इंसानों की तरह नदियों का भी घर-आंगन है। उन्हें भी अपने मैदान में खेलना-कूदना अच्छा लगता है। हमने दूसरों के घर-आंगन पर नजरे टिकाने का हुनर सीख लिया है। अब नदियों के घर-आंगन यानी ‘डूब क्षेत्र’ पर हमारी नजर है। कई नदियों के डूब क्षेत्र पर अतिक्रमण का संकट है। ऐसी ही स्थिति रही और छोटी व सहायक नदियों का दम घुटा तो गंगा और यमुना जैसी बड़ी और प्रमुख नदियों का अस्तित्व भी खतरे में पड़ जाएगा। नदियों की सेहत को बरकरार रखने वाले डूब क्षेत्र के संरक्षण की अनदेखी बदस्तूर जारी है। फिलहाल राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) ने बिहार के किशनगंज में गंगा की सहायक महानंदा नदी के डूब क्षेत्र में प्रस्तावित अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के एक केंद्र के निर्माण पर रोक लगा दिया है।
बिहार के किशनगंज की जिला वेबसाइट पर भी महानंदा नदी का जिक्र है। जिले की सरकारी वेबसाइट में महानंदा नदी का परिचय लिखा गया है कि नदी बस अड्डे से महज छह किलोमीटर की दूरी पर बहती है। डूब क्षेत्र का संरक्षण यदि नहीं किया गया तो यह सरकारी परिचय सिर्फ लिखा भर रह जाएगा। नियमों के विरुद्द एएमयू के कैंपस निर्माण को महानंदा नदी किनारे 224.02 हेक्टेयर भूमि दी गई थी। यह भूमि जांच के बाद बाढ़ क्षेत्र में ही पाई गई। एएमयू के जरिए नए कैंपस की दीवार को तैयार करने का काम शुरु कर दिया गया था।
एनजीटी की एस.पी.वांगड़ी की अध्यक्षता वाली पीठ ने माझी परगना अभैन बैसी की ओर से दाखिल याचिका पर विचार करने के बाद 18 फरवरी को निर्माण कार्य पर रोक लगाई। पीठ ने कहा कि राष्ट्रीय स्वच्छ गंगा मिशन (एनएमसीजी) की ओर से दाखिल हलफनामे पर गौर करने के बाद यह बात स्पष्ट है कि एएमयू के संबंधित कैंपस का निर्माण कार्य गंगा (पुनरुद्धार, संरक्षण और प्रबंधन), प्राधिकरण के जरिए 07 अक्तूबर, 2016 को दिए गए आदेशों के विरुद्द है। इसके अलावा एनएमसीजी के जरिए 06 जनवरी, 2017 में पर्यावरण संरक्षण कानून, 1986 के अधीन धारा 5 के तहत परियोजना निर्माण कार्य के विरुद्ध आदेश जारी किए गए थे। पीठ ने कहा कि एनएमसीजी इस परियोजना को लेकर जल्द से जल्द अंतिम निष्कर्ष पर पहुंचे।
पीठ ने कहा कि यह कहने की जरूरत नहीं है कि एएमयू हो या अन्य प्राधिकरण एनएमसीजी के आदेश के तहत निवारण को लेकर पहल कर सकती हैं। हालांकि, गंगा (पुनरुद्धार, संरक्षण और प्रबंधन), प्राधिकरण के 07 अक्तूबर, 2016 के आदेश के तहत कोई भी निर्माण कार्य नहीं होना चाहिए।
बात सिर्फ गंगा के सहायक नदी महानंदा की नहीं है। राष्ट्रीय नदी गंगा के साथ यमुना व अन्य नदियों के डूब क्षेत्र पर या तो अतिक्रमण है या उनका बेजा इस्तेमाल किया जा रहा है। जबकि डूब क्षेत्र के स्पष्ट सीमांकन को लेकर एनजीटी ने 2017 में बेहद अहम फैसला दिया था। इसे लेकर कोई खास पहल नहीं की गई।
एनजीटी ने राष्ट्रीय नदी गंगा के संरक्षण को लेकर 13 जुलाई, 2017 को 543 पृष्ठों का विस्तृत फैसला सुनाते हुए कहा था कि न सिर्फ डूब क्षेत्र का संरक्षण होना चाहिए बल्कि डूब क्षेत्र का सीमांकन भी किया जाना चाहिए। गंगा के डूब क्षेत्र सीमांकन को लेकर इस दिशा में अभी तक कोई ठोस पहल नहीं की गई है।
विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र (सीएसई) के जल कार्यक्रम के वरिष्ठ निदेशक सुरेश कुमार रोहिला ने बताया कि डूब क्षेत्र एक व्यापक अवधारणा है। पूरी तरह यह नहीं कहा जा सकता कि डूब क्षेत्र पर कुछ भी नहीं बनाया जा सकता है। पहले कानूनी वैधता और उसके बाद विज्ञान और तकनीकी का सहारा लेकर डूब क्षेत्र पर कुछ अत्यंत जरूरी निर्माण किए जा सकते हैं। इसके अलावा हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि भारतीय नदियों की प्रकृति सर्पीली है। वे बल खाते हुए इधर से उधर अठखेलियां करती हैं। ऐसे में नदी अपने दाएं और बाएं कब और कितनी दूरी का सफर तय करेगी यह बहुत निश्चित नहीं होता। फिर भी 100 वर्षों से लेकर 25 वर्षों के बाढ़ इतिहास तक को जरूर देखा और समझा जाता है ताकि नदी का रास्ता कुछ हद तक समझा जा सके।
सुरेश कुमार रोहिला ने बताया कि नीदरलैंड ने 200 वर्षों के बाढ़ के आंकड़ों का संग्रहण कर मॉडल विकसित किया था कि उनके यहां सूखा क्षेत्र कहां हैं और डूब क्षेत्र कहां है। इस आधार पर वहां निर्माण कार्य और विकास के कामकाज हुए लेकिन महज 24 वर्षों में ही यह मॉडल फेल हो गया है। वहीं, अब यूके, फ्रांस, जर्मनी, नीदरलैंड में नदियों के तटबंध तोड़े जा रहे हैं और यथासंभव उनके घर-आंगन यानी डूब क्षेत्र को उन्हें वापस लौटाया जा रहा है। करीब-करीब समूचे यूरोप ने नदियों को आजादी देने का फैसला किया है। हमें अब यह सीख लेने की जरूरत पड़ गई है कि नदियों को बांधने के बजाए मुक्त किया जाए। नदियों के लिए डूब क्षेत्र उनकी आत्मा हैं। यह न सिर्फ जल भंडारण का काम करती हैं बल्कि जल को साफ करने के लिए छन्नी का भी काम करती हैं। डूब क्षेत्र को नुकसान पहुंचाने का आशय है कि सीधा नदी को प्रभावित करना।
रोहिला ने बताया कि समुद्रों के तटों को संरक्षित करने के लिए जिस तरह तटीय नियमन क्षेत्र (सीआरजेड) है उसी तरह दस वर्ष पहले नदियों के नियमन क्षेत्र के लिए प्रारूप तैयार किया गया था। दुर्भाग्य है कि इस पर आज तक सहमति नहीं बन पाई।
यमुना जिये अभियान के संयोजक व पर्यावरणविद् मनोज मिश्रा ने कहा कि नदियों का स्वरूप बहुत हद तक मानसून पर निर्भर करता है। वह मानसून के आधार पर बनती-बिगड़ती हैं। बरसात के समय नदी का फैलाव क्षेत्र ही उसका असली डूब क्षेत्र है। डूब क्षेत्र का असली काम यह है कि जब नदियां अपना फैलाव हासिल करें तो उन्हें जगह की कोई कमी न हो। इसके अलावा डूब क्षेत्र से कोई और दूसरा काम नहीं लिया जाना चाहिए। इतना ही नहीं जब डूब क्षेत्र में नदियां अपना फैलाव हासिल करती हैं तो वे भू-जल को भी रीचार्ज करती हैं। ऐसे में जब डूब क्षेत्र ही नहीं रहेगा तो नदियों के जरिए किया जाना वाला यह अनोखा काम कौन करेगा?
उन्होंने बताया कि जब गंगा सफाई को लेकर आईआईटी का संघ बनाया गया था, उसी वक्त आईआईटी कानपुर ने गंगा के डूब क्षेत्र का सीमांकन कर डिजिटल नक्शा तैयार किया था। इस नक्शे को कूड़ेदान में फेंक दिया गया। आज तक इस पर कोई जमीनी काम नहीं किया गया। गंगा-यमुना समेत तमाम नदियों के डूब क्षेत्र पर अतिक्रमण का यही हाल है। जो लोग यह दलील देते हैं कि नदियां स्थिर नहीं होती तो उनका सीमांकन नहीं किया जा सकता वे जिम्मेदारी से बचना चाहते हैं। 100 वर्षीय बाढ़ के हिसाब से नदी के डूब क्षेत्र को अतिक्रमण मुक्त रखने की मांग पूरी दुनिया में उठ रही है। ऐसा यहां भी होना चाहिए। वरना हम सभी जानते हैं कि जब हम दूसरे के घर-आंगन में जबरदस्ती दाखिल होंगे तो वहां से भगा दिए जाएंगे। डूब क्षेत्र के अतिक्रमण को लेकर सबब के तौर पर चेन्नई की बाढ़ विभीषिका को हमें नहीं भूलना चाहिए।