सात राज्यों के 16 शहरों की पड़ताल: कहां-कितना साफ हो रहा है गंदा पानी?

पानी की कमी अब एक सच्चाई बन चुकी है। वैश्विक मानक बताते हैं कि भारत जल संकट के दौर में है। ऐसे में अगर हम एक बार इस्तेमाल हो चुके पानी को साफ करके दोबारा इस्तेमाल करें तो इससे न सिर्फ पानी की आपूर्ति बढ़ सकती है, बल्कि गंदे पानी के इस्तेमाल की बड़ी चिंता का हल भी मिल सकता है। फराज अहमद और सुमिता सिंघल ने सात राज्यों के 16 शहरों में जाकर यह समझने की कोशिश की है कि गंदे पानी का प्रबंधन कैसे हो रहा है। उन्होंने यह भी देखा कि किन जगहों पर इसे दोबारा इस्तेमाल किया जा रहा है, कहां अब भी मुश्किलें हैं और भविष्य में कैसे हम इसका बेहतर इस्तेमाल कर सकते हैं
बेंगलुरु की एक झील में हेब्बल-नगवाड़ा घाटी परियोजना से गंदे पानी को साफ करके डाला जाता है, जिससे झील भरी रहती है
बेंगलुरु की एक झील में हेब्बल-नगवाड़ा घाटी परियोजना से गंदे पानी को साफ करके डाला जाता है, जिससे झील भरी रहती है - फोटो: फराज अहमद / सीएसई
Published on

भारत को अगर एक प्यासा देश कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। भारत में हर साल एक व्यक्ति को मिलने वाला ताजा पानी 1,700 घन मीटर के अंतरराष्ट्रीय मानक से कम है। यही कारण है कि भारत प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता के मामले में दुनिया में 132वें स्थान पर है। यह स्थिति देश को “जल संकटग्रस्त” बनाती है। भारत सरकार के इंडिया वाटर रिसोर्स इनफॉरमेशन सिस्टम रिपोर्ट के मुताबिक देश में 1950 से 2024 के बीच प्रति व्यक्ति सतही जल की उपलब्धता में 73 प्रतिशत की गिरावट आई है(देखें : सतही जल की कमी,)। यदि इस समस्या के समाधान के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया तो भारत “जल अभावग्रस्त” देश बन सकता है। यानी ऐसी संकटग्रस्त स्थिति जब प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष पानी की उपलब्धता 1,000 घन मीटर से कम हो जाती है।

दिल्ली, मुंबई, पुणे, हैदराबाद और चेन्नई जैसे बड़े शहरों के साथ-साथ कई छोटे और मध्यम आकार के शहर एक ऐसे अंधकारमय भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं जहां उनके जल स्रोत पूरी तरह खत्म हो सकते हैं। पिछले वर्ष ही बेंगलुरु को अभूतपूर्व जल संकट का सामना करना पड़ा था। भारत में तेज गति से शहरीकरण हो रहा है और शहरीकरण के ज्यादातर कामों में योजनाओं का अभाव है जो जलसंकट की स्थिति को और ज्यादा बिगाड़ सकता है। खासकर ऐसे समय में जब जलवायु परिवर्तन जल चक्र को और तेज कर रहा है, जिसका असर बार-बार आने वाली बाढ़, सूखे और जल संकट जैसी समस्याओं के रूप में दिखाई देता है। गंदा पानी साफ करके फिर से इस्तेमाल करना अब पानी बचाने और आने वाले संकट से निपटने का तरीका बनता जा रहा है।

गंदे पानी को साफ करना और फिर उसे इस्तेमाल करना अब पानी बचाने और आने वाले जलसंकट से निपटने का नया तरीका माना जा रहा है। सीधी बात ये है कि जो भी पानी इस्तेमाल हो चुका है, वह गंदा पानी है। अगर उसे दोबारा इस्तेमाल किया जाए तो एक तरफ पानी की कमी दूर होगी और दूसरी तरफ गंदे पानी को बिना साफ किए फेंकने से जो नुकसान होता है, वह भी कम होगा। भारत के शहरों में हर रोज बहुत सारा गंदा पानी निकलता है, लेकिन उसका ज्यादातर हिस्सा दोबारा काम में नहीं आता क्योंकि अब तक गंदे पानी को बस निपटान की चीज समझा गया है, उसे फिर से इस्तेमाल करने लायक नहीं माना गया है।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के मुताबिक, साल 2020-21 में भारत के शहरों में हर दिन करीब 72,368 एमएलडी सीवेज निकला, हालांकि इसमें से महज 28 फीसदी यानी 20,236 एमएलडी को ही साफ किया गया। बाकी 72 फीसदी सीवेज बिना किसी सफाई के सीधे नदियों, तालाबों या जमीन में छोड़ दिया गया, जबकि यही गंदा पानी है जिसे दोबारा इस्तेमाल करके काम में लाया जा सकता है। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि भारत के शहरों से निकलने वाले सीवेज के उपचार के लिए संयंत्रों की क्षमता बस 31,841 एमएलडी की है और इनकी वास्तविक परिचालन क्षमता महज 26,869 एमएलडी ही थी।

शहरी जनसंख्या अनुमानों के आंकड़े बताते हैं कि आने वाले 25 सालों में शहरों से निकलने वाले अपशिष्ट जल की मात्रा करीब 75 से 80 फीसदी तक बढ़ जाएगी। मतलब, हर दिन करीब 1.3 लाख करोड़ लीटर गंदा पानी पैदा होगा (देखें: भविष्य में अनुमानित अपशिष्ट जल,)।

अगर अनुमान लगाएं तो इस दर से हर साल लगभग 8,000 करोड़ घन मीटर (बीसीएम) अतिरिक्त गंदा पानी निकलेगा। इस हिसाब से 2050 तक हर साल करीब 4,800 करोड़ घन मीटर गंदा पानी पैदा होने का अंदाजा है। ये मौजूदा पानी को उपचारित करने की क्षमता से करीब 3.5 गुना ज्यादा होगा। यानी हमें अपशिष्ट जल के उपचार क्षमता को बढ़ाना होगा और गंदे पानी को इकट्ठा करके दोबारा इस्तेमाल करने के लिए पक्की और मजबूत व्यवस्था बनानी होगी।

केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय ने यह अनिवार्य किया है कि शहरों को अपने इस्तेमाल किए गए पानी का कम से कम 20 फीसदी दोबारा साफ करके फिर से इस्तेमाल करना चाहिए। नीति आयोग के कंपोजिट वाटर मैनेजमेंट इंडेक्स के मुताबिक राज्य तो पानी के बेहतर इस्तेमाल की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन कुल मिलाकर उनकी हालत अब भी काफी कमजोर है।

वर्ष 2017-19 के दौरान आकलन किए गए 80 प्रतिशत राज्यों ने अपने वाटर मैनेजमेंट स्कोर में औसतन +5.2 अंकों की वृद्धि दिखाई है। लेकिन भारत के 16 राज्य अब भी 100 में से 50 से कम अंक प्राप्त कर पाए हैं और कम प्रदर्शन करने वाले श्रेणी में आते हैं। ये 16 राज्य भारत की 48 प्रतिशत जनसंख्या, 40 प्रतिशत कृषि उत्पादन और 35 प्रतिशत आर्थिक उत्पादन के लिए जिम्मेदार हैं।

पिछले कुछ वर्षों में दिल्ली स्थित गैर लाभकारी संस्था सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने देश में गंदे पानी यानी अपशिष्ट जल के प्रबंधन की स्थिति को समझने के लिए सात राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों -दिल्ली, राजस्थान, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और कर्नाटक के 16 शहरों में 35 केस स्टडी का गहराई से विश्लेषण किया है (देखें : नीति की स्थिति, पृष्ठ 49)। इस अध्ययन का मकसद यह जानना था कि देश में साफ किए गए गंदे पानी को दोबारा इस्तेमाल करने के लिए क्या किया जा रहा है? इसमें कौन-कौन सी मुश्किलें आ रही हैं? क्या काम कर रहा है और क्या नहीं। साथ ही ऐसा क्यों हो रहा है। इस दौरान टीम ने अलग-अलग जगह जाकर देखा कि ट्रीटमेंट प्लांट से निकले हुए साफ किए गए पानी का दोबारा कैसे और कहां इस्तेमाल हो रहा है। दस्तावेजों और सरकारी रिकॉर्ड की मदद से यह भी समझने की कोशिश हुई कि शहरों में दोबारा पानी इस्तेमाल करने की प्रथा कितनी अपनाई जा रही है और सरकार की क्या-क्या योजनाएं इसे बढ़ावा देने के लिए मौजूद हैं। इस अध्ययन के निष्कर्ष “वेस्ट टु वर्थ: मैनेजिंग इंडियाज अर्बन वाटर क्राइसिस थ्रू वेस्टवाटर रीयूज” नामक रिपोर्ट में प्रकाशित किए गए हैं, जो नीति निर्माताओं और विशेषज्ञों के लिए महत्वपूर्ण जानकारियां प्रदान करते हैं। यह अध्ययन सिर्फ केंद्रीकृत उपचार संयंत्रों से साफ किए गए गंदे पानी के दोबारा इस्तेमाल पर ध्यान देता है। छोटे घरों, संस्थानों या समुदायिक स्तर पर लगे विकेंद्रीकृत उपचार संयंत्रों पर नहीं। इस अध्ययन में यह भी सिफारिश की गई है कि खेती, फैक्ट्रियों और निर्माण जैसे अलग-अलग कामों में इस पानी को कैसे दोबारा इस्तेमाल किया जा सकता है।

दिल्ली के पप्पन कलां में एक झील बनाई गई है, जिसमें पास के सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट से साफ किया गया गंदा पानी इस्तेमाल किया गया है
दिल्ली के पप्पन कलां में एक झील बनाई गई है, जिसमें पास के सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट से साफ किया गया गंदा पानी इस्तेमाल किया गया है

दिल्ली

  • कुल अपशिष्ट जल/सीवेज उत्पादन: 3,600 एमएलडी

  • कुल अपशिष्ट जल/सीवेज उपचार क्षमता: 3,033 एमएलडी

  • उपचार किया जा रहा कुल अपशिष्ट जल/सीवेज: 2,587 एमएलडी

  • पुनः उपयोग किया जा रहा अपशिष्ट जल: 49 फीसदी

  • अनुशंसित पुनः उपयोग : झील पुनर्भरण, थर्मल पावर प्लांट, बागवानी

दिल्ली के पास खुद के जल स्रोत बहुत कम हैं, इसलिए उसे गंगा (ऊपरी गंगा नहर के जरिए), यमुना, रावी और ब्यास (भाखड़ा डैम से) जैसे बाहरी स्रोतों पर निर्भर रहना पड़ता है। इन जलस्रोतों पर दिल्ली का सीधा नियंत्रण नहीं है। साथ ही, इन्हीं नदियों पर ऊपर और नीचे के इलाकों वाले राज्यों का भी दबाव रहता है। साल 2019 में दिल्ली जल बोर्ड (डीजेबी) राजधानी की रोज की 4,770 लाख लीटर पानी की जरूरत में से सिर्फ 74 प्रतिशत ही पूरी कर पाया। दिल्ली में जल आपूर्ति और उपयोग का दायरा इतना बड़ा है कि इससे भारी मात्रा में अपशिष्ट जल उत्पन्न होता है। दिल्ली में 37 सीवेज उपचार संयंत्र हैं जिनकी कुल क्षमता 3,033 एमएलडी है। वर्तमान में इनमें से 2,587 एमएलडी की क्षमता का उपयोग हो रहा है। दिल्ली में पानी की मांग दिन-ब-दिन बढ़ रही है, लेकिन पानी के स्रोत बहुत सीमित हैं। ऐसे में नहाने, सफाई या बगीचे जैसी गैर-पीने की जरूरतों के लिए साफ किए गए (उपचारित) गंदे पानी का दोबारा इस्तेमाल एक समझदारी भरा तरीका हो सकता है। दिल्ली इस समय 666 एमएलडी उपचारित गंदा पानी दोबारा इस्तेमाल कर रही है। इसमें से 409 एमएलडी बागों में बागवानी के लिए, 159 एमएलडी झीलों और जलाशयों को संवारने और उनकी हालत सुधारने के लिए और 98 एमएलडी दिल्ली के सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण विभाग द्वारा बागवानी और खेती के काम में लिया जा रहा है। वहीं, दिल्ली जल बोर्ड (डीजेबी) ने एक योजना बनाई है जिसमें कोरोनेशन पिलर के पास वेटलैंड और जहांगीरपुरी की भलस्वा झील को भरने के लिए 357 एमएलडी उपचारित पानी इस्तेमाल किया जाएगा। इसके अलावा 332 एमएलडी पानी झीलों के विकास और पुनरुद्धार के लिए दोबारा इस्तेमाल किया जा सकता है। पार्कों और झीलों के पास ही गंदा पानी साफ करने वाले उपचार संयंत्र लगाए जा रहे हैं ताकि वहां की जरूरतों के हिसाब से पानी का दोबारा इस्तेमाल किया जा सके और आगे की योजना बनाई जा सके।

दिल्ली-राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की ड्राफ्ट जल नीति, 2016 ने साफ किए गए गंदे पानी के दोबारा इस्तेमाल को बढ़ावा देने की अच्छी कोशिश की है। इस नीति में लक्ष्य तय किए गए हैं और पानी के इस्तेमाल को छोटे-छोटे स्तरों पर बांटने की बात कही गई है। इसकी कार्य योजना का मुख्य ध्यान झीलों, तालाबों और पार्कों को फिर से जीवित करने पर है, ताकि साफ किए गए गंदे पानी से भूजल स्तर को बढ़ाया जा सके और पानी की आपूर्ति बेहतर की जा सके। हालांकि, इस तरह से दोबारा इस्तेमाल तभी संभव है जब साफ किया गया पानी अच्छी गुणवत्ता का हो। अभी की स्थिति यह है कि दिल्ली के 37 में से 21 सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) तय मानकों पर खरे नहीं उतरते।

दिल्ली-एनसीआर में 11 थर्मल पावर प्लांट हैं। नीति के अनुसार इन पावर प्लांटों में साफ किए गए गंदे पानी का उपयोग करना जरूरी है, लेकिन दिल्ली में ऐसा कोई प्लान अभी घोषित नहीं किया गया है, जिससे साफ किया गया पानी इन प्लांटों में इस्तेमाल हो सके।

राजस्थान

  • कुल अपशिष्ट जल/सीवेज उत्पादन: 1,551 एमएलडी

  • कुल अपशिष्ट जल/सीवेज उपचार क्षमता : 1,299 एमएलडी

  • उपचार किया जा रहा कुल अपशिष्ट जल/सीवेज : 956 एमएलडी

  • पुनः उपयोग की जा रही मात्रा : 29 फीसदी

  • अनुशंसित पुनः उपयोग : कृषि, झील पुनर्भरण, उद्योग

राजस्थान को एक ऐसा राज्य माना जाता है जहां पानी की बहुत कमी है। यहां हर व्यक्ति को सालभर में औसतन 800 घन मीटर से भी कम पानी मिलता है। राज्य में पानी की मांग और उपलब्धता के बीच करीब 30 प्रतिशत का अंतर है। यानी जितना पानी चाहिए उसका एक बड़ा हिस्सा मिल नहीं पाता। राजस्थान में खेती के लिए बहुत ज्यादा मात्रा में भूजल का इस्तेमाल होता है। यहां पीने के लिए करीब 90 प्रतिशत और सिंचाई के लिए लगभग 60 प्रतिशत पानी भूजल स्रोतों से लिया जाता है। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) में राजस्थान सरकार की ओर से पेश ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य में 1,551 एमएलडी सीवेज उत्पन्न होता है। राज्य में कुल 118 एसटीपी चालू हैं। वर्तमान में, कुल 1,299 एमएलडी क्षमता में से 956 एमएलडी का उपयोग सीवेज के उपचार के लिए किया जा रहा है, जिससे 343 एमएलडी की कमी है। इससे पता चलता है कि करीब 61 प्रतिशत सीवेज का ही उपचार हो रहा है। इसके अलावा, 179 एमएलडी की कुल क्षमता वाले 13 एसटीपी केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के मानकों के अनुकूल नहीं हैं।

राज्य में स्थापित कुल क्षमता में से केवल जयपुर की हिस्सेदारी 40 प्रतिशत है, जिसमें 19 एसटीपी हैं जिनकी कुल क्षमता 512 एमएलडी है। जोधपुर, कोटा और बीकानेर जैसे अन्य प्रमुख शहर भी राज्य की सीवेज उपचार क्षमता में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं।

राजस्थान में जितना पानी ट्रीटमेंट के बाद साफ किया जाता है, उसे देखते हुए उसके दोबारा इस्तेमाल की काफी अच्छी संभावना है। मौजूदा समय में राजस्थान उपचारित यानी साफ किए गए पानी का सिर्फ 29 प्रतिशत ही दोबारा इस्तेमाल कर रहा है। राज्य के पास इसके लिए कोई ठोस नीति नहीं है, लेकिन एक छोटी सी कार्य योजना जरूर है। हालांकि इस योजना को ठीक से लागू नहीं किया गया है और तय समय पर काम पूरा नहीं हो रहा है। इसलिए अब जरूरी है कि हर शहर के लिए अलग से प्लान तैयार किया जाए ताकि साफ किए गए पानी का बेहतर इस्तेमाल हो सके। वहीं, जयपुर और कुछ दूसरे शहरों में साफ पानी का एक बड़ा हिस्सा खेती में इस्तेमाल होता है, क्योंकि वहां नहर की सुविधा मौजूद है। हालांकि यह इस्तेमाल ज्यादातर अनौपचारिक तरीके से यानी बिना किसी तय नियम के हो रहा है।

इसके उलट सीमेंट, लोहा और जस्ता जैसे उद्योग, जिन्हें ज्यादा पानी की जरूरत होती है, उन्होंने उपचारित पानी के इस्तेमाल के लिए अधिकार सुरक्षित करने के औपचारिक इंतजाम किए हैं। और यह खासतौर पर उन इलाकों में है, जहां ताजा पानी कम मिलता है। राजस्थान में सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) मॉडल ने ताजे जल स्रोतों की सुरक्षा में भूमिका निभाई है, लेकिन इसने उपचारित जल के दोबारा इस्तेमाल को लेकर औद्योगिक इकाइयों द्वारा एकाधिकार और निजीकरण को भी जन्म दिया है।

साफ किए गए या उपचारित पानी का इस्तेमाल सही है या नहीं, यह फैसला राज्य और शहर की अधिकारियों को करना चाहिए। इससे यह तय किया जा सकेगा कि हर जरूरत के लिए सभी को पीने के लिए, खेती के लिए या दूसरी जरूरी चीजों के लिए बराबरी से पानी मिल सके। विभिन्न संयंत्रों से उपचारित होने वाले पानी की गुणवत्ता और उपयोगिता भी एक बड़ी चुनौती की तरह है। अभी राजस्थान में 13 एसटीपी ऐसे हैं जो सीपीसीबी के तय नियमों पर बिल्कुल भी खरे नहीं उतरते हैं।

जहां ये उपचारित पानी उद्योगों में इस्तेमाल होता है। वहां एसटीपी अच्छी गुणवत्ता का अच्छी क्वालिटी का पानी देते हैं, ताकि मशीनों वगैरह में इस्तेमाल हो सके। लेकिन जयपुर जैसे शहरों में जो पानी सीवेज ट्रीटमेंट के बाद निकलता है, उसकी गुणवत्ता अक्सर ठीक नहीं होती। इसलिए उसका दोबारा इस्तेमाल सुरक्षित नहीं माना जाता।

हरियाणा

  • कुल अपशिष्ट जल/सीवेज उत्पादन : 1,655 एमएलडी

  • कुल अपशिष्ट जल/सीवेज उपचार क्षमता : 1,965 एमएलडी

  • उपचार किया जा रहा कुल अपशिष्ट जल/सीवेज : 1,373 एमएलडी

  • पुनः उपयोग की जा रही मात्रा : 15.09 फीसदी

  • अनुशंसित पुनः उपयोग : कृषि, उद्योग, निर्माण, झील पुनर्भरण

हरियाणा का लक्ष्य 2030 तक उपचारित जल का 80 प्रतिशत दोबारा उपयोग करना है। वहीं, राज्य ने यह भी लक्ष्य रखा है कि करीब 85 फीसदी उपचारित जल का इस्तेमाल कृषि क्षेत्र में किया जाएगा। इंटीग्रेटेड वाटर रिसोर्स एक्शन प्लान (आईडब्ल्यूआरएपी) 2023-25 के मुताबिक कुल 177 एसटीपी से हासिल उपचारित जल को सूक्ष्मसिंचाई और कृषि में उपयोग किया जाना है। उपचारित पानी के दोबारा उपयोग में कई चुनौतियां हैं। सबसे बड़ी समस्या यह है कि अधिकतर एसटीपी सीपीसीबी के नियमों का पालन नहीं करते। राज्य स्तर पर परियोजनाएं बहुत धीमी गति से आगे बढ़ रही हैं। इसके अलावा निगरानी की भी जरूरत है ताकि बिना उपचार वाला सीवेज दोबारा साफ पानी से न मिल जाए। 2021 में हरियाणा की कुल जल मांग 95,788 एमएलडी आंकी गई थी जबकि सभी स्रोतों से कुल जल उपलब्धता 57,358 एमएलडी थी, जिससे मांग-आपूर्ति में 38,430 एमएलडी का अंतर दिखता है।

हरियाणा सरकार ने नवंबर 2023 में एनजीटी को जो रिपोर्ट पेश की उसके अनुसार राज्य में अनुमानित सीवेज उत्पादन 1,655 एमएलडी है। राज्य में 180 एसटीपी हैं जिनकी कुल उपचार क्षमता 1,965 एमएलडी है। सभी एसटीपी चालू हैं और इनमें से 1,501 एमएलडी की क्षमता निकासी मानकों का अनुपालन करती है। वहीं, कुल 1,965 एमएलडी स्थापित उपचार क्षमता में से केवल 1,373 एमएलडी का वास्तव में उपयोग हो रहा है। हालांकि राज्य में स्थापित उपचार क्षमता कुल सीवेज उत्पादन से अधिक है लेकिन फरीदाबाद में 232.5 एमएलडी और गुरुग्राम में 93 एमएलडी सीवेज उपचार का अंतर है। वहीं राज्य में 300 एमएलडी क्षमता वाले 12 एसटीपी वर्तमान में निर्माणाधीन हैं और 444 एमएलडी की कुल क्षमता वाले 11 नए एसटीपी प्रस्तावित हैं।

हरियाणा राज्य आईडब्ल्यूआरएपी के जरिए जल की बचत करना चाहता है। इसके लिए वह मांग आधारित और आपूर्ति आधारित दोनों तरह के उपाय अपना रहा है। सूबे में मांग आधारित उपायों में सूक्ष्म सिंचाई, फसल विविधीकरण, धान की सीधी बुआई, संरक्षण जुताई और जल दक्षता जैसे कदम शामिल हैं। वहीं, आपूर्ति आधारित उपायों में सिंचाई के लिए भूमिगत पाइपलाइन बिछाना, नहरों की लाइनिंग, भूजल पुनर्भरण, तालाबों का पुनरुद्धार, उपचारित जल का दोबारा उपयोग और सतही जल भंडारण को बढ़ाने जैसे काम शामिल हैं। इन सभी उपायों का लक्ष्य यह है कि 2023 से 2025 की अवधि के दौरान मौजूदा जल अंतर को कम किया जाए। आंकड़ों के मुताबिक लक्ष्य 49 प्रतिशत अंतर को पाटने का था लेकिन अब यह अंतर और ज्यादा कम करना है।

पहले की योजना में अगले तीन वर्षों में इन लक्ष्यों को पूरा किया जाना था जबकि अब इन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए और भी कम समय दिया गया है। आईडब्ल्यूआरएपी के अनुसार, हरियाणा में उपचारित सीवेज से निकलने वाला ऐसा पानी जो पीने के काम में नहीं आ सकता उसका सिर्फ 15.09 प्रतिशत ही कृषि, बागवानी, निर्माण और उद्योग जैसे क्षेत्रों में इस्तेमाल हो रहा है। वहीं, अभी सिर्फ कुछ ही बड़े जिले ही हैं जो इस उपचारित अपशिष्ट जल का दोबारा उपयोग कर रहे हैं। मिसाल के तौर पर गुरुग्राम, जो पूरे राज्य में सबसे ज्यादा उपचारित जल पैदा करता है, उसमें से 47 प्रतिशत पानी वह दोबारा इस्तेमाल करता है।

इसके बाद कुरुक्षेत्र 35 प्रतिशत, पंचकूला 34 प्रतिशत, सोनीपत 31 प्रतिशत, फरीदाबाद 25 प्रतिशत, झज्जर 14 प्रतिशत और रेवाड़ी करीब 5 प्रतिशत उपचारित पानी का उपयोग कर रहे हैं। बाकी जगहों पर यह पानी सीधे नालों में बहा दिया जाता है। हरियाणा अभी काफी कम उपचारित पानी का इस्तेमाल कर रहा है। पूरे राज्य में सिर्फ 15 प्रतिशत उपचारित पानी दोबारा इस्तेमाल हो रहा है। वहीं, राज्य ने अगले पांच साल में बड़ा लक्ष्य तय किया है। राज्य की अब तय की गई नीति का लक्ष्य है कि 2030 तक उपचारित पानी के इस्तेमाल का आंकड़ा 80 प्रतिशत तक पहुंचे। वहीं, राज्य की योजना मार्च 2025 तक 56.7 प्रतिशत और दिसंबर 2028 तक 54.3 प्रतिशत पानी के दोबारा इस्तेमाल को अनिवार्य बनाने की है।

उत्तर प्रदेश

  • कुल अपशिष्ट जल/सीवेज उत्पादन : 5,550 एमएलडी

  • कुल अपशिष्ट जल/सीवेज उपचार क्षमता : 4,176 एमएलडी

  • उपचार किया जा रहा कुल अपशिष्ट जल/सीवेज : 3,296 एमएलडी

  • पुनः उपयोग की जा रही मात्रा : उपलब्ध नहीं

  • अनुशंसित पुनः उपयोग : कृषि, उद्योग

उत्तर प्रदेश में बड़ी मात्रा में गंदे पानी का भंडार है, जिसे यदि साफ किया जाए तो न सिर्फ शहरी इलाकों की विशिष्ट जरूरतों को पूरा किया जा सकता है बल्कि नदियों के प्रवाह को बनाए रखने के लिए भी प्रभावी रूप से दोबारा इस्तेमाल किया जा सकता है। राज्य के 762 नगरों से कुल 5,500 एमएलडी गंदा पानी निकलता है, जिसमें से 3,296 एमएलडी का उपचार 139 एसटीपी में होता है। अध्ययन के लिए सीएसई ने उत्तर प्रदेश के 16 एसटीपी का दौरा किया, जिसमें बड़े और मध्यम शहरों को प्राथमिकता दी गई।

पहले, उत्तर प्रदेश की जल नीति का फोकस भूजल प्रबंधन पर था। वर्ष 2020 से यह फोकस एसटीपी से निकलने वाले उपचारित जल के दोबारा इस्तेमाल की ओर मुड़ा है। हालांकि, अब भी राज्य में उपचारित जल का दोबारा उपयोग व्यापक स्तर पर नहीं हो रहा है। कुल स्थापित क्षमता का लगभग 50 प्रतिशत सिर्फ पांच प्रमुख शहरों जैसे लखनऊ, कानपुर, प्रयागराज, गाजियाबाद और वाराणसी में ही केंद्रित है। जिसका परिणाम है कि उपचारित जल के दोबारा इस्तेमाल की पहल इन्हीं शहरी क्षेत्रों के आस-पास के जिलों तक ही सीमित रह गई है। उपचारित जल का सबसे ज्यादा इस्तेमाल खेती में हो रहा है, चाहे वह योजना के तहत हो या अनौपचारिक तरीके से। कई बार यह पानी सीधे उत्तर प्रदेश की नहरों में मिल जाता है और वहीं से खेतों तक पहुंचता है।

राज्य में उपचारित जल के दोबारा उपयोग को लेकर कोई अनिवार्य नीति या कार्य योजना नहीं है। इसलिए लखनऊ और कानपुर जैसे प्रमुख शहरों के साथ-साथ बड़े एसटीपी को साफ पानी के दोबारा इस्तेमाल में कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। इसके लिए एक स्पष्ट शहर-स्तरीय कार्य योजना की आवश्यकता है। चूंकि उत्तर प्रदेश में गंदे पानी का दोबारा इस्तेमाल मुख्य तौर पर कृषि के लिए हो रहा है, इसलिए मात्रा और गुणवत्ता की निगरानी के लिए प्रभावी व्यवस्था की भी सख्त जरूरत है। अंतिम उपयोगकर्ताओं की सुरक्षा और स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने के लिए थर्ड पार्टी निगरानी भी जरूरी है।

कर्नाटक

  • कुल अपशिष्ट जल/सीवेज उत्पादन : 3,357 एमएलडी

  • कुल अपशिष्ट जल/सीवेज उपचार क्षमता : 2,677 एमएलडी

  • उपचार किया जा रहा कुल अपशिष्ट जल/सीवेज : 2,054 एमएलडी

  • पुनः उपयोग की जा रही मात्रा : 43%

  • अनुशंसित पुनः उपयोग : उद्योग, झील पुनर्भरण

कर्नाटक गंभीर जल संकट का सामना कर रहा है। खासकर सूखा प्रभावित क्षेत्रों और बेंगलुरु में जो अपनी बढ़ती जल आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए लगभग पूरी तरह से कावेरी नदी पर निर्भर है। ग्रामीण कर्नाटक में झीलों, तालाबों और अन्य छोटे सतही सिंचाई स्रोतों पर निर्भरता है। शहरी क्षेत्रों में घरेलू जल खपत की मांग 2030 तक 2011 के स्तर से लगभग दोगुनी हो जाने की संभावना है। इस स्थिति से निपटने के लिए नागरिक निजी स्तर पर भूजल पर आधारित व्यवस्थाओं की ओर रुख कर चुके हैं, जिससे कई बड़े और मध्यम शहरों में भूजल का अत्यधिक दोहन हुआ है। राज्य सरकार द्वारा एनजीटी को सौंपी गई ताजा रिपोर्ट के अनुसार कर्नाटक के 281 शहरों से 3,356.5 एमएलडी गंदा पानी उत्पन्न होता है। राज्य में कुल 177 एसटीपी हैं जिनकी उपचार क्षमता 2,676.51 एमएलडी है। वर्तमान में इनमें से केवल 2,054 एमएलडी (77 प्रतिशत) क्षमता का ही उपयोग हो रहा है।

राज्य की 2017 की अर्बन वेस्टवाटर रीयूज पॉलिसी के अनुसार 10 बड़े शहरों को 2020 तक योजना बनाकर गंदे पानी के दोबारा इस्तेमाल को अपनाना था और 2030 तक इसे सभी बड़े शहरों में 100 प्रतिशत तक विस्तारित करना था। नीति का उद्देश्य उपचारित जल के 20 प्रतिशत फिर से उपयोग को 2030 तक 50 प्रतिशत तक बढ़ाना भी था, लेकिन राज्य स्तर पर स्पष्ट कार्य योजना और समयसीमा की कमी है। कर्नाटक ने बेंगलुरु में घरेलू स्तर पर विकेंद्रीकृत एसटीपी को बढ़ावा देने के प्रयास किए हैं। राज्य की गंदे पानी का फिर से उपयोग कैसे होगा, इसकी नीति स्पष्ट है। इसके अंतर्गत 50 से अधिक इकाइयों वाले अपार्टमेंट परिसरों और 2,000 वर्ग मीटर से बड़े वाणिज्यिक और संस्थागत भवनों में ऑन-साइट एसटीपी अनिवार्य है और अपार्टमेंट से निकलने वाले उपचारित जल का 50 प्रतिशत गैर-पेय उपयोग के लिए बेचना अनिवार्य है, जिससे एक उपचारित जल का बाजार खड़ा हो सकता है जो शहर की जल आवश्यकता का 26 प्रतिशत पूरा कर सकता है। राज्य की कुल स्थापित क्षमता का 50 प्रतिशत बेंगलुरु में केंद्रित है और इसलिए उपचारित जल के दोबारा उपयोग की सबसे अधिक संभावनाएं भी इसी शहर में हैं। बेंगलुरु में जल संकट को देखते हुए इस दिशा में प्रयास करना अत्यंत आवश्यक है। राज्य में कुल 1,193 एमएलडी उपचारित जल में से 825 एमएलडी का उपयोग वर्तमान में झीलों के पुनरुद्धार, औद्योगिक उपयोग और सिंचाई के लिए बेंगलुरु और आस-पास के जल-संकटग्रस्त जिलों में किया जा रहा है। कोलार और चिक्कबल्लापुर जैसे जलसंकट वाले जिलों को कोरमंगला-चल्लाघट्टा घाटी और हेब्बल-नगवाड़ा घाटी परियोजनाओं से काफी लाभ हुआ है। शहर में विकेंद्रीकृत एसटीपी के जरिए पार्क, बाग-बगीचों और कुछ हद तक उद्योगों को उपचारित जल की आपूर्ति की जा रही है।

उपचारित जल के फिर से उपयोग का मुख्य फोकस झीलों के पुनर्भरण पर है, जो कुल उपचारित पानी का 75 प्रतिशत है, जबकि शेष 25 प्रतिशत कृषि, उद्योग और बागवानी के लिए प्रयोग हो रहा है। इसमें औद्योगिक उपयोग सबसे कम है। बेंगलुरु में निर्माण उद्योग में उपचारित जल के फिर से उपयोग की काफी संभावना है, जो अब तक अछूता क्षेत्र है।

तमिलनाडु

  • कुल अपशिष्ट जल/सीवेज उत्पादन : 3,938 एमएलडी

  • कुल अपशिष्ट जल/सीवेज उपचार क्षमता : 2,349 एमएलडी

  • उपचार किया जा रहा कुल अपशिष्ट जल/सीवेज : 1,093 एमएलडी

  • पुनः उपयोग की जा रही मात्रा : 17%

  • अनुशंसित पुनः उपयोग : उद्योग, झील पुनर्भरण

तमिलनाडु एक अत्यधिक शहरीकृत और औद्योगीकृत राज्य है। इसके 528 नगरों से 3,938 एमएलडी गंदा पानी उत्पन्न होता है, जिसमें से 1,093 एमएलडी का उपचार होता है। कुल उपचारित जल का 17 प्रतिशत दोबारा इस्तेमाल होता है, जिसमें से अकेले चेन्नई 58 प्रतिशत उपचारित जल का इस्तेमाल करता है। हर साल तमिलनाडु में मौसम का चरम स्वरूप देखने को मिलता है। मॉनसून की बाढ़ से लेकर गर्मियों की जल कमी और चक्रवातों तक यह सिलसिला रहता है। विशेष रूप से चेन्नई, जल संकट और बाढ़ की बारी-बारी से मार झेलता है। 2019 में दो साल के कमजोर मानसून और जलाशयों के सूख जाने के कारण “डे जीरो” तक घोषित किया गया था।

राज्य के लिए जरूरी है कि वह गंदे पानी को उपचार के बाद दोबारा उपयोग को बढ़ावा दे ताकि जलापूर्ति को बेहतर बनाया जा सके। सबसे पहले उपचारित जल का इस्तेमाल पीने के पानी के लिए होना चाहिए। उसके बाद इसे उथले जलभरों को भरने के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए, ताकि नीचे के सूखते स्रोतों में पानी वापस जा सके। इसके बाद जरूरत पड़ने पर इसे खेती के काम में लिया जाना चाहिए। हालांकि नीति में इसके लिए स्पष्ट कार्य योजना और समय-सीमा का अभाव है।

चेन्नई मेट्रोपॉलिटन वाटर सप्लाई एंड सीवरेज बोर्ड (सीएमडब्लूएसएसबी) पीपीपी मॉडल के तहत उद्योगों को तीन स्तर पर उपचारित जल की आपूर्ति कर रहा है। इस प्रक्रिया में पानी को दोबारा इस्तेमाल या सुरक्षित तरीके से बाहर निकालने लायक बनाने के लिए अतिरिक्त छनाई, रासायनिक सफाई और कीटाणु शोधन जैसे उपाय किए जाते हैं। यह प्रक्रिया महंगी होती है, इसलिए फिलहाल वही उद्योग इसका इस्तेमाल कर पा रहे हैं जो इसकी लागत उठा सकते हैं। दो स्तर पर उपचारित जल की लागत कम होती है और इसका उपयोग तालाबों, झीलों और जलाशयों के जरिए जमीन में पानी भरने के लिए किया जाना चाहिए। इस तरह से यह नीचे के सूखे जल स्रोतों को फिर से भरने में मदद कर सकता है। द्वितीयक उपचार के तहत पानी से घुले और तैरते कार्बनिक कचरे को जैविक प्रक्रिया के जरिए हटाया जाता है, जिससे यह आगे की सफाई के लिए तैयार हो जाता है। फिलहाल कुछ झीलों को तृतीयक स्तर के साफ पानी से ही भरा जा रहा है, जो महंगा विकल्प है। योजना यह थी कि इस तरह के जल पुनर्भरण को 2024 तक 260 एमएलडी तक बढ़ाया जाएगा, लेकिन यह लक्ष्य तय समय में पूरा नहीं हो सका।

राज्य के लिए आवश्यक है कि वह एसटीपी से निकलने वाले शुद्ध जल के जरिए तालाबों और झीलों के माध्यम से भूजल पुनर्भरण को प्राथमिकता दे और यह कार्य समानता और न्याय के सिद्धांतों पर आधारित हो। अगर राज्य अपने कुल गंदे पानी (3,938 एमएलडी) का सिर्फ 20 प्रतिशत भी फिर से उपयोग कर सके, तो वह शहरी जल आपूर्ति को काफी हद तक बढ़ा सकता है। हालांकि, केंद्रीयकृत उपचार जल संयंत्रों से दोबारा उपयोग की संभावना चेन्नई जैसे तटीय शहरों में सीमित है क्योंकि वहां की प्राकृतिक ढलान और भू-आकृति इसके लिए अनुकूल नहीं है।

महाराष्ट्र

  • कुल अपशिष्ट जल/सीवेज उत्पादन : 10,547 एमएलडी

  • कुल अपशिष्ट जल/सीवेज उपचार क्षमता : 7,411 एमएलडी

  • उपचार किया जा रहा कुल अपशिष्ट जल/सीवेज : 4,317 एमएलडी

  • पुनः उपयोग की जा रही मात्रा : 17%

  • अनुशंसित पुनः उपयोग क्षेत्र : कृषि, निर्माण, थर्मल पावर प्लांट्स

महाराष्ट्र का लगभग 42.5 प्रतिशत इलाका जल संकट से जूझ रहा है। ऐसे में ताजे जल स्रोतों पर दबाव कम करने के लिए उपचारित जल का उपयोग करना बेहद जरूरी है, खासकर शहरी इलाकों में जहां पानी की मांग ज्यादा है। राज्य के 414 शहरी स्थानीय निकायों से 10,547 एमएलडी गंदा पानी उत्पन्न होता है। इसमें 147 एसटीपी चालू हैं जिनकी कुल क्षमता 7,411 एमएलडी है।

वर्तमान में केवल 4,317 एमएलडी क्षमता का ही उपयोग हो रहा है। अध्ययन में शामिल दो केस स्टडी (पुणे और नागपुर) राज्य में कुल उपाचारित जल के दोबारा उपयोग का 17 प्रतिशत हिस्सा दर्शाते हैं। उपचारित जल का दोबारा उपयोग मुख्य रूप से नागपुर, पुणे और मुंबई जैसे तीन-चार बड़े शहरों तक सीमित है और राज्य के अन्य हिस्सों में इसका व्यापक प्रसार नहीं हो पाया है। वर्तमान में मुंबई में अधिकांश उपचारित जल को गुणवत्ता मानकों को पूरा करने के बाद समुद्र में छोड़ दिया जाता है। चूंकि मुंबई एक तटीय शहर है और उसकी ढलान और भू-आकृति शुद्ध जल को विपरीत दिशा में पहुंचाने के लिए अनुकूल नहीं है, इसलिए इस पर आधारित आधारभूत संरचना बनाना अत्यधिक महंगा और चुनौतीपूर्ण है। इसीलिए बृहन्मुंबई नगर पालिका ने विकेंद्रीकृत गंदे पानी उपचार कार्यक्रम को अपनाया है। जहां गंदे पानी की मात्रा कम होती है, वहां उपचारित जल का उपयोग उथले जलभरों के पुनर्भरण, जलाशयों और झीलों के पुनरुद्धार के लिए किया जा सकता है। इसलिए प्रत्येक शहर को स्थानीय मांग को ध्यान में रखते हुए अपनी स्वयं की कार्य योजना बनानी चाहिए।

महाराष्ट्र की 2019 जल नीति में उपचारित जल के दोबारा इस्तेमाल को जल उपयोग दक्षता और संरक्षण का हिस्सा बताया गया है। हालांकि, महाराष्ट्र जल संसाधन नियामक प्राधिकरण की अधिसूचना में प्रावधान होने के बावजूद राज्य में इसका कार्यान्वयन नहीं हो सका है क्योंकि कोई स्पष्ट क्रियान्वयन और संचालन तंत्र नहीं है। महाराष्ट्र जल नीति जल स्रोतों को प्रदूषित करने वालों के लिए दंडात्मक कार्रवाई का भी प्रावधान करती है। फिर भी राज्य के कई एसटीपी मानकों का पालन नहीं कर रहे हैं। उदाहरण के तौर पर पुणे के सभी नौ एसटीपी डिस्चार्ज मानकों का पालन नहीं कर रहे हैं। कुल मिलाकर, राज्य में 80 एसटीपी सीपीसीबी के मानकों के अनुरूप नहीं हैं।

नागपुर में पीपीपी मॉडल के जरिए थर्मल पावर प्लांट को जल आपूर्ति तय करने की पहल यह दर्शाती है कि साझेदारी और योजनाएं संसाधनों के प्रभावी उपयोग में कैसे सहायक हो सकती हैं। हालांकि, ऐसे मॉडल छोटे शहरों के लिए व्यवहारिक नहीं हो सकते।

उद्योगों में उपचारित जल के फिर से उपयोग के लिए तृतीयक स्तर पर उपचारित जल की जरूरत होती है जो काफी लागत वाला होता है और अक्सर दो स्तर पर उपचारित जल को अपनाने में बाधा बनता है, जबकि दो स्तर के उपचारित जल को अपनाना आसान होता है। इसलिए, जरूरी है कि द्वितीयक उपचारित जल की मांग को बढ़ाकर लक्ष्य को तेजी से प्राप्त किया जाए।

वेस्टवाटर पर नजर

उपचारित गंदे पानी के दोबारा इस्तेमाल को बढ़ावा देने और जरूरी बनाने वाली देश की नीतियों और योजनाओं का विकास

  • 2008

राष्ट्रीय शहरी स्वच्छता नीति: यह नीति गंदे पानी को साफ करके दोबारा इस्तेमाल करने को बढ़ावा देती है। इसके तहत यह जरूरी किया गया कि किसी भी शहर में गंदे पानी को साफ करके कम से कम 20 प्रतिशत उपचारित पानी इस्तेमाल किया जाए

  • 2010

सर्विस-लेवल बेंचमार्क फ्रेमवर्क: यह फ्रेमवर्क शहरों में गंदे पानी के दोबारा इस्तेमाल को बढ़ावा देता है

  • 2012

जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन (जेएनएनयूआरएम): यह मिशन 63 शहरों में 100 प्रतिशत गंदे पानी के उपचार को अनिवार्य करता है और साफ किए गए पानी के दोबारा उपयोग को बढ़ावा देता है। राष्ट्रीय जल नीति (एनडब्ल्यूपी), 2012: इस नीति का मुख्य जोर जल प्रदूषण को कम करने पर है। इसकी संशोधित मसौदा नीति, 2020, साफ किए गए पानी के पुनः उपयोग और पुनर्चक्रण को जरूरी मानती है

  • 2013

सेंट्रल पब्लिक हेल्थ एंड एनवायरनमेंटल इंजीनियरिंग ऑर्गेनाइजेशन (सीपीएचईईओ) मैनुअल ऑन सीवरेज एंड सीवेज ट्रीटमेंट सिस्टम्स: यह मैनुअल अलग-अलग कामों के लिए साफ किए गए गंदे पानी की गुणवत्ता से जुड़ी तकनीकी जानकारी और मानक प्रदान करता है

  • 2014

नमामि गंगे - नेशनल मिशन फॉर क्लीन गंगा (एनएमसीजी): इस योजना में घरेलू और औद्योगिक गंदे पानी के उपचार की पहल और साफ किए गए पानी के दोबारा उपयोग को बढ़ावा देने पर जोर दिया गया है

  • 2015

अमृत (अटल मिशन फॉर रीजुवेनेशन एंड अर्बन ट्रांसफॉर्मेशन): यह मिशन गंदे पानी के दोबारा उपयोग को बढ़ावा देता है नमामि गंगे: एनएमसीजी ने साफ किए गए गंदे पानी के पुनः उपयोग को लेकर केंद्र सरकार के बिजली, रेल और कृषि मंत्रालयों के साथ समझौता ज्ञापन (एमओयू) पर हस्ताक्षर किए हैं

  • 2016

पावर टैरिफ नीति: यह नीति थर्मल पावर प्लांटों के लिए यह जरूरी बनाती है कि अगर कोई सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट 50 किलोमीटर के दायरे में है, तो उन्हें उसी का उपचारित पानी इस्तेमाल करना होगा

  • 2017

नेशनल फीकल स्लज एंड सैप्टेज मैनेजमेंट (एफएसएसएम) नीति: इस नीति का उद्देश्य सुरक्षित स्वच्छता को सभी तक पहुंचाने के लिए मल और कीचड़ प्रबंधन को उपयोग में लाना है

  • 2019

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की गाइडलाइन : साफ किए गए गंदे पानी का उपयोग सिंचाई में करने के लिए दिशा-निर्देश जारी करता है

  • 2021

स्वच्छ भारत मिशन (एसबीएम) 2.0: इसका उद्देश्य है कि बिना साफ किए गए गंदे पानी को पर्यावरण में नहीं छोड़ा जाए। यह मिशन जितना संभव हो उतना साफ किया गया पानी दोबारा इस्तेमाल करने की सिफारिश करता है, लेकिन यह 20 प्रतिशत से कम नहीं होना चाहिए अमृत 2.0: यह योजना उन सभी शहरों के लिए अनिवार्य करती है जिनकी जनसंख्या 10,000 से ज्यादा है कि वे इस्तेमाल किए गए पानी को साफ करके उसमें से 20 प्रतिशत शहर की जल जरूरतों और 40 प्रतिशत औद्योगिक जल जरूरतों को पूरा करें

  • 2022

नेशनल फ्रेमवर्क ऑन सेफ री-यूज ऑफ ट्रीटेड वेस्टवॉटर: यह एक मार्गदर्शक दस्तावेज है जो राज्यों को अपनी पुनः उपयोग नीति बनाने और तय समय सीमा में उसे लागू करने में मदद करता है। इसमें नीति बनाने के लिए एक ड्राफ्ट टेम्पलेट भी शामिल है

  • 2024

सीपीसीबी की नेशनल ड्राफ्ट गाइडलाइन: उपचारित सीवेज के फिर से उपयोग पर, कुछ मानकों के साथ क्षेत्रवार प्राथमिकता पर जोर देता है

Related Stories

No stories found.
Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in