तकनीक ही नहीं किसानों की भागीदारी से ही संभव है जलसंकट का समाधान : शोध

शोध में पाया गया कि जिन गांव के किसानों ने सामूहिक जिम्मेदारी निभाते हुए इन 'रीचार्ज पिट्स' की नियमित सफाई और देखरेख की उन्हें लाभ मिला
नागालैंड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर प्रभाकर  शर्मा एक्वीफर रीचार्ज एंड रिकवरी को बिहार के मेयर गांव में समझाते हुए
नागालैंड यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर प्रभाकर शर्मा एक्वीफर रीचार्ज एंड रिकवरी को बिहार के मेयर गांव में समझाते हुए
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भारत के गांवों में अगर पानी की समस्या का टिकाऊ हल चाहिए, तो सिर्फ तकनीक से नहीं, बल्कि किसानों की भागीदारी से ही बदलाव मुमकिन है। नागालैंड विश्वविद्यालय के नेतृत्व में किए गए एक बहु-देशीय शोध ने यह साफ कर दिया है कि ‘एक्विफर रीचार्ज एंड रिकवरी’ यानी एएसआर जैसी तकनीक तब तक सफल नहीं हो सकती जब तक इसमें स्थानीय लोग खासकर किसान खुद भाग न लें।

शोध टीम का नेतृत्व नागालैंड विश्वविद्यालय के प्रो. प्रभाकर शर्मा ने किया, जिनके साथ स्पेन की यूनिवर्सिटी ऑफ विगो के डॉ. अविराम शर्मा, गुजरात के स्वतंत्र सलाहकार डॉ. सौरनाथ बंद्योपाध्याय, टेरी, नई दिल्ली के डॉ. अनुराग वर्मा और जापान की क्योटो यूनिवर्सिटी के शोधार्थी राहुल सिन्हा भी जुड़े। यह अध्ययन जर्नल सोसाइटल इंपैक्ट्स में जून 2025 में प्रकाशित हुआ है।

एएसआर तकनीक का उद्देश्य वर्षा या सतही जल को विशेष संरचनाओं के जरिए जमीन के भीतर पहुंचाकर भूजल स्तर को फिर से भरना है। दक्षिण बिहार के नालंदा जिले के मेयर और नेकपुर गांवों में इस तकनीक को पायलट तौर पर आजमाया गया। मेयर गांव के किसानों ने सामूहिक जिम्मेदारी निभाते हुए इन 'रीचार्ज पिट्स' की नियमित सफाई और देखरेख की, जिससे उन्हें बेहतर सिंचाई, अतिरिक्त फसलों की बुवाई और भरोसेमंद पैदावार का लाभ मिला। वहीं, नेकपुर में किसानों की उदासीनता और संदेह के कारण संरचनाएं बेकार पड़ी रहीं। यह फर्क साफ दिखाता है कि तकनीक तभी टिकती है जब लोग उसे अपनाएं।

यह शोध बताता है कि एएसआर का भविष्य केवल इंजीनियरिंग मॉडल पर नहीं, बल्कि सामाजिक सहयोग और नीतिगत समर्थन पर टिका है। अध्ययन के अनुसार एक रीचार्ज पिट की लागत करीब 33,000–35,000 रुपए आती है, जो परंपरागत बोरवेल से सस्ता है। फिर भी अधिकांश किसान खुद इस पर निवेश करने से हिचकते हैं और सरकारी या संस्थागत सहयोग की अपेक्षा करते हैं। यही कारण है कि शोधकर्ताओं ने नीति-निर्माताओं से आग्रह किया है कि वे शुरुआती चरण में मध्यम और बड़े किसानों को लक्षित कर सामूहिक भागीदारी को बढ़ावा दें।

शोध सिर्फ गांव के अनुभवों तक सीमित नहीं था। इसमें पानी की गुणवत्ता, मिट्टी की अवशोषण क्षमता, स्थल की ऊंचाई, वर्षा के आंकड़े और सामाजिक-सांस्कृतिक पहलुओं के आधार पर साइट चयन किया गया। भूगर्भीय परीक्षणों और जल रसायन विश्लेषण से यह स्पष्ट हुआ कि दक्षिण बिहार की जमीनें एएसआर के लिए अनुकूल हैं। खासकर वे इलाके जहां चट्टानी या गहरे नद-तटीय एक्विफर मौजूद हैं। अध्ययन में यह भी बताया गया कि एएसआर तकनीक के जरिए न सिर्फ सिंचाई का भरोसा बढ़ता है, बल्कि पानी की उपलब्धता लंबे समय तक बनी रहती है, जिससे कृषि में विविधता और आमदनी दोनों बढ़ते हैं।

इस शोध ने भुंगूरू जैसी देसी तकनीकों का भी संदर्भ दिया है, जिनका इस्तेमाल स्थानीय जरूरतों के मुताबिक किया जा सकता है। भुंगरू एक कम लागत वाली भूमिगत संरचना है, जो बरसाती पानी को भूमि की निचली जलधाराओं में पहुंचाती है। यह खासकर उन जगहों पर उपयोगी है जहां एक ही क्षेत्र में साल में कभी बाढ़ आती है और कभी सूखा पड़ता है। यानी पानी कभी जरूरत से ज्यादा और कभी बिल्कुल नहीं।

शोध में एक व्यापक क्रियान्वयन मैनुअल तैयार करने की सिफारिश की गई है, जिससे दूसरे राज्यों और जलसंकट वाले क्षेत्रों में भी एएसआर को लागू किया जा सके। डॉ. अविराम शर्मा के अनुसार, “अब जब किसानों की दिलचस्पी बढ़ रही है, राज्य सरकारों को चाहिए कि इस मॉडल को नीतिगत योजनाओं में शामिल करें। लेकिन इसके लिए जरूरी है स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप योजनाएं बनाना, किसानों को आर्थिक मदद देना, और भूजल स्तर पर नियमित निगरानी करना।”

शोध में कहा गया है कि भारत जैसे देश, जो दुनिया में सबसे ज्यादा भूजल इस्तेमाल करता है, वहां केवल तकनीकी समाधान पर्याप्त नहीं हैं। जब तक किसान नीतियों के केंद्र में नहीं होंगे, तब तक किसी भी तकनीक की उम्र सीमित रहेगी। जलवायु परिवर्तन, अनियमित बारिश और जल स्रोतों के सूखने की चुनौती से जूझते ग्रामीण भारत के लिए एएसआर एक मजबूत विकल्प बन सकता है, बशर्ते इसे सामूहिक भागीदारी और सामाजिक न्याय के मॉडल के रूप में अपनाया जाए।

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