जल संकट का समाधान: धाराओं के सूखने के संकट से ऐसे निपट रहे हिमालयी राज्य

भीषण जल संकट के दौर से गुजर रहे देश के मैदानी इलाकों के साथ हिमालयी राज्य भी पानी के लिए तरस रहे हैं, लेकिन कुछ राज्यों ने जल धाराओं को बचाने के लिए उल्लेखनीय प्रयास किए हैं
Photo Credit: Aqwadam
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भीषण जल संकट के दौर से गुजर रहे देश के मैदानी इलाकों के साथ हिमालयी राज्य भी पानी के लिए तरस रहे हैं। पिछले साल जुलाई में नीति आयोग द्वारा विभिन्न संगठनों की मदद से तैयार की गई “रिपोर्ट ऑफ वर्किंग ग्रुप 1 : इनवेंट्री एंड रिवाइवल ऑफ स्प्रिंग्स इन द हिमालयाज फॉर वाटर सिक्योरिटी” के अनुसार भारतीय हिमालय क्षेत्र (आईएचआर) में 30 लाख धाराएं हैं जिनमें से आधी बारहमासी धाराएं सूख चुकी हैं अथवा मौसमी धाराओं में बदल चुकी हैं। कम प्रवाह वाली 60 प्रतिशत धाराएं पिछले कुछ दशकों में पूरी तरह सूख गई हैं। आईएचआर के 60 हजार गांवों में 5 करोड़ लोग रहते हैं। यहां की करीब 60 प्रतिशत आबादी जल आपूर्ति के लिए धाराओं पर ही निर्भर है। शिमला जैसे हिमालयी शहरों में जल संकट की बड़ी वजह इन धाराओं का सूखना माना जा रहा है।

धाराओं के सूखने के इस संकट से निपटने के लिए कुछ राज्यों में बहुत महत्वपूर्ण प्रयोग हुए हैं। उदाहरण के लिए सिक्किम के रूरल मैनेजमेंट एंड डेवलपमेंट डिपार्टमेंट (आरएमडीडी) 4-5 वर्षों में 700 धाराओं को पुनजीर्वित करके दिखाया है। सरकार ने इस काम में स्थानीय समुदाय और सामाजिक संगठनों की मदद ली। आरएमडीडी ने चरणबद्ध वैज्ञानिक तरीकों से स्प्रिंगशेड मैनेजमेंट कार्यक्रम को धारा विकास का नाम दिया और मनरेगा की मदद से धारा विकास के जरिए 900 मिलियन लीटर एक रुपए प्रति लीटर की लागत से सालाना रीचार्ज किया। धारा विकास कार्यक्रम 8 चरणबद्ध तरीकों पर आधारित है। पहले चरण में क्षेत्र की समग्र मैपिंग, दूसरे चरण में डाटा मॉनिटरिंग सिस्टम, तीसरे चरण में सामाजिक, लैंगिग और सरकारी पहलू, चौथे चरण में हाइड्रोजियोलॉजिकल मैपिंग, पांचवे चरण में स्प्रिंगशेड के लिए हाइड्रोलॉजिकल लेआउट, छठे चरण में धाराओं और रीचार्ज क्षेत्र का वर्गीकरण, सातवें चरण में स्प्रिंगशेड मैनेजमेंट प्रोटोकॉल एवं उसके क्रियान्वयन और अंतिम चरण में हाइड्रोलॉजिकल और सामाजिक-आर्थिक प्रभाव का आकलन किया जाता है। धारा विकास के कार्यक्रम के तहत धाराओं के कैचमेंट क्षेत्र में छोटे-छोटे गड्डे बनाकर पानी रोका जाता है। यह पानी अंतत: धाराओं में पहुंचता है। इस कार्यक्रम ने कई मृत हो चुके एक्वफर (जलीय पर्त) को पुनजीर्वित किया है। पहाड़ों में जल संकट की मूल वजह इन एक्वफर का बाधित हो जाना ही है। अंधाधुंध निर्माण गतिविधियों और पेड़ों की कटाई से ये एक्वफर प्रभावित होते हैं। इसी कारण धाराएं सूख जाती हैं। इन एक्वफर में पानी पहुंचाकर धाराओं को पुनर्जीवित किया जा सकता है।

कुछ ऐसे ही प्रयास नागालैंड में भी हुए। यहां इलीयूथ्रियन क्रिश्चन सोयाइटी ने टाटा ट्रस्ट के सहयोग से स्प्रिंगशेड मैनेजमेंट के लिए पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया। इससे नागालैंड के दो जिलों मोकेकचंग और ट्यूनसंग में 10 स्थानों पर जल स्थिति में सुधार देखा गया। 

इसी तरह मेघालय सरकार ने मेघालय बेसिन डेवलपमेंट अथॉरिटी (एमबीडीए) की मदद से 60 हजार धाराओं की मैपिंग का काम शुरू किया और 11 जिलों में 5,000 धाराओं में धारा जल प्रबंधन योजना शुरू की है। इस काम में मृदा एवं जल संरक्षण विभाग, जल संसाधन विभाग और विभिन्न स्वयंसेवक अपना योगदान दे रहे हैं। पश्चिम बंगाल में भी ग्रामीण विकास विभाग ने चार पहाड़ी जिलों में 50 धाराओं को ध्यान में रखकर पायलट प्रोजेक्ट शुरू किया है। इस काम में सरकारी और गैर सरकारी संस्थानों की मदद मिल रही है। इसके शुरुआती नतीजे बताते हैं कि जमीनी स्तर पर इन धाराओं के प्रति लोगों में समझ बनी है।

बहुत कम लोगों को पता है कि उत्तराखंड में गर्मियों में पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बनने वाली नैनीताल झील से ऊपर सूखाताल है। नैनीताल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइड्रोलॉजी (एनआईएच) ने पाया है कि सूखाताल से ही नैनीताल को पानी मिलता है। एनआईएच के आकलन के अनुसार, नैनीताल को करीब 50 प्रतिशत पानी 2 एकड़ में फैले सूखाताल से मिलता है। यह सूखाताल अतिक्रमण का शिकार है और इसे कूडेदान में तब्दील कर दिया गया है। इसका नतीजा यह निकला कि नैनीताल में पानी कम हो गया है। सेंटर फॉर इकोलॉजी डेवलपमेंट एंड रिसर्च (सीईडीएआर) ने इसको लेकर जागरुकता फैलाई और नौकरशाहों व नीति निर्माताओं का ध्यान सूखाताल की ओर दिलाया। अब इस झील के संरक्षण का काम शुरू कर दिया गया है। सूखाताल के तल को सीमेंट से पक्का करने की योजना को खत्म कर अधिक टिकाऊ उपायों को अपनाया जा रहा है। 

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