हरियाणा में एक ओर पानी रसातल में जा रहा है तो दूसरी ओर सतह पर आ रहा है, इन दोनों स्थितियों की वजह धान को माना जा रहा है। इसलिए किसानों से धान छोड़ने की अपील की जा रही है। पहली कड़ी में आपने पढ़ा कि कुछ किसानों ने धान लगाने की बजाय खेत खाली छोड़ दिए। पढ़ने के लिए क्लिक करें । दूसरी कड़ी पढ़ें :
यही वजह है कि दोनों ही परिस्थितियों में किसानों को यह समझ में आने लगा है कि धान का विकल्प तलाशना होगा। यहां तक कि धान का कटोरा कहे जाने वाले करनाल में कुछ किसानों ने बीते सीजन में धान की फसल नहीं लगाई। इसी क्षेत्र के गांव पुंडरक का भूजल स्तर 23.90 मीटर (80 फुट) पर पहुंच चुका है। युवा किसान महिंद्र सिंह ने भी सतपाल की तरह इस साल एक एकड़ पर धान की खेती नहीं की। उन्होंने धान की बजाय ज्वार लगाया। वह अपने मवेशियों के लिए चारे खरीदते थे, लेकिन इस बार उन्होंने खुद ही ज्वार लगाने का फैसला किया।
वह कहते हैं कि ज्वार की लागत न के बराबर है, मेहनत भी नहीं है और नुकसान का भी खतरा नहीं है। इसलिए सरकार की ओर से मिलने वाले 7,000 रुपए उनके लिए पर्याप्त हैं। हालांकि वह मानते हैं कि अगर धान लगाते तो उनका मुनाफा इससे अधिक होता, लेकिन जिस तरह चव्वा (स्थानीय भाषा में भूजल स्तर को चव्वा कहा जाता है) गिरता जा रहा है, यह जरूरी हो गया है कि किसानों को धान की फसल कम करनी होगी। यही वजह है कि उन्हें एक एकड़ में धान की सीधी बुआई (डीएसआर) भी की है। इस विधि में पानी की बचत होती है और सरकार की ओर से “मेरा पानी मेरी विरासत” योजना के तहत डीएसआर अपनाने पर 4,000 रुपए प्रति एकड़ प्रोत्साहन राशि भी दी जाती है। बड़े किसानों के लिए यह योजना काफी काम आ रही है।
कुरुक्षेत्र के काछवा गांव के किसान सुरेंद्र लाठर लगभग 25 एकड़ में खेती करते हैं। जिला कृषि विभाग उन्हें प्रगतिशील किसान मानता है। लाठर बताते हैं कि इस योजना का लाभ वह किसान अच्छे से उठा सकता है, जो बाजार की अच्छी समझ रखता हो। उन्होंने बीते खरीफ सीजन में छह एकड़ में धान की बजाय करेला लगाया। एक एकड़ में 250 क्विंटल करेला निकला। भाव 12 रुपए प्रति किलो मिला। हालांकि भाव कम था, इसलिए वह कहते हैं कि सब्जियों का भी न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया जाए तो छोटे किसान भी धान छोड़कर सब्जी लगा सकते हैं। करनाल ग्रामीण के किसान इशाम सिंह ने दो साल से लगातार धान की खेती की बजाय ज्वार लगा रहे हैं।
वह ज्वार का इस्तेमाल अपने मवेशियों के लिए तो करते ही हैं, बाकी बचा हुआ चारा गौशाला में दान कर देते हैं। 62 वर्षीय इशाम कहते हैं कि वे दो भाई हैं। दोनों भाइयों के पास 15 एकड़ कृषि भूमि है। कृषि विभाग के अधिकारियों ने उन्हें समझाया कि पानी की बचत के लिए सरकार ने धान की बजाय दूसरी फसल लगाने पर सरकार 7,000 रुपए प्रति एकड़ दे रही है तो उन्होंने एक एकड़ में धान की खेती छोड़ कर ज्वार लगाया। हालांकि इससे उन्हें आर्थिक नुकसान ज्यादा हुआ, लेकिन आने वाले समय के लिए पानी बचाना बहुत जरूरी है, इसलिए उन्होंने धान छोड़ना बेहतर समझा।
सीधी बिजाई बेहतर विकल्प
धान की सीधी बिजाई यानी डीएसआर को वैज्ञानिक एक बेहतर विकल्प बता रहे हैं। सरकार के आंकड़े बताते हैं कि किसानों ने खरीफ सीजन 2022 के दौरान 72,000 एकड़ में सीधी बीज वाली चावल विधि अपनाकर 31,500 करोड़ लीटर पानी की बचत की और राज्य सरकार ने ऐसे किसानों को 29.16 करोड़ रुपए की प्रोत्साहन राशि दी। बढ़ते रुझान को देखते हुए मुख्यमंत्री मनोहर लाख खट्टर ने अपने बजट भाषण में वर्ष 2023-24 के दौरान 2 लाख एकड़ क्षेत्र को डीएसआर के तहत लाने का लक्ष्य रखने की घोषणा की है।
भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान, नई दिल्ली से सेवानिवृत प्रधान वैज्ञानिक (जेनेटिक्स और साइटोजेनेटिक्स) विरेंद्र सिंह लाठर कहते हैं कि विश्व खाद्य संगठन की रिपोर्ट में बताया गया है कि हरित क्रांति के दौर में सरकार द्वारा अनुशंसित रोपाई धान की तकनीक से लागत में बढ़ोतरी और ऊर्जा- भूजल संसाधनों की भारी बर्बादी हुई, जबकि पारंपरिक विधि डीएसआर थी, जिसमें 40 प्रतिशत पानी कम लगता है। इसका मतलब है कि हरियाणा में अभी जितने पानी की कमी है, वह पूरी हो सकती है। डीएसआर तकनीक से पराली की समस्या का भी समाधान हो जाता है। वह कहते हैं कि किसान धान की फसल नहीं छोड़ सकता, क्योंकि धान उसकी आर्थिकी से जुड़ी है।
वह प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना में दी गई जानकारी का हवाला देते हुए बतात हैं कि धान की फसल किसानों को सालाना 1,01,190 रुपए प्रति हेक्टेयर शुद्ध लाभ देती है। दूसरी खरीफ फसलों जैसे मक्का (51,892 रुपए), बाजरा (48,799 रुपए), मूंग (45,405 रुपए) का शुद्ध लाभ धान के मुकाबले लगभग आधा है। लाठर कहते हैं कि सरकार धान छोड़ने पर 7,000 रुपए देने की बजाय डीएसआर अपनाने वाले किसानों को यह रकम दे, ताकि अधिक से अधिक किसान डीएसआर को अपनाएं।
इशाम सिंह ने पानी बचाने के लिए दो साल से अपने सारे खेतों में धान की सीधी बुआई (डीएसआर) कर रहे हैं। वह दावे के साथ कहते हैं कि धान की सीधी बुआई से उन्हें उपज में कोई नुकसान नहीं हुआ, बल्कि लगभग 40 प्रतिशत पानी और लागत की बचत हुई। हालांकि डीएसआर लगाने पर खरपतवार की समस्या अधिक रहती है, लेकिन समय पर देखरेख से इस समस्या से मुक्ति मिल जाती है। डीएसआर वह तकनीक है, जो पारंपरिक है और धान के बीजों की सीधे बुआई होती है। इसके लिए नर्सरी बनाने की जरूरत नहीं पड़ती।
कुरूक्षेत्र के लाडवा ब्लॉक के गांव गूड़ा निवासी साधु सिंह कहते हैं कि उनके गांव में पिछले तीन साल से धान की सीधी बुआई का चलन बढ़ा है। वह खुद ढाई एकड़ में सीधी बुआई कर रहे हैं। उनके पास पुख्ता प्रमाण तो नहीं हैं, लेकिन शायद इसी वजह से पिछले तीन साल से गांव का जलस्तर नीचे नहीं गया है।
चुनौतियां
मेरा पानी मेरी विरासत योजना के तहत धान की बजाय दूसरी फसलें लगाने से पहले किसानों को सोचना पड़ता है। धान की बजाय ज्वार लगाने वाले करनाल के 60 वर्षीय आजाद सिंह कहते हैं कि ज्वार का इस्तेमाल चारे के लिए होता है। वे लोग चारे की फसल बरसीम भी लगाते हैं, लेकिन यह चारा बिकता नहीं है। यदि चारा 400 रुपए क्विंटल की दर से बिकने लगे तो किसान धान की बजाय खुशी-खुशी चारा लगाने लगेंगे।
भारतीय किसान यूनियन (चढूनी) के आईटी सेल के प्रदेश प्रभारी संदीप सिंगरोहा कहते हैं कि पानी बचाने के लिए सरकार के प्रयास तो अच्छे हैं, लेकिन सच्चाई यह है कि यह सब केवल कागजों में ही चल रहे हैं। तीन साल पहले उनके गांव के किसानों ने इस योजना के तहत धान छोड़कर मक्का लगाया था, लेकिन मक्के की खरीद न होने के कारण किसानों को औने पौने दामों में बेचनी पड़ी। इसके बाद उन किसानों ने अगले साल धान ही लगाने का फैसला किया। हालांकि करनाल के कृषि विभाग के उपनिदेशक वजीर सिंह कहते हैं कि जो किसान मेरा पानी मेरी विरासत के तहत खेती धान की बजाय दूसरी फसल लगाते हैं तो उस फसल को सरकार प्राथमिकता के साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदती है या भावांतर योजना के तहत किसान को बाजार भाव के समान मुआवजा देती है।
खाली खेत से होगी कितनी खुशहाली
खेत खाली फिर भी खुशहाली योजना को लेकर मन में सवाल जरूर उठते हैं, लेकिन यह योजना राज्य के जलभराव वाले इलाकों के लिए वरदान साबित हो सकती है। झज्जर जिले के कृषि विभाग के तकनीकी अधिकारी ईश्वर जाखड़ कहते हैं कि जिन इलाकों में जल जमाव की समस्या है वहां की मिट्टी खराब होती जा रही है, क्योंकि बारिश के बाद पानी तो वाष्प बनकर उड़ जाता है, लेकिन पानी के साथ आए प्रदूषक तत्व जमीन में समा जाते हैं। जिले में लगभग 20,000 एकड़ ऐसा है, जहां तीन से चार महीने पानी खड़ा रहता है। इसे बाढ़ प्रभावित क्षेत्र कहा जाता है। इस क्षेत्र में धान की खेती छोड़ने से जमीन में सुधार होगा। वह बताते हैं कि बीते खरीफ सीजन में जिले में 36 किसान ऐसे हैं, जिन्होंने धान बोने की बजाय खेत खाली छोड़े हैं।
वहीं हरियाणा के कृषि निदेशालय द्वारा सूचना का अधिकार कानून के तहत दी गई जानकारी के मुताबिक पूरे राज्य में खरीफ 2021 में 2061 किसानों से अपने खेत खाली छोड़े, जबकि 2022 में ऐसे किसानों की संख्या बढ़कर 2186 हो गई। हालांकि जगमेंद्र सिंह कहते हैं कि हम लोग भारी मन से खेत खाली छोड़ने के लिए तैयार तो हो गए हैं, लेकिन अब तक हमें पैसा नहीं मिला है। सरकार को न केवल समय से पैसा देना चाहिए, बल्कि हमारे खेतों की मिट्टी में सुधार के लिए ठोस उपाय करने चाहिए और धान की बजाय दूसरी फसल लगाने पर उनकी निर्धारित कीमत पर खरीद सुनिश्चित की जाए, ताकि हमें देखते हुए और किसान भी अपने खेत खाली छोड़ने के लिए आगे आएं।