जल संकट का समाधान: राजस्थान से मध्यप्रदेश पहुंची पारंपरिक तकनीक

मध्यप्रदेश के झाबुआ जिले में 14 एकड़ के कैंपस में हर साल तीन लाख लीटर वर्षा जल संग्रहित किया जाता है और साल भर इस्तेमाल किया जाता है
बारिश के पानी को इस टंकी में सालभर जमा किया जाता है जिसका उपयोग गर्मी के दिनों में होता है। फोटो: मनीष चंद्र मिश्रा
बारिश के पानी को इस टंकी में सालभर जमा किया जाता है जिसका उपयोग गर्मी के दिनों में होता है। फोटो: मनीष चंद्र मिश्रा
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मध्यप्रदेश का आदिवासी जिला झाबुआ देश के सबसे पिछड़े जिलों में शामिल है और यहां गर्मियों में हर वर्ष भीषण जल संकट उत्पन्न होता है। हर साल पानी की समस्या को देखते हुए यहां के समाजिक कार्यकर्ता निलेश देसाई ने जल संरक्षण की मिसाल पेश करते हुए वर्ष 1994 में वर्षा जल संरक्षण के लिए एक योजना बनाई। उन्होंने अपनी संस्था के 14 एकड़ के कैंपस में तीन लाख लीटर की विशाल टंकी का निर्माण किया और छत से हर साल जमा होने वाले वर्षा जल को उसमें संग्रहित करने लगे। 25 साल बाद उन्हें इस प्रोजेक्ट का लाभ दिख रहा है।

निलेश बताते हैं कि उस समय जब उन्होंने यह प्रोजेक्ट लगाना शुरू किया तो आसपास के लोग यह देखकर हंसते थे। पथरीली जमीन पर टंकी बनाना आसान नहीं था। इसके लिए उन्हें कई ब्लास्ट कराने पड़े जिससे उनके घर की छत भी टूट गई। इतना खर्चा करते देश वहां आसपास के लोगों ने सलाह दी की इतने पैसों में कई बोर लगवाए जा सकते हैं। कुछ लोगों ने उनके प्रोजेक्ट की हंसी भी उड़ाई और इसे पागलपन कहा।

निलेश बताते हैं कि पिछले 25 वर्षों में उन्होंने न सिर्फ अपने कैंपस के पानी की बड़ी जरूरत को वर्षा जल संग्रहण से पूरा किया है बल्कि भूमिगत पानी को रिचार्च भी किया है। इस कैंपस में संपर्क संस्था द्वारा संचालित बुनियादी शाला का संचालन हो रहा है जिसमें 400 बच्चे इस कैंपस में रहकर शिक्षा लेते हैं। वर्ष 1999 तक इस प्रोजेक्ट का काम पूरा हो गया। इसे बनाने में एक लाख से अधिक की लागत आई।

कैंपस में रोजाना 22 हजार लीटर जल की खपत है जिसमें से पारंपरिक तकनीक द्वारा 17 हजार लीटर जल को दोबारा उपयोग के लिए तैयार कर लिया जाता है। निलेश बताते हैं कि इस कैंपस के 7 एकड़ हिस्से पर खेती होती है। यहां कैमिकल का उपयोग न के बराबर होता है और रिसाइकल किए जल का उपयोग पौधों को सिंचने में होता है। कैंपस में ड्रिप इरिगेशन सिस्टम लगा हुआ है जिससे पानी की बचत होती है। नहाने,कपड़ा धोने के पानी का उपयोग दोबारा सिंचाई में किया जाता है।

निलेश ने बताया कि वर्ष 1987 में प्रधानमंत्री राजीव गांधी और उनके टेक्नोलॉजी मिशन डायरेक्टर सैम पित्रोदा ने प्लानिंग कमिशन द्वारा चिन्हित देश से पानी समस्या से ग्रसित सबसे खराब 10 जिलों में कार्यक्रम चलाए। झाबुआ भी उन 10 जिलों में शामिल था। निलेश मशहूर समाजिक कार्यकर्ता बंकर रॉय से उस वक्त जुड़े और उन्होंने पानी बचाने के तरीकों पर वहीं से काम की शुरुआत की। बंकर प्लानिंग कमिशन के सदस्य थे। निलेश का वर्षा जल संग्रहन का प्रोजेक्ट सफल होने के बाद सरकार ने उनकी मदद से झाबुआ के तकरीबन 30 स्कूलों में जल संग्रहन की शुरुआत की। यहां 50 हजार लीटर की टंकियां लगाई गई जिसमें स्कूल की छत का पानी इकट्ठा होता है। झाबुआ जिले में पानी की समस्या दिनोंदिन बढ़ती गई और इलाके के कई बोरिंग फेल होते गए। अब इलाके के कई घरों में इस तरह की तकनीक लगाई गई है।

निलेश ने वर्षा जल बचाने की तकनीक को राजस्थान से लेकर आए। राजस्थान में इस पारंपरिक तकनीक को टांका कहते हैं। उन्होंने बताया कि उन्होंने राजस्थान में काम किया था और इस तकनीक को काफी करीब से देखा था। उसी पद्धति से झाबुआ में भी छत के पानी को उकट्ठा करने लगे। मौसम की पहली बारिश का पानी टंकी में जाने से रोका जाता है ताकि उसमें गंदगी न जाए। पहली बारिश के बाद पानी  को टंकी में इकट्ठा किया जाता है।

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