दुनिया भर में भूजल सबसे ज्यादा प्रयोग किया जाने वाला मीठे पानी का स्रोत हैं। आंकड़ों के अनुसार वैश्विक रूप से लगभग 200 करोड़ लोग, अपनी दैनिक आवश्यकताओं और सिंचाई के लिए आज इस पर ही निर्भर हैं। अनुमान के अनुसार दुनिया की 20 फीसदी आबादी भूजल द्वारा सिंचित फसलों पर निर्भर है। तेजी से बढ़ रही आबादी की जरूरतों को पूरा करने और फसलों के उत्पादन में लगातार होती वृद्धि के चलते पहले से ही दबाव झेल रहे इन भंडारों पर दबाव और बढ़ता जा रहा हैं।
हम जिस तेजी और अनियंत्रित तरीके से भूजल का दोहन कर रहे हैं, उसके कारण यह भूजल स्रोत तेजी से खत्म होते जा रहे हैं| वहीं दूसरी ओर बारिश और नदियों द्वारा इन भूजल स्रोतों का पुनःभरण (रिचार्ज) नहीं हो पा रहा है| नासा द्वारा उपग्रह से प्राप्त आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला है कि दुनिया के 37 प्रमुख भूजल स्रोतों में से 13 का जलस्तर खतरे के निशान तक पहुंच चुका है। वहां भूजल के रिचार्ज होने की दर उसके दोहन की गति से काफी कम है। भूजल के गिरते स्तर की समस्या उन क्षेत्रों में और गंभीर होती जा रही है, जहां गहन कृषि की जाती है। साथ ही इसके चलते नदियों पर भी कृषि क्षेत्र के लिए जल आपूर्ति का दबाव दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है । आंकलन दर्शाता है कि 2050 तक दुनिया भर की नदियों, झीलों और वेटलैंड्स पर इसके व्यापक और गंभीर प्रभाव स्पष्ट दिखने लगेंगे |
इसको समझने के लिए शोधकर्ताओं की एक अंतरराष्ट्रीय टीम ने उस दर को मापने का प्रयास किया हैं जिसपर मौजूदा भूजल, नदियों और झीलों में मिल रहा हैं । जिसे धारा का प्रवाह कहते हैं | साथ ही उन्होंने इस बात का भी अध्ययन किया हैं कि खेती के लिए किये गए भूजल के दोहन ने इस प्रक्रिया को कैसे प्रभावित किया हैं। शोधकर्ताओं ने पाया कि लगभग 20 फीसदी नदी घाटियां पहले ही अपनी चरम सीमा तक पहुंच चुकी हैं, जहां जमीन से भूजल का दोहन, धारा की तुलना में कहीं अधिक हो गया हैं। यह अध्ययन अंतरराष्ट्रीय जर्नल नेचर में प्रकाशित हुआ है।
वैज्ञानिकों ने भविष्य में नदीधारा का प्रवाह कैसे कम हो जायेगा, इसका अनुमान लगाने के लिए जलवायु परिवर्तन के मॉडल का भी उपयोग किया हैं। जिसमें उन्होंने पाया कि दुनिया के 42 से 79 फीसदी भूजल के स्रोत 2050 तक खत्म हो जायेंगे। जिसके चलते वो अपने पारिस्थितिक तंत्र को बनाए रखने में असमर्थ हो जायेंगे। जर्मनी के फ्रीबर्ग विश्वविद्यालय में पर्यावरण और जल विज्ञान प्रणालियों के अध्यक्ष इंगे डी ग्राफ ने समझाया कि भविष्य में इसके क्या विनाशकारी प्रभाव हो सकते हैं।
ग्राफ के अनुसार यह बहुत स्पष्ट है कि अगर धारा में पानी नहीं होगा तो निश्चित तौर पर वहां रहने वाले पौधे और जीव मर जायेंगे । साथ ही लगभग आधी से अधिक फसलें जो सिंचाई के लिए भूजल पर निर्भर हैं, वो भी नष्ट हो जाएंगी। नेचर में प्रकाशित इस नवीनतम अध्ययन के अनुसार गंगा, सिंधु और मेक्सिको की घाटियों में जहां फसल उत्पादन के लिए भूजल पर निर्भरता कहीं अधिक है, वहां अनियंत्रित दोहन के कारण नदी के बहाव में कमी आती जा रही है और जैसे-जैसे अफ्रीका और दक्षिणी यूरोप के क्षेत्रों में भूजल की मांग बढ़ रही है, वहां भी आने वाले कुछ वर्षों में गंभीर जल संकट का असर दिखने लगेगा।
भारत में भी गंभीर है स्थिति
वैश्विक रूप से भारत में भूजल का सर्वाधिक दोहन किया जाता है, यहां प्रति वर्ष 230 क्यूबिक किलोमीटर भूजल का उपयोग कर लिया जाता है, जोकि भूजल के वैश्विक उपयोग का लगभग एक चौथाई हिस्सा है । वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि उत्तर भारत जोकि देश का गेहूं और चावल का प्रमुख उत्पादक क्षेत्र है, में 5,400 करोड़ क्यूबिक मीटर प्रति वर्ष की दर से भूजल घट रहा है । नीति आयोग द्वारा जारी एक रिपोर्ट ने भी लगातार घटते भूजल के स्तर पर चिंता जताई थी। उसके अनुसार वर्ष 2030 तक देश में भूजल में आ रही यह गिरावट सबसे बड़े संकट का रूप ले लेगी । वहीं 2020 तक दिल्ली, बेंगलुरु, चेन्नई और हैदराबाद सहित 21 शहरों में भूजल लगभग खत्म होने की कगार पर पहुंच जायेगा।
गौरतलब है कि भूजल के संकट से निपटने के लिए मोदी सरकार ने मार्च 2018 में 'अटल भूजल योजना' का प्रस्ताव रखा था। जिसे विश्व बैंक की सहायता से 2018-19 से 2022-23 की पांच वर्ष की अवधि में कार्यान्वित किया जाना था। इसका लक्ष्य भूजल का गंभीर संकट झेल रहे सात राज्यों गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में सबकी भागीदारी से भूजल का उचित और टिकाऊ प्रबंधन करना था । परन्तु मंत्रिमंडल की मंजूरी न मिल पाने के कारण यह योजना पिछले करीब डेढ़ साल से अटकी हुई है।
कैसे हो सकता है समाधान
अभी हाल ही में इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज ने अपने एक आंकलन में चेताया था कि 2050 तक वैश्विक आबादी 1,000 करोड़ के पार चली जाएगी । साथ ही उसमें बताया गया था कि किस तरह कृषि क्षेत्र में उचित जल प्रबंधन के जरिये, ग्लोबल वार्मिंग के खतरे से निपटा जा सकता है। डी ग्राफ ने बताया कि दुनिया में अनेकों जगह कृषि तकनीकों के जरिये भूजल उपयोग को सीमित करने में सफलता हासिल की है, जैसे कि दक्षिण-पूर्व एशिया में मेकांग डेल्टा के कुछ हिस्सों में जहां पायलट प्रोजेक्ट के रूप में पानी की अधिक खपत करने वाली धान की फसलों की जगह नारियल की खेती की जा रही है ।
यदि हम आज नहीं जागे तो हमारी आने वाली नस्लों को ऐसे भूजल संकट का सामना करना पड़ेगा, जिसके प्रभाव किसी टाइम बम से कम नहीं होंगे। क्योंकि जिस अनियंत्रित तरीके से हम इस संसाधन का दोहन कर रहे हैं, और उसके चलते भूजल स्रोतों पर जो दबाव बढ़ता जा रहा है। इसके परिणाम अति गंभीर होंगे क्योंकि इन भूमिगत जल प्रणालियों को फिर से भरने में दशकों का समय लगेगा।