भारत सौर ऊर्जा की क्रांति से गुजर रहा है। पिछले साल के अंत तक देश में 42 सोलर पार्क कार्य कर रहे थे, वहीं कुल उत्पादन क्षमता 77.2 गीगा वाट तक पहुँच गयी। साल भर में 300 से अधिक सूरज से तपती दिन के साथ भारत में सालाना सौर ऊर्जा की अनुमानित क्षमता 5000 ट्रिलियन वाट अवर है, जो सारे दूसरे स्रोतों के सालाना उत्पादन से भी ज्यादा है। सौर उर्जा के प्रसार में आयी गति ग्रिड के इतर भी हो रही, जिसमें कृषि खास कर ग्रामीण क्षेत्र भी शामिल हैं।
भारत की खेती में सौर उर्जा के इस्तेमाल से एक नए किस्म की क्रांति हुई है। एक अध्ययन के मुताबिक साल 2026 तक कम से कम 30 लाख किसान सौर ऊर्जा से संचालित पम्प का उपयोग करके अपने खेतों के नीचे से हजारों साल से जमा भू-जल सिंचाई के लिए निकाल रहे होंगे। सोलर पम्प के इस्तेमाल से भू-जल सिंचाई के लिए प्रभावी रूप से मुफ्त और अथाह पानी उपलब्ध हो जा रहा है जो छोटे किसानों तक फसलों के उत्पादन में वृद्धि के रूप में प्रभावी है।
पर सोलर पम्प की मदद से भू-जल का अनियंत्रित दोहन क्या वास्तविक रूप से किसानों के हित में है? या पानी के खिलाफ भू-जल के खत्म हो जाने तक ये युद्ध का एलान है, जो धीरे धीरे सोलर पम्प के रूप में हर गांव और यहां तक हर खेत में पहुंच रहा है?
भारत में खेती किसानी हमेशा से मानसून पर निर्भर रही है। ऐसी परिस्थिति में सिंचाई का अन्य कोई भी स्रोत जो किसानों की मानसून पर निर्भरता कम कर दे किसानों के लिए वरदान जैसा है। सौर उर्जा से चलने वाला सोलर पम्प ऐसा ही एक नवाचार था, जिसने ना सिर्फ किसानो को निर्बाध पानी की उपलब्धता सुनिश्चित की और साथ ही साथ महंगे जीवाश्म ईंधन पर से निर्भरता भी कम की।
खासकर गर्म और सूखे क्षेत्रों के किसान के बीच अब सिंचाई के लिए कम लागत वाले और सुलभ सोलर पंप खूब प्रचलित हो रहे हैं, जिससे ना सिर्फ जीवाश्म ईंधन की जरूरत खत्म हो जा रही है, बल्कि बदतर विद्युत आपूर्ति पर निर्भरता का समाधान भी मिल रहा है।
सैद्धांतिक रूप से सोलर पम्प के इस्तेमाल से फसल उत्पादन को बढ़ावा मिलता भी दिख रहा है। लेकिन हर जगह उपलब्ध सोलर पम्प के द्वारा निर्बाध रूप से पानी दोहन करने की अनुमति देने से भारत ही नहीं पूरी दुनिया भर में एक्वाफर्स (भू-जलभर) सूखते जा रहे हैं। सिंचाई सुनुश्चित करने के अभियान के कारण, तेजी से उजाड़ और सूखे भविष्य की ओर बढ़ रहे हैं ।
भारत में आधुनिक जल-प्रबंधन का इतिहास उत्तरी भारत में साल 1837 में मॉनसून की कमी के चलते दोआब में पड़े भीषण अकाल के बाद गंगा नदी के पानी से हरिद्वार से फतेहपुर तक एक लम्बे नहर परियोजना तक जाता है। आजादी तक उत्तर से दक्षिण में परम्परागत जल प्रबंधन के इतर नदियों पर बांध बना कर सिंचाई सुनिश्चित की जाती रही है, हालाँकि यह सिलसिला अब भी जारी है।
भारत में जनसंख्या और अनाज उत्पादन की बीच बढ़ती खाई को पाटने के लिए 70 के दशक में हरित क्रांति का दौर आया और नहरों के विशाल नेटवर्क से हर खेत तक पानी पहुँचाने की कवायद शुरू हुई। कृत्रिम सिंचाई द्वारा प्यासी फसलों को ‘हरित क्रांति’ का पानी पिलाया गया। पर धीरे-धीरे खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के क्रम में नदियां खाली होती गयी।
अब धीरे-धीरे हमारे निशाने पर हजारों सालों से इकठ्ठा भू-जल आया। नहर सिंचाई के साथ-साथ सरकारी मदद और कहीं - कहीं तो नि:शुल्क विद्युत चलित भूजल आधारित पानी के पम्प प्रचलन में आये। और यहीं से भू-जल का बड़े पैमाने पर दोहन शुरू हुआ और पिछली सदी का अंत आते आते क्षेत्र के अनुकूल गेहूँ के अलावा सबसे ज्यादा पानी की जरुरत वाली फसल धान पश्चिम भारत में काफी लोकप्रिय हुई। इसी के साथ भू-जल का स्तर गिरना शुरू हुआ और ये क्रम आज भी जारी है।
इसी क्रम में सौर उर्जा के विस्तार और जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता कम करने के उद्देश्य से अन्य उपयोग के अलावा सोलर पम्प भी सरकारी मदद के साथ चलन में आये। सोलर पम्प काफी तेजी से लोकप्रिय हुआ, खास कर सूखे और गर्म इलाकों में और नतीजा भू-जल स्तर में खतरनाक स्तर तक की गिरावट।
हरियाणा, पंजाब और राजस्थान भू-जल के बेजा दोहन के प्रमुख क्षेत्र है जहां भू-जल विकास 300-400% तक पाया गया है, जिसका मतलब है कि सालाना जितना भू-जल बारिश से रिचार्ज होता है उसका तीन से चार गुणा पानी जमीन से निकल लिया जा रहा है। सोलर पम्प भारत में कम बारिश और सूखा प्रभावित पश्चिमी राज्यों में ज्यादा लोकप्रिय हुआ है।
राजस्थान जैसे मरुस्थली राज्य में किसी अन्य राज्यों के मुकाबले सबसे ज्यादा सोलर पम्प का उपयोग हो रहा है। पिछले एक दशक में, सरकार ने लगभग 100,000 किसानों को सब्सिडी पर सोलर पंप दिए हैं। हालांकि इससे सिंचाई का दायरा बढ़ा है पर साथ साथ अराजक तरीके से पानी के दोहन से ना सिर्फ भू-जल स्तर तेजी से गिर रहे हैं; कहीं-कहीं तो ये स्तर 400 फुट नीचे तक चला गया, बल्कि परम्परागत कृषि पद्धति भी बदल रही है जो एक गंभीर संकट है। और ये केवल राजस्थान की कहानी नहीं है, हर क्षेत्र में ये तेजी से फ़ैल रहा है।
बिना किसी रोक-टोक और नियंत्रण के सब्सिडाइज़ड सोलर पंप से पानी का दोहन पर्यावरणीय संकट के अलावा सामाजिक संघर्ष का जरिया भी बनता जा रहा है जब संपन्न किसान शक्तिशाली सोलर पम्प से पाताल तक से पानी निकाल कर गरीब किसानों पर पानी के लिए मनमाना शर्ते भी थोप रहे हैं।
जहां सोलर पम्प का नवाचार, जीवाश्म ईंधन का विकल्प बनकर, सूखे और उजाड़ क्षेत्रो को खेती लायक बना कर, अनिश्चित मानसून पर से निर्भरता कम कर, छोटे और मझोले किसानो के जीवनयापन सुनिश्चित कर खाद्य सुरक्षा में सहायक हो सकता था, आज केवल अराजक भू-जल दोहन का साधन बन कर रह गया है। आधुनिक कृषि के चलन के कारण पहले से ही सूखने के खतरों से दो चार हजारो सालो से पानी की थाती रहे एक्वाफर्स/भू-जलभर सोलर पम्प की सफलता के कारण अब हमेशा के लिए सूख रहे हैं।
वर्षा आधारित परम्परागत सिंचाई से इतर कृत्रिम सिंचाई खाद्य सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण कड़ी मानी गयी, पर बड़ी स्तर पर सतही जल और भू-जल के अबाध दोहन के कारण ये दोनों प्रणालियाँ अपनी चरम सीमा तक पहुँच गयी। सदानीरा नदियाँ तक सूख रही हैं, भू-जल पाताल में चला जा रहा है। और यह कहानी सिर्फ भारत की नहीं है, पिछले तीन दशकों में, मेक्सिको से मध्य पूर्व और दक्षिण एशिया तक गरम और शुष्क क्षेत्रों में सैकड़ों मिलियन किसान अब सिंचाई के लिए भूमिगत स्रोत पर निर्भर है।
विश्व बैंक के एक अध्ययन के अनुसार दुनिया के 43 प्रतिशत सिंचाई भू-जल आधारित है, कुल भू-जल दोहन का 70% सिचाई की भेंट चढ़ रहा है, जो बारिश से हुए कुल सालाना रिचार्ज से बहुत ज्यादा है। यानी जितना पानी जमीन से निकल रहा है, उससे कम ही सालाना रिचार्ज हो पा रहा है। चालीस देशों के 1700 से अधिक एक्वाफर्स/भू-जलभर के अध्ययन से भी इस बात की पुष्टि होती है कि भू-जल का दोहन उसके सालाना रिचार्ज से बहुत ज्यादा है, तभी तो भारत सहित अफगानिस्तान, ईरान, स्पेन, मेक्सिको, अमेरिका, चिली, सऊदी अरब में भू-जल का स्तर एक मीटर से ज्यादा के दर से नीचे जा रहा है।
देश पहले ही पृथ्वी का सबसे बड़ा भूजल उपभोक्ता है, केवल सिंचाई के लिए ही सालाना वर्षा से लगभग 50 क्यूबिक मील ज्यादा पानी पंप किया जा रहा है। इतना ही नहीं सरकार ने भू-जल दोहन पर सम्यक रोक लगाने की बजाय साल 2026 तक सोलर पम्प की सुलभता बढ़ा कर 35 लाख तक करने का महत्वकांक्षी लक्ष्य रखा है।
इस सन्दर्भ में सरकार की साल 2010 में आयी पहली महत्वकांक्षी योजना ‘जवाहरलाल नेहरु नेशनल सोलर मिशन’ और नयी योजना ‘प्रधानमंत्री ऊर्जा सुरक्षा और उत्थान महाभियान’ सोलर पम्प के लिए 60% तक अनुदान मुहैया करा रही है। भू-जल में आ रही तेजी से गिरावट खाद्य सुरक्षा के लिए एक वैश्विक खतरा है, फिर भी इसे न सिर्फ नजरअंदाज किया जा रहा है बल्कि नीतिगत रूप से सौर ऊर्जा को सुगम और सस्ते विकल्प के रूप में भूजल को खेतों में पहुंचाने के एक साधन के रूप में प्रोत्साहित किया जा रहा है। हम अब भी न सीखने को तैयार है ना ही चेतने को।