्दर्भ को जांचा परखा जाने लगा है। यहाँ तक कहा जा रहा है कि छठ पूजा प्रकृति से मानव जुड़ाव का मूर्त निरूपण है और यह सतत विकास के स्वरुप को आमजान के साथ जोड़कर इसे जमीं तक लाने की दिशा में प्रभावी जन त्यौहार है।
बिहार जैसे पिछड़े इलाके का यह पर्व, जिसके मूल में आस्था, स्वच्छता, सरलता, सहजीवन, निश्छलता रही है, अचानक से इसका स्वरुप अखिल भारतीय होने लगता है, और कुछ हद तक वैश्विक भी।
यहां तक कि छठ पूजा भारत की राजधानी दिल्ली में अभी नाला बन चुकी युमना नदी पर हो रहे राजनैतिक विमर्श का मुद्दा बन चुकी हैं, जिसमें राज्य सरकार और केंद्र की सरकार आमने-सामने है।
धीरे-धीरे यह त्योहार पहले रोजी रोटी की तलाश में निकले बिहारियों के साथ भारत भर में फैला, फिर प्रवासी बिहारियों के साथ-साथ विश्वभर में प्रचलित होने लगा है। छठ पूजा साक्षात देवता सूर्य, प्रकृति के सभी अंगों जिसमें,जल, वायु, और उनकी बहन छठी मइया को समर्पित है, जिसमें उन्हें पृथ्वी पर जीवन को बहाल करने के लिए धन्यवाद स्वरुप स्थानीय फल-फूल कंद-मूल के रूप में अर्घ्य समर्पित किया जाता है।
पार्वती का छठा रूप भगवान सूर्य की बहन छठी मैया को त्योहार की देवी के रूप में पूजा जाता है। इस पर्व को आदिम स्वरुप और उसी सहजता के साथ मनाये जाने का रिवाज है, जो छठी मैया को समर्पित अर्घ्य में शामिल वस्तुओ जिसमें सुलभता से उपलब्ध फल, सब्जी, कंद, सबसे आसान मिठाई ठेकुआ, बताशा के अलावा पूजा कर रही व्रती के खान-पान और पोशाक में भी दीखता है। आधुनिकता के उफान के बावजूद भी कुछ व्रती बिना सिलाई के वस्त्र पहनती हैं।
छठी मईया पूजन की शुरुआत के कई सन्दर्भ है जो इसे आदिम बनाते हैं, जिसका सिरा सूर्य उपासना को लेकर वैदिक सन्दर्भ से जुड़ता है। माता सीता और द्रौपदी द्वारा छठ पूजा करने का भी संदर्भ मिलता है वहीं चीन के बौद्ध यात्री भी छठ मनाने का जिक्र करते हैं।
चूंकि यह पर्व उन्हीं इलाकों में व्यापक रूप से मनाया जाता है, जो कभी भगवान् बुद्ध की कर्म भूमि रही थी, तो इसे बुद्ध से जुड़ा भी माना जा सकता है।
वही छठ वाले इलाके के युवा पत्रकार शशि शेखर छठी मईया के स्वरुप को दक्षिण भारत में पूजे जाने वाली देवी देवसेना के समकक्ष मानते हैं और इसके लिए कुछ सन्दर्भ का हवाला देकर इस पर्व को जो की भारत के पुरबिया संस्कृति की पहचान है इसे पूरब और दक्षिण के एकात्मकता का सूत्र मानते हैं।
हालांकि इस स्थापना के लिए अभी पुष्ट आधार तलाशा जाना बाकी है। छठ के सामाजिक पहलू पर बहुत कुछ लिखा पढ़ा जा चुका है, जिसका लब्बोलुआब सामाजिक समरसता से जुड़ा हुआ है, जो सामाजिक रूढ़िता और पिछड़ेपन से ग्रसित पूरब के इन इलाको के लिए ऑक्सीजन जैसा है।
छठी मईया के पूजन के दौरान कुछ हद तक जातियों में बंटे समाज समरसता पा जाता है। छठ पूजा तो इस मामले में जाति से इतर धर्म की गाँठ को भी ढीला करती नज़र आती है। सीटू तिवारी अपने बीबीसी हिंदी के एक वीडियो आलेख में पटना के नजमा खातून द्वारा पिछले एक दशक से छठ पर्व मनाने का जिक्र करती है।
इसी तरह की कई मुस्लिम छठ वर्ती पूरी श्रद्धा से इस लोक पर्व को मनाते मिल जाएंगी| बिहार के कोसी के इलाको में बाढ़ और समाज पर काम करने वाले राहुल यादुका छठ पूजा को लेकर सोशल मीडिया से एक जुड़े एक अनोखे सामजिकीय अपवाद की तरफ इशारा करते है "आम तौर पर सर्वहारा वर्ग एलिट वर्ग की संस्कृति को कॉपी करता है, लेकिन छठ इस मामले में अपवाद है" और इस बात की स्थापना के लिए समृद्ध वर्ग द्वारा बढ़-चढ़ कर सोशल मीडिया पर छठ से जुड़े बन रहे रील का हवाला देते है।
हालांकि छठ पूजा समाज के दोनों वर्गों में सामान रूप से लोकप्रिय रहा है, या यूँ कहे कि छठ पूजा के ले ये वर्ग विभेद का सन्दर्भ सही नहीं लगता।
पूजा के आदिम स्वरुप, स्थानिकता और सरलता के साथ-साथ छठी मईया की पूजा प्रकृति की ही पूजा है, जो असल में प्रकृति के तमाम मूर्त-अमूर्त अव्ययों के प्रति हमारी कृतज्ञता की लोक अभिव्यक्ति है। पानी में खड़े हो कर अस्तचलगामी और उगते सूर्य को अर्घ्य अर्पण हमारी जल संस्कृति की सभ्यतागत सशक्त अभिव्यक्ति है जो लोकप्रवृत्ति और लोकाचार में आज भी जीवंत है। स्थानीय जलस्रोत जिसमें नदी, पोखर, झील आदि जिसके जिसके किनारे छठ पर्व मनाया जाता है, की सामूहिक सफाई इस त्यौहार का प्रमुख अंग रहा है, जिसमें समाज के हर वर्ग के लोग के श्रमदान से पूरा होता है। छठ पूजा के शुरुआत में ही खुद छठी मईया लोकगीत के माध्यम से आह्वान करती है कि बरसात के बाद नदी पोखर की सफाई की जरुरत है।
कोपी कोपी बोलेली छठी मैया सुन हो सेवक लोग
हमारा घाट दुबिया उपज गइले मकरी बसेरा लीहले
कर जोरी बोलले सेवक जन
रौरा घाटे दुभवा उखाड़ी देब, मकरी बहारी देब,
गोबरे लिपवाई देब चनन छिड़की देब
पर अब स्थिति बदली है, अब जल स्रोत दायरा ना सिर्फ कम हुआ है बल्कि प्रदूषण के शिकार भी हुए है, साथ ही साथ सामूहिक श्रमदान जो कि सामाजिक जकड़न को तोड़ता था अब ये प्रवृति भी घटी है। छठ के मौके सवाल है कि पानी के प्रति सदियों से देवता समान आस्था रखने वाला समाज, क्या आज भी पानी, नदी, तालाब, झीलों के प्रति संवेदनशील है? तो इसका मौजूदा सन्दर्भ में जबाब है नहीं। पिछले कुछ सालों से दिल्ली के नाला बन चुकी यमुना के सफ़ेद झाग के बीच सूर्य को अर्घ्य देते व्रतियों की फोटो आम हो है और यह दर्शाता है कि हमारा समाज पानी के प्रति सतही हो चला है। धीरे-धीरे प्रकृति के प्रति सामाजिक श्रद्धा अब पाखंड में बदलती जा रही है और हम उसी पाखंड का सार्वजनिक निरूपण करने को अभिशप्त हैं।
हमारी आस्था का धर्मभीरू हो जाना केवल यमुना की दुर्दशा तक सीमित नहीं है, इसके शिकार हमारे सभी जल के स्रोत हो रहे हैं, लगभग हर नदी पोखर जहाँ भी छठी मईया को अर्घ्य दिया जायेगा, धीरे-धीरे दिल्ली की यमुना में बदलती मिलेगी वही हमारी छठ के प्रति आस्था का सैलाब और बढ़ता जा रहा है। अब हर शहर गाँव की अपनी यमुना है, कहीं नदी के रूप में तो कहीं तालाब के रूप में, जो धीरे-धीरे या तो विलुप्त हो रही है या नाला बन चुकी है। अनेक जगहों पर तो शहरी नदियाँ और तालाब तो सिर्फ अंग्रेजो के जमाने के गजेटियर में ही बचे रह गये हैं। उदाहरण के लिए सुदूर चंपारण के मोतिहारी शहर में नामचीन मोतीझील है जो शहरी अतिक्रमण, प्रशासनिक अकर्मण्यता और अराजक राजनीति के कारण सिकुड़ रही है, मर रही है। मोती जैसे चमकने वाले विशाल झील में ऐसी स्थिति नहीं रही की छठ पूजा निमित व्रती साफ़ पानी का आचमन कर अस्तचालगामी और उगते सूरज को अर्घ्य अर्पित कर सकें। मोती झील के लिए क़ानूनी लड़ाई लड़ रहे युवा वकील कुमार अमित हमारी मरती जा रही सामूहिक चेतना पर चोट करते हुए कहते है कि अगर हम इसी तरह मोती झील में हो रहे अतिक्रमण और प्रशासनिक अकर्मण्यता पर चुप रहे तो अगली पीढ़ी छठ पूजा तो करती रहेगी पर शायद पोखर और झील के किनारे नहीं बल्कि लोटे के जल से आचमन कर छठी मईया से सहाय होने की गुहार लगाकर। ये केवल मोतिहारी के मोती झील का हाल नहीं है, लगभग हर जिले शहर के तालाबों की यही दुर्दशा है। तालाबों के शहर दरभंगा में 'तालाब बचाओ अभियान' के श्यामनन्द झा इसे स्थानीय लोगो के सहयोग से मिशन बना चुके है, जिसमे इन्हे सफलता भी मिली हैं। वो मानते है कि तालाब, पोखर स्थानीय संस्कृति के मूल है और इनका विलुप्त होना एक समाज से उसकी पहचान छीन लेने के सामान है।
छठ के व्यापक हो रहे सदर्भ और उसकी स्वीकार्यता के साथ साथ इस पर्व के आदिम स्वरुप को भी बचा के रखना जरुरी है और उसके लिए जरुरी है की हमारे पोखर तालाब झील नदियां साफ़ रहे उनका दायरा सिकुड़े नहीं। आज छठी मईया तक आमजन की आवाज़ पहुँचाने वाली बिहार कोकिला शारदा सिन्हा हम सब के बीच नहीं हैं, ऐसे में उनको श्रद्धांजली देते हुए उनकी आवाज़ में छठी मईया को ही हर एक पोखर तालाब की तरफ से गोहराते है ताकि उनके भक्त सेवक लोग नदी पोखर झील तालाब की सुध ले
दुखवा मिटाई छठी मईया
रउए असरा हमार
सबके पुरावेनी मनसा
हमरो सुन ली पुकार