ग्राउंड रिपोर्ट: लंबी अवधि की धान का मोह क्यों नहीं छोड़ रहे पंजाब के किसान?

पंजाब के जिन इलाकों में लंबी अवधि की धान लगाई जा रही है, वहां न केवल पानी बल्कि मिट्टी को भी नुकसान पहुंच रहा है
पंजाब के मालवा क्षेत्र में पराली को ले जाता किसान  (फोटो: विकास चौधरी / सीएसई)
पंजाब के मालवा क्षेत्र में पराली को ले जाता किसान (फोटो: विकास चौधरी / सीएसई)
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आने वाले खरीफ सीजन ने पंजाब में मालवा के किसानों को अभी से दुविधा में डाल दिया है। किसानों के बीच यह असमंजस दशकों से इस्तेमाल हो रही लंबी अवधि वाली धान की वेराइटी पूसा 44 को लेकर है। दरअसल, 7 नवंबर, 2023 को सुप्रीम कोर्ट ने पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान सरकारों को पराली जलाने पर रोक न लगाने के लिए न सिर्फ फटकारा था बल्कि बिना नाम लिए पंजाब में उगाई जाने वाली धान की एक खास किस्म को रोकने की तरफ इशारा भी किया था। सुप्रीम कोर्ट का यह इशारा शायद पूसा 44 की तरफ ही था, क्योंकि इससे पहले 4 अक्टूबर, 2023 को पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान ने एक मंच से कहा कि वह अगले खरीफ सीजन से पूसा 44 पर पूरी तरह बंदिश लगा देंगे क्योंकि यह वेराइटी न सिर्फ पंजाब के भूजल की स्थिति को खराब कर रही है बल्कि ज्यादा पराली से पर्यावरण को भी नुकसान पहुंच रहा है।

करीब तीन दशकों से पंजाब के खासतौर से मालवा क्षेत्र के खेतों में गैर बासमती धान में लंबी अवधि वाली वेराइटी पूसा 44 राज कर रही है। ऐसे में सवाल है कि क्या वाकई अब पूसा-44 पंजाब के मालवा क्षेत्र से गायब हो जाएगी? खेतों में पारंपरिक यूरिया डालने की तैयारी करते हुए पंजाब में पटियाला जिले के ककराला गांव के तेजपाल डाउन टू अर्थ से कहते हैं कि “हम पूसा 44 वेराइटी लगाना नहीं छोड़ सकते। धान की इस वेराइटी में भले ही ज्यादा पानी और ज्यादा समय लगता है लेकिन इसमें हमारी ज्यादा उपज की गारंटी होती है। दूसरी और वेराइटियों पर इतनी जल्दी हम भरोसा नहीं कर सकते। सरकार यदि पूसा 44 पर बंदिश लगाती भी है तो हम इसे बंद नहीं कर पाएंगे क्योंकि अभी यह पेट का सवाल है।”


तेजपाल एक सवाल खड़ा करते हैं कि जब ज्यादा पैदा करना था, उस वक्त हरित क्रांति का नारा देकर हम पंजाब के किसानों को ज्यादा उपज वाली किस्में मुहैया कराई गई थीं। क्या तब हमारी खेती किसी को नुकसान नहीं पहुंचा रही थी? एक लंबा अरसा बीत गया है और अब अचानक हमें बिना ठोस विकल्प के भरोसेमंद किस्मों को बंद करने या बदलने की बात कही जा रही है। मालवा क्षेत्र के कई किसान डाउन टू अर्थ से बताते हैं कि 160 दिन में तैयार होने वाली पूसा 44 प्रति एकड़ 40 क्विंटल तक पैदा होती है जबकि 123 दिन में तैयार होने वाली पीआर 126 अधिकतम 35 क्विंटल तक पैदावार दे रही है। पांच क्विंटल तक का अंतर है। इस नुकसान की भरपाई के लिए उनके पास अभी कोई विकल्प नहीं है।

मालवा क्षेत्र के ही एक और जिले संगरूर के कुंद्रा गांव में डाउन टू अर्थ से युवा किसान यादवेंद्र सिंह बताते हैं कि हम जमीदारों से 10 हजार रुपए में एक किल्ला यानी एक एकड़ खेत ठेके पर लेते हैं। ठेके के पैसे निकालने और अपनी मेहनत का नतीजा लेने के लिए यदि हम ज्यादा उपज वाली किस्में नहीं लगाएंगे तो क्या करें? वह बताते हैं कि दो-तीन साल से लुधियाना स्थित पंजाब एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी (पीएयू) की छोटी अवधि वाली पीआर 126 वेराइटी मालवा क्षेत्र में बढ़ी है। हालांकि इसकी उपज पूसा 44 के मुकाबले अब भी कम है। यादवेंद्र बताते हैं कि पूसा 44 भले ही ज्यादा समय, पानी और बिजली की खपत करती है लेकिन आज भी अनाज मंडी और चावल मिलों की यही पसंद बनी हुई है। इसके दाने टूटते नहीं, जबकि छोटी अवधि वाली किस्मों के दाने टूट जाते हैं।

केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय ने पराली प्रबंधन को लेकर 19 नवंबर, 2018 को “प्रमोशन ऑफ एग्रीकल्चरल मैकेनाइजेशन फॉर इन-सीटू मैनेजमेंट ऑफ क्रॉप रेजिड्यू इन स्टेट्स ऑफ पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश एंड दिल्ली” नाम की योजना के तहत समीक्षा के लिए छह सदस्यीय समिति का गठन किया था। इसने 1 जनवरी, 2019 को अपनी रिपोर्ट में बताया कि पंजाब में 3,600 धान मिलों का नेटवर्क है। बरनाला के धनौला मंडी के 74 वर्षीय किसान नजर सिंह डाउन टू अर्थ को बताते हैं कि चावल मिलों का यहां दबदबा है।

पूसा 44 लगाने की एक प्रमुख वजह यह भी है। वह बताते हैं कि पूसा 44 के अलावा जो अन्य वेराइटियां हैं, उनमें नमी की अधिकता होती है जिससे चावल का भाव खराब हो जाता है। इसलिए अभी इसे हम नहीं छोड़ेंगे। हमने सुना है कि सरकार इसे बंद करना चाहती है लेकिन आने वाले सीजन के लिए हमने बीज बचाकर रखे हैं।

नजर सिंह एक और मुसीबत की तरफ ध्यान आकर्षित करते हैं। वह बताते हैं कि पूसा 44 को इसलिए भी किसानों को मना किया जा रहा है क्योंकि उससे ज्यादा पराली होती है जबकि पराली को काटने वाली जो मशीने हैं वह न सिर्फ कम हैं बल्कि उनसे जिन खेतों में कटाई होती है अगर वहां आग न लगाने के कारण बिजाई के बाद धान की फसलों में कीड़े लग जाते हैं। वह बताते हैं कि यदि मशीनें पराली के ऊपर वाले हिस्से (जिसमें पत्ते होते हैं) को काटे तो हम ठूंठ में आग लगाएंगे जिससे धुएं का प्रदूषण बहुत कम हो जाएगा और हमारे खेत भी बढ़िया रहेंगे। वह बताते हैं कि पूसा 44 के प्लांट की ऊंचाई 3.5 फुट होती है जिससे ज्यादा पराली निकलती है जबकि पीआर 126 की ऊंचाई करीब 2.5 फुट व पीआर 128 की ऊंचाई तीन फुट के आसपास है।

पीएयू के डिपार्टमेंट ऑफ प्लांट ब्रीडिंग एंड जेनेटिक्स के जीएस मांगट और बूटा सिंह ढिल्लो अपने अध्ययन पैडी प्रोडक्शन : कंसर्न एंड क्योर्स में किसानों की चावल संबंधी इन परेशानियों को स्वीकार करते हैं। अध्ययन कहता है कि किसानों पर मिलर्स के मुताबिक, चावल की गुणवत्ता बरकरार रखने का दबाव है। हालांकि, वह धान की पैदावार के चलते पर्यावरणीय परेशानियों का भी जिक्र करते हैं। मसलन, पंजाब में प्रतिवर्ष 0.51 मीटर की दर से भूजल नीचे गिर रहा है और कुछ जिलों में यह सालाना 1 मीटर की दर तक पहुंच गया है। इसकी प्रमुख वजह धान के लिए पानी की बढ़ती मांग है। वहीं, अध्ययन के मुताबिक बरनाला, भटिंडा, लुधियाना, मनसा, मोगा, मुक्तसर और संगरूर में 40 से 60 फीसदी तक क्षेत्र लंबी अवधि वाली वेराइटी वाला है। अध्ययन में पीआर 126 और पीआर 121 जैसी किस्मों को बढ़ावा देने की बात कही गई है और एक हिसाब लगाया गया है कि पीआर 126 लगाने से किसान को प्रति एकड़ 176 रुपए और पीआर 121 लगाने से प्रति एकड़ 278 रुपए की बचत हो सकती है। हालांकि, मालवा क्षेत्र में किसानों की पसंद पूसा 44 ही बनी हुई है।

केंद्रीय कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय की ओर से गठित छह सदस्यीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में यह भी बताया कि पूसा 44 किसानों को इसलिए ज्यादा पसंद हैं क्योंकि “यह अन्य किस्मों की तुलना में प्रति हेक्टेयर दो कुंतल ज्यादा उपज देती है। हालांकि इसे हतोत्साहित किया जाना चाहिए।” डाउन टू अर्थ ने पाया कि 2019 के बाद पंजाब में पूसा 44 को हतोत्साहित करने के जो भी प्रयास हुए, उसके नतीजे अभी उत्साहवर्धक नहीं हैं।

40 फीसदी से अधिक गैर सिफारिशी

पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के 2019 से 2023 की धान क्षेत्र के आंकड़ों के विश्लेषण के मुताबिक, पंजाब में करीब 40 फीसदी से अधिक बुआई गैर-सिफारिशी श्रेणी की है। इसमें पूसा 44 का प्रभुत्व सबसे ज्यादा है। आंकड़ों के मुताबिक 2023-24 में 58.18 फीसदी धान सिफारिश श्रेणी में था और 41.82 फीसदी धान गैर सिफारिशी श्रेणी में था। वहीं, इस पांच वर्ष की अवधि में राज्य में कुल 26 फीसदी पूसा 44 के क्षेत्र में कमी आई हालांकि बरनाला, पटियाला, फिरोजपुर, जालंधर, कपूरथला में पूसा 44 का वर्चस्व बना हुआ है। मालवा के संगरूर में भी पूसा 44 में कमी आई है लेकिन अब भी रकबा काफी है (देखें, मालवा में पूसा 44 का वर्चस्व,)।



पीएयू ने 2017 में लंबी अवधि वाली पूसा 44, पीली पूसा को गैर-सिफारिशी श्रेणी में डाला था और केंद्र से इस किस्म को डी-नोटिफाई करने की भी अपील की थी। डाउन टू अर्थ ने कृषि एवं किसान कल्याण मंत्रालय से सूचना के अधिकार(आरटीआई) के तहत यह पूछा कि क्या पूसा 44 को गैर अधिसूचित श्रेणी में डाल दिया गया है? भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के तहत भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आईएआरआई) के आनुवांशिकी संभाग ने इस आरटीआई पर 9 जनवरी, 2024 को अपना जवाब दिया और बताया कि 2 सितंबर, 1994 को अधिसूचित की गई पूसा 44 को अभी तक गैर अधिसूचित नहीं किया गया है। यानी पूसा 44 अभी तक केंद्र के जरिए अमान्य नहीं हुई है।

10 वर्षों में बदलनी चाहिए किस्म

पंजाब में बरनाला स्थित किसान विज्ञान केंद्र के प्रमुख डॉक्टर प्रह्लाद सिंह ने डाउन टू अर्थ को बताया कि किसी अन्य गैर बासमती धान की अपेक्षा पूसा 44 की उपज का ज्यादा होना किसानों को इससे जोड़े रखता है। क्योंकि धान हमारी अनाज वितरण प्रणाली का प्रमुख हिस्सा है और इसकी सरकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीद के साथ अलग एक सुनिश्चित बाजार भी है। वह बताते हैं, “आईसीएआर खुद यह निर्देश देता है कि हर 10 वर्ष में एक किस्म को बदल दिया जाना चाहिए क्योंकि उसमें कई तरह से खराबी आ जाती हैं और उससे नुकसान भी होता है।” वह बताते हैं कि बरनाला तहसील भूजल की उपलब्धता के मामले में डार्क जोन में है। बरनाला के हंडिया गांव में किसानों ने पूसा 44 को जारी रखने की बात डाउन टू अर्थ से बताई, उन्होंने कहा कि इसे अभी नहीं छोड़ेंगे। तीन दशक हो गए और केंद्र द्वारा अब तक पूसा 44 को गैर अधिसूचित नहीं किया जा सका है। कई किसान इसमें बीमारी लगने की भी शिकायत करते हैं।

डाउन टू अर्थ को सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी से यह पता चला कि पूसा 44 न सिर्फ अब भी अधिसूचित श्रेणी में बनी हुई है बल्कि इसके बीज का निर्माण भी जारी है। मसलन, 2019 से 2023 तक कुल पांच वर्षों में पूसा 44 के 53.04 क्विंटल ब्रीडर सीड बनाए गए। ब्रीडर सीड का अर्थ हुआ कि किसी एजेंसी या संस्थान के वैज्ञानिकों ने बीज के प्रथम स्वरूप न्यूक्लियर सीड से जो बीज तैयार किए हों। वहीं, आरटीआई के मुताबिक पूसा 44 के 2,374.4 क्विंटल ट्रुथफुली लेबल्ड सीड्स बनाए गए। यानी जिस बीज को बनाने वाले ने ही सत्यापित किया हो कि यह बीज एकदम ठीक है। बरनाला, संगरूर और पटियाला के कई किसानों ने यह पुष्टि की है कि उन्होंने अगली बार के लिए पूसा 44 के बीजों को बचा रखा है। हालांकि, वह नहीं जानते हैं कि सरकार किस तरह से पूसा 44 की पाबंदी को लेकर कदम उठाएगी।

मालवा का बदलाव

पटियाला के वजीरपुर गांव के 76 वर्षीय किसान चरणजीत सिंह बताते हैं कि उन्होंने पिछले खरीफ में पूसा 44 लगाई थी, आगे वह पाबंदी के चलते शायद इसे न लगाएं। हालांकि वह कहते हैं कि इलाके में इतनी जल्दी किसान इसे बंद नहीं करेंगे। उन्होंने कहा कि पीआर 126 की उपज इससे कम है लेकिन इसमें समय बचता है क्योंकि यह पिछेती बोई जाती है और पूसा 44 से करीब एक महीने पहले काट ली जाती है, जिससे किसान किसी तीसरी फसल को अपना सकते हैं।

पटियाला के ही फतेहपुर तहसील के 42 वर्षीय किसान सुखविंद सिंह अपने आलू के खेतों में समर्सिबल की पावर सप्लाई को ठीक कर रहे हैं, वह डाउन टू अर्थ से बताते हैं कि 1998 में उनके खेतों में 30 फुट पर पानी की उपलब्धता थी। हालांकि, अब यह 170 फुट तक पहुंच चुकी है। वह, पूसा 44 पर अपनी मिश्रित राय रखते हैं। वह कहते हैं कि अब उन्होंने पूसा 44 की जगह धान की पीआर 126 और पीआर 114 लगाना शुरू किया है। इससे वह प्रति एकड़ 36 से 38 कुंतल तक उपज ले रहे हैं। वह बताते हैं कि इससे न सिर्फ एक कीटनाशक का स्प्रे कम करना पड़ता है बल्कि एक महीना का समय और पानी की जरूरत भी कम लगती है। वह बताते हैं कि उन्होंने अब आलू लगाना भी शुरू किया है। वह कहते हैं कि इस क्षेत्र में पूसा 44 को पूरी तरह से किसान नहीं छोड़ेंगे लेकिन सभी ने धीरे-धीरे बदलाव के लिए सोचना शुरू कर दिया है।

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