हाल ही में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा प्रकाशित पांचवें राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस-5) के आंकड़ों के अनुसार देश के अधिकांश राज्यों में बीते आधे दशक में उत्तम पेयजल की उपलब्धता में काफ़ी वृद्धि हुई है। हालांकि साफ-सफाई की सुविधाओं में बेहतरी के बावजूद स्थिति चिंताजनक है।
सर्वेक्षण के पहले चरण में शामिल 22 राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों के आंकड़े जारी किए गये हैं। रिपोर्ट के अनुसार सुधार के बाबजूद बीते पांच सालों में कई राज्यों एवं केंद्र शासित प्रदेशों में हर तीसरा या चौथा व्यक्ति साफ़-सफ़ाई की उत्तम सुविधाओं (समुचित जल-निकासी और उत्तम शौचालय) से वंचित है। वहीं सुरक्षित पेयजल की सुलभता के मामले में अधिकांश राज्य सतत विकास लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में तेज़ी से आगे बढ़े हैं।
सतत विकास लक्ष्य (एसडीजी) 6.1 और 6.2 में साल 2030 तक अंतिम आबादी तक सुरक्षित एवं स्वच्छ पेयजल की सुलभता के साथ-साथ समुचित साफ़-सफ़ाई की सुविधाएँ मुहैया कराने और खुले में शौच से मुक्ति पाने की बात कही गयी है।
बीते पांच सालों में साफ-सफाई के मामले में सर्वाधिक सुधार के बावजूद बिहार का प्रदर्शन सर्वे में शामिल राज्यों में सबसे खराब रहा है। यहां हर दूसरा व्यक्ति समुचित जल-निकासी और उत्तम शौचालय सुविधाओं से वंचित है। मणिपुर, पश्चिम बंगाल और असम में हर तीसरा व्यक्ति इन सुविधाओं के बिना गुज़र-बसर कर रहा है। गौरतलब है कि प्रकाशित तथ्य-तालिका में फ़िलहाल खुले में शौच के आंकड़े शामिल नहीं किए गए हैं। वहीं साल 2015-16 में 40 फ़ीसदी आबादी खुले में शौच के लिए मजबूर थी।
साफ़-सफ़ाई के मामले में मिज़ोरम, केरल और लक्ष्यद्वीप सबसे आगे है जहाँ 90 फ़ीसदी से अधिक आबादी बेहतर जल-निकासी और उत्तम शौचालय की सुविधाओं से लैस है। हिमाचल प्रदेश, मेघालय, सिक्किम, नागालैंड, गोवा और अंडमान-निकोबार द्वीप समूह का प्रदर्शन भी सराहनीय (80 प्रतिशत या अधिक) कहा जा सकता है। ज़िलावार आंकड़ो पर नज़र डालें तो बिहार के अधिकांश जबकि पश्चिम बंगाल, गुजरात, महाराष्ट्र और कर्नाटक के कई जिलों की स्थिति बेहद ख़राब है। यहाँ आधी से भी कम आबादी को उत्तम साफ़-सफ़ाई की सुविधाएं नसीब है।
स्वच्छता सुविधाओं की उपलब्धता के मामले में शहरी-ग्रामीण असमानता काफ़ी अधिक है। मणिपुर, मेघालय, सिक्किम और नागालैंड को छोड़कर बाकी के सभी राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों में शहर के मुकाबले गांवों में साफ़-सफ़ाई की सुविधाओं का अभाव अधिक है। गुजरात, बिहार, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक जैसे राज्यों में सर्वाधिक असमानता दर्ज़ की गयी है।
सुरक्षित एवं स्वच्छ पेयजल के स्रोतों के पहुँच की बात करें तो बाईस राज्यों व केंद्रशासित प्रदेशों के आंकड़े राहतदेह हैं। रिपोर्ट से पता चलता है कि बीते पांच सालों में सिक्कम को छोड़कर बाकी सभी राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों में स्वच्छ पेयजल के स्रोतों तक लोगों की पहुँच बढ़ी है। मणिपुर, मेघालय और नागालैंड जैसे राज्यों में इस दौरान उल्लेखनीय सुधार हुआ है। अन्य प्रदेशों की तुलना में बिहार की स्थिति सबसे बेहतर है जहां लगभग सभी (99%) लोगों तक उत्तम पेयजल की उपलब्धता है। हालांकि सिक्किम में एनएफएचएस-4 (2015-16) के रिपोर्ट की तुलना में स्वच्छ पेयजल की पहुंच में 5 प्रतिशत की कमी आयी है।
हालिया रिपोर्ट के अनुसार मणिपुर, मेघालय, असम, त्रिपुरा तथा लद्दाख को छोड़कर बाकी प्रदेशों के 90 फ़ीसदी या इससे अधिक आबादी की पहुँच पेयजल के उत्तम स्रोतों जैसे सार्वजनिक नल, निजी नलकूप या चापाकल, पाइप जल आपूर्ति, संरक्षित कुंआ, संरक्षित वर्षा जल तथा बोतलबंद पानी तक है। हालांकि इन स्रोतों की उपलब्धता भी गांवों एवं शहरों में एक समान नहीं है।
सर्वे में शामिल अधिकांश प्रदेशों में शहरों के मुकाबले गांवों में इन स्रोतों की उपलब्धता कम है। जबकि इसके उलट मणिपुर, मेघालय, त्रिपुरा और महाराष्ट्र में शहरी प्रदेशों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में इसकी पहुंच अधिक है। महाराष्ट्र और उत्तर-पूर्वी राज्यों के कुछ जिलों में तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है जहाँ एक-तिहाई आबादी उत्तम पेयजल की पहुँच से दूर है।
यूनिसेफ की एक रिपोर्ट की मानें तो देश के लगभग बीस लाख घरों के पेयजल में रासायनों खासकर फ्लोराइड और आर्सेनिक की अनियमितता की परेशानी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार जहां पानी में फ्लोराइड की अधिकता से देश भर के लाखों लोग प्रभावित हैं वहीं अकेले पश्चिम बंगाल में डेढ़ करोड़ लोग आर्सेनिक की कमी से जूझ रहे हैं। यूनिसेफ का एक अन्य रिपोर्ट बताता है कि बाढ़ और सूखा के दौरान स्वच्छ पेयजल के अभाव से उत्पन्न तमाम रोगों से लड़ने में भारत की बहुत बड़ी आबादी का हर साल लगभग 60 करोड़ अमेरिकी डॉलर खर्च हो जाता है सूखाग्रस्त इलाकों में स्वच्छ पेयजल के प्रबंधन के सिलसिले में कई बच्चों को स्कूल बीच मे ही छोड़ देना पड़ता है। इसके अलावा कई महिलाओं को इसके लिए घंटो इंतज़ार करना पड़ता जिस वजह से उन्हें हर साल लगभग 27 दिनों के मेहनताने का नुक़सान उठाना पड़ता है।