असल जल योद्धा

जलवायु परिवर्तन की वजह से राजस्थान में इस साल हुई अतिवृष्टि को लोगों ने आपदा में अवसर के तौर पर लिया, इस पूरी मुहिम पर सुनीता नारायण का संपादकीय आलेख
राजस्थान के ब्यावर जिले के सेंड्रा गांव के निवासी इस साल शुरुआती बारिश का जश्न मना रहे हैं, जिससे गांव के सबसे बड़े तालाब, टांडा तालाब को एक दशक से अधिक समय में पहली बार रिचार्ज करने में मदद मिली (फोटो: रतन सिंह) राजस्थान के ब्यावर जिले के सेंड्रा गांव के निवासी जश्न मनाते हैं। इस साल बारिश जल्दी शुरू होने से गांव के सबसे बड़े तालाब, टांडा तालाब को एक दशक से अधिक समय में पहली बार रिचार्ज करने में मदद मिली (फोटो: रतन सिंह)
राजस्थान के ब्यावर जिले के सेंड्रा गांव के निवासी इस साल शुरुआती बारिश का जश्न मना रहे हैं, जिससे गांव के सबसे बड़े तालाब, टांडा तालाब को एक दशक से अधिक समय में पहली बार रिचार्ज करने में मदद मिली (फोटो: रतन सिंह) राजस्थान के ब्यावर जिले के सेंड्रा गांव के निवासी जश्न मनाते हैं। इस साल बारिश जल्दी शुरू होने से गांव के सबसे बड़े तालाब, टांडा तालाब को एक दशक से अधिक समय में पहली बार रिचार्ज करने में मदद मिली (फोटो: रतन सिंह)
Published on

चरम  मौसम की घटनाओं से तबाह और बर्बाद हो रही  हमारी धरती एक ऐसे समय से गुज़र रही है जहाँ अच्छी ख़बरें मिलना मुश्किल है। लेकिन गौर से देखने पर हमें मानवीय जिजीविषा की झलकें दिख ही जाती हैं।

पिछले पखवाड़े, डाउन टू अर्थ में एक प्रेरक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी कि कैसे राजस्थान के रेगिस्तान में लोगों ने उस क्षेत्र में हुई भारी बारिश का पूरा उपयोग किया- बाढ़ आयी अवश्य, लेकिन उन्होंने पानी को संग्रहीत करने और इसका उपयोग करने का निर्णय लिया।

वे शायद यह बात न जानते हों  कि हम साल दर साल साल बेमौसम घटनाओं के रूप में जो देख रहे हैं, वह दरअसल जलवायु परिवर्तन है। संभव है कि वे जलवायु समझौतों या अनुकूलन लक्ष्यों के बारे में नहीं जानते हों, लेकिन उन्होंने हमें इस तरह के संकट से निपटने की एक बेहतर राह सुझाई है। 

राजस्थान के इस हिस्से में आम तौर पर सालाना 300 मिमी से कम बारिश होती है। लेकिन इस साल समय से पहले ही सामान्य से कहीं अधिक बारिश हो गयी। रेगिस्तानी जिलों में एक महीने के भीतर ही उनके वार्षिक औसत से अधिक वर्षा हुई है। लोग भारी बारिश और बाढ़ की तबाही से कैसे निपट रहे हैं यह जानने के लिए  मेरे सहयोगी अनिल अश्विनी शर्मा ने कई जिलों का दौरा किया।

हम इस आशंका में थे कि वे हताशा और निराशा की कहानियां लेकर वापस आएंगे। इसके उलट उन्होंने देखा कि ब्यावर, पाली, बाड़मेर और जैसलमेर जिलों के गांवों में लोगों ने आपदा में अवसर की तर्ज पर सामुदायिक एवं व्यक्तिगत रूप से  इस  बारिश का सर्वोत्तम उपयोग करने का निर्णय लिया था।

उन्होंने हजारों जल संरचनाओं का निर्माण, पुनर्निर्माण और कायाकल्प किया था और बारिश की एक एक बूंद जमा करने का पूरा इंतजाम था। अनिल ने बताया कि तालाब, पानी से और लोग उम्मीद से भरे दिखे। 

ब्यावर जिले के सेंदरा  गांव में, जैसे ही मई में बारिश हुई, ग्रामीणों ने पारंपरिक ज्ञान का उपयोग करके बनाई गई मौजूदा जल संग्रहण संरचनाओं की मरम्मत शुरू कर दी।  इसमें बड़े छोटे तालाबों से लेकर नदी (खेतों में बने छोटे जलाशय ), टंके (छोटे जलग्रहण क्षेत्रों से वर्षा जल एकत्र करने वाले टैंक) और हर घर की छत पर बनी टंकियां शामिल हैं।

उन्होंने प्रत्येक संरचना के जलग्रहण क्षेत्र का विस्तार और सफाई भी की। फिर जैसे ही जून में बारिश हुई, सभी 320 संरचनाएँ लगभग भर गईं; साथ ही कुओं का जलस्तर  भी बढ़ गया था. लेकिन वे लोग यहीं नहीं रुके. रातों-रात, उन्होंने अपने गाँव से सटे पहाड़ी ढलान में खन्दकें  खोद दीं ताकि बारिश उनकी फसल को नुकसान न पहुंचाकर भूजल में मिल जाए । इसका मतलब यह हुआ कि अब अगली फसल के लिए अधिक पानी उपलब्ध रहेगा।

बाड़मेर जिले के मधासर गांव लोगों  ने  इस कीमती  बारिश को जमा करने के लिए  के लिए केवल दो महीनों में 155 तालाब बनाए। इसके अलावा जैसलमेर के सनवाता गांव में, लगभग 400 जल संरचनाओं में से अधिकांश की  गाद साफ कर दी गयी।

लोग कहते हैं कि वे जहां भी जाते हैं एक छड़ी अपने साथ रखते हैं, ताकि वे रिसाव को बेहतर बनाने के लिए खुदाई करते रहें। यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी कि प्रत्येक गांव में, आने वाले सूखे के महीनों में  पीने और फसलों की सिंचाई के लिए पर्याप्त पानी जमा होने के कारण बारिश को लेकर उल्लास का माहौल था। 

ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि लोगों ने परिवर्तन के  लिए कमर कस  ली थी। सर्वप्रथम, पारंपरिक ज्ञान के उपयोग से  निर्मित विकेंद्रीकृत जल संरचनाओं के महत्व को समझाने के लिए बहुत प्रयास किए गए हैं।

1997 में जब हमारे सहयोगी अनिल अग्रवाल (इस पत्रिका के संस्थापक संपादक) ने पारंपरिक जल ज्ञान का दस्तावेजीकरण करने के काम की शुरुआत की थी तब  इस समाधान की ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया था।

लेकिन हम अपने पक्ष पर कायम रहे और इस बात को समझाने की कोशिश की कि हमारी पुस्तक डाइंग विजडम में प्रकाशित ज्ञान जल नीति का हिस्सा कैसे हो सकता है?

फिर सरकार का महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) आया, जो  इस ज्ञान को दूसरे स्तर पर ले गया। इस रोजगार कार्यक्रम के तहत देशभर में लाखों जल संरचनाओं का निर्माण किया गया है। इनमें से कई संरचनाएं खराब डिजाइन के कारण अनुपयोगी हो गई हैं या बेकार हो गई हैं। लेकिन जैसा कि इस मानसून के मौसम ने दिखाया है कि पानी का महत्व समझ लेने पर हम जादू कर सकते हैं। 

इस काम  से हमें कई सबक लेने चाहिए। सबसे पहले, हमें हमारी जलवायु-जोखिम वाली दुनिया में मनरेगा के मूल्य को समझना चाहिए। यह शायद दुनिया का सबसे बड़ा अनुकूलन कार्यक्रम है, जहां सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए लोगों के श्रम का भुगतान किया जाता है और इस श्रम का उपयोग पारिस्थितिक संपदा के निर्माण के लिए किया जाता है, जो बदले में परिवर्तनशील मौसम से हमारी रक्षा करता है।

दूसरा, चरम मौसम के युग में ( स्पेन इसका एक उदहारण है  जहां सूखे की जगह अब लगातार हो रही  बारिश ने ले ली है )हमें विकेंद्रीकृत जल संरचनाओं का उपयोग करके बारिश की हर बूंद को जमा करना  सीखना होगा। 

यहीं पर राजस्थान के लोगों के इस अविश्वसनीय कार्य को समझा और अनुकरण किया जाना चाहिए। और तीसरी , सबसे महत्वपूर्ण बात, हमें मानव उद्यम को सलाम करना चाहिए; उन आम लोगों को  जिन्होंने अपने जल भविष्य की जिम्मेदारी ले ली है। वे असली जल लड़ाके हैं जो हमें आगे का रास्ता दिखा रहे हैं।

Related Stories

No stories found.
Down to Earth- Hindi
hindi.downtoearth.org.in