
सरकारी स्कूल में एनवायरमेंट एजुकेशन के मास्साब के लिए इंटरव्यू चल रहा था। एक दुबला-पतला युवक अपनी बेरोजगारी को पुरजोर छिपाते हुए घामड़ अध्यापकों के पैनल के सामने डरा-सहमा बैठा था। पैनल के एक अध्यापक ने उससे पूछा, “जल-चक्र के बारे में क्या जानते हैं?” इस सवाल के जवाब में युवक एकटक जमीन को घूरता रहा।
“आप इतने आसान सवाल का जवाब भी नहीं जानते? क्या पढ़ाएंगे आप बच्चों को?” दूसरे घामड़ अध्यापक ने कहा।
युवक अब भी चुपचाप जमीन को घूर रहा था।
अब पैनल से रहा नहीं गया। उनमें सबसे बुजुर्ग अध्यापक और प्रधानाचार्य ने कहा, “पृथ्वी पर उपलब्ध जल के एक रूप से दूसरे में परिवर्तित होने और एक भंडार से दूसरे भंडार या एक स्थान से दूसरे स्थान को गति करने की चक्रीय प्रक्रिया को जलचक्र कहते हैं। इसमें पानी (द्रव) है जो वाष्प बनकर वायुमंडल में जाता है फिर संघनित होकर बादल बनता है और फिर बादल बनकर ठोस (हिमपात) या द्रव रूप में वर्षा के रूप में बरसता है। हिम पिघलकर पुनः द्रव में परिवर्तित हो जाता है। यही होता है जल-चक्र!”
इतना कहकर वह चुप हो गए। इससे पहले की वे लोग अगले अभ्यर्थी को बुलाने के लिए टन्न से घंटी मारते, युवक ने उनकी ओर देखते हुए कहा, “सर, यह तो आपने विकिपीडिया से चेंप दिया है!”
उसकी इस बात से इंटरव्यू बोर्ड के लोग स्टैंड स्टिल की मुद्रा में आ गए। लगा पूरी कायनात, ब्रम्हांड ही नहीं समय भी अचानक रुक गया हो। लोगों के मुंह के अंदर गटकती चाय रुक गई, दांतों के बीच सरकती बिस्किट रुक गई। इसका कुल लबोलुआब था, “आप कहना क्या चाहते हो?”
“तो सुनिए” युवक ने धीरे-धीरे पर सधी हुई आवाज में बोलना शुरू किया, “पानी वाष्प बनकर और फिर संघनित होकर बादल बनता है और फिर बारिश के रूप में बरसता है। इससे नदियां बनती हैं। नदियों में अपनी अलग दुनिया पनपती है पर इंसान ने नदी को भी अपना पालतू बना लिया है। वह नदी का पानी बांध बनाकर रोक लेता है। कभी बांधों में बंधी नदी चुपचाप इंसान के खेतों को सींचती है तो कभी एक नाला बनकर इंसानी कचरे को ढोती है। नेता गंदी-बदबूदार प्रदूषित नदी के लिए एक-दूसरे को दोषी बताते हैं। नदी सफाई के नाम पर चुनाव लड़े जाते हैं और ठेकेदारों, नेताओं और नौकरशाहों के बीच हजारों करोड़ रुपए की बंदरबांट होती है। कभी पुण्य कमाने के नाम पर नदी के किनारे मेले लगाए जाते हैं और एक बार फिर भव्य आयोजन के नाम पर हजारों करोड़ों रुपए की लूट होती है। बाद में लाखों-करोड़ों लोग नदी और उसके किनारों को गंदा करके चले आते हैं।
बारिश का पानी झील, पोखर, तालाबों की प्यास बुझाता है पर इंसान अपने लालच के कूड़े और मलबे से पोखरों-तालाबों को पाट कर उनकी हत्या कर देता है। बाद में वहां हाउसिंग सोसाइटी, शॉपिंग मॉल और एम्यूजमेंट पार्क बनाए जाते हैं। आपका यह स्कूल भी ऐसे एक तालाब को पाटकर बनाया गया है।
बांधों की गाद, उद्योगों का कचरा, प्लास्टिक और इंसानी मलमूत्र से बजबजाती नदी अपनी उखड़ती हुई सांसों को लेकर लड़खड़ाती हुई समुद्र में जा मिलती है। कभी उसमें इतना भी पानी नहीं बचता कि वह समुद्र तक का सफर तय कर सके। ऐसे में वह किसी वीराने मैदान के रेतों के बीच तन्हाई में दम तोड़ देती है, इस उम्मीद से कि अगली बार जब वह बादलों से होकर एक बार फिर से पहाड़ों पर बरसेगी तो उसे जरूर एक अच्छी जिंदगी मिलेगी। हर साल बजट में नदी को साफ करने करने के नाम पर एक बार फिर नई नीतियों की घोषणा होती है और उन नीतियों के लिए बजट बनते हैं। एक बार फिर पैसों की बंदरबांट का खेल शुरू हो जाता है। यही असली जल-चक्र है।”
इतना कहकर वह युवक चुप हो गया। पूरे कमरे में सन्नाटा पसर गया था।
“मुझे एक गिलास पानी मिलेगा?”
यह प्रधानाचार्य की आवाज थी।