जमीनी सच: भूजल स्तर में सुधार आंकड़ों की बाजीगरी!

भारत में भूजल स्तर में वृद्धि भ्रामक हो सकती है, क्योंकि नए मूल्यांकन के तरीके वार्षिक रिचार्ज के आंकड़ों को बढ़ा-चढ़ाकर बताते हैं और जमीनी सत्यापन की आवश्यकता खत्म कर दी गई है
2017 में केंद्रीय भूजल बोर्ड ने भारत में भूजल विकास के चरण की गणना करने के लिए एक नई पद्धति का उपयोग करना शुरू किया
2017 में केंद्रीय भूजल बोर्ड ने भारत में भूजल विकास के चरण की गणना करने के लिए एक नई पद्धति का उपयोग करना शुरू किया
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एक दशक तक भूजल स्तर में गिरावट होने के बाद भारत में भूजल विकास के बारे में सोचा गया। क्योंकि वार्षिक भूजल उपलब्धता का अनुपात 2013 में 62 प्रतिशत तक पहुंच गया था। वहीं 2017 तक आते-आते यह आंकड़ा 63.33 प्रतिशत जा पहुंचा। हालांकि, 2023 में हुए सबसे हालिया सरकारी मूल्यांकन के अनुसार, स्थिति में सुधार दिखाई देता है।

वहीं दूसरी ओर विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि यह सुधार जमीनी स्तर पर हुए सुधार की सही तस्वीर दिखने के बजाय संख्याओं की बाजीगरी हो सकता है। ध्यान रहे कि विशेषज्ञों का तर्क है कि 2017 में शुरू की गई भूजल मूल्यांकन पद्धति में हुए बदलाव के बाद सुधार की छवि को बढ़ा चढ़ाकर पेश किया गया है।

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इस संशोधित पद्धति ने भूजल आकलन में विचार किए गए क्षेत्र को विस्तारित किया जिससे महत्वपूर्ण भूजल उपलब्धता का अनुमान प्राप्त हुआ। ध्यान रहे कि महत्वपूर्ण रूप से जल स्तर के जमीनी सत्यापन की आवश्यकता को भी हटा दिया गया, जिससे रिपोर्ट दिए गए आंकड़ों की सटीकता पर भी सवाल उठे हैं।

भारत में पहली बार 1979 में भूजल का वैज्ञानिक मूल्यांकन शुरू किया गया। केंद्र सरकार ने कार्यप्रणाली विकसित करने के लिए 1984 में ग्राउंडवाटर एस्टिमेशन कमिटी (जीईसी) की स्थापना की। 1997 में भूजल आकलन को आसान बनाने के लिए कार्यप्रणाली में संशोधन किया गया।

2015 में बनी नई जीईसी ने कार्यप्रणाली को और अधिक व्यापक बनाने का दावा करते हुए इसमें फिर से संशोधन किया। उत्तर प्रदेश स्थित ग्राउंड वाटर एक्शन ग्रुप के संस्थापक रवींद्र स्वरूप सिन्हा कहते हैं, “दरअसल नई पद्धति में ऐसे मौलिक परिवर्तन किए गए हैं जो भूजल की एक भ्रामक तस्वीर पेश करते हैं।”

नोट: *जीईसी : ग्राउंडवाटर एस्टिमेशन कमिटी, स्रोत: “ नेशनल कम्पाइलेशन ऑन डायनामिक ग्राउंडवाटर रिसोर्सेज ऑफ इंडिया” रिपोर्ट, केंद्रीय भूजल बोर्ड

अंतर ही अंतर

भूजल स्तर का सटीक आकलन करने के लिए दो मुख्य मापों की आवश्यकता होती है। एक है उपलब्ध भूजल और दूसरा कृषि, उद्योग और घरेलू उपयोग के लिए निकाली गई मात्रा। इन मूल्यों को विभाजित करने से भूजल विकास के स्तर का पता चलता है। 1997 की कार्यप्रणाली में गतिशील भूजल संसाधनों पर ध्यान केंद्रित किया गया था। उप-भूमि क्षेत्रों में स्थित भूजल, जिसकी प्रतिवर्ष वर्षा और सतही जल द्वारा भरपाई की जाती है।

भ्रमित आंकड़े

2015 की कार्यप्रणाली में गतिशील भूजल और जलभृतों (एक्वीफर्स) के भीतर स्थिर भंडारण दोनों शामिल हैं। ये भंडारण आमतौर पर केवल दीर्घकालिक प्रभावों पर प्रतिक्रिया करते हैं और इनकी सालाना आपूर्ति नहीं होती। सिन्हा बताते हैं कि गणना में यह मौलिक परिवर्तन “उपलब्ध भूजल की कुल मात्रा को तुरंत बढ़ा सकता है,” वह भी जमीन पर कोई महत्वपूर्ण सुधार हुए बिना।

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भूजल पुनर्भरण के कई अन्य स्रोतों को भी शामिल किया गया है। हालांकि वर्षा प्राथमिक पुनर्भरण स्रोत बनी हुई है, लेकिन भूजल को पहाड़ी नदियों, नहरों, तालाबों और टैंकों से भी योगदान मिलता है। पहले की कार्यप्रणाली विश्वसनीय आंकड़ों की कमी के कारण इन स्रोतों को शामिल करने से बचती थी।

हालांकि, 2015 की रूपरेखा उन्हें शामिल तो करती है, लेकिन यह स्वीकार भी किया जाता है कि अधिकांश क्षेत्रों के लिए विश्वसनीय आंकड़े उपलब्ध नहीं है। इन स्रोतों का अनुमान लगाने के लिए “उचित अनुमान” किए जाते हैं और आशंका है कि इससे पुनर्भरण के आंकड़ों में गड़बड़ी आती है।

अनुमानित भूजल पुनर्भरण में स्थिर सकारात्मक वृद्धि 2017 में 431.89 बिलियन क्यूबिक मीटर (बीसीएम) थी जो कि 2023 में 449.08 बीसीएम तक जा पहुंची। नई पद्धति ने रिपोर्ट किए गए भूजल निष्कर्षण को भी प्रभावित किया है। इसमें 2017 की तुलना में स्पष्ट रूप से कमी आई है। जहां निष्कर्षण के लिए गणना प्रक्रिया समान बनी हुई है, वहीं दूसरी ओर एक महत्वपूर्ण सत्यापन के चरण को हटा दिया गया है। पिछली प्रणाली के तहत एक बार भूजल विकास दरों की गणना हो जाने के बाद माॅनसून से पहले और बाद में भूजल स्तर का भौतिक सत्यापन किया जाता था। यदि महत्वपूर्ण उतार-चढ़ाव मिलते थे तो पुनर्मूल्यांकन अनिवार्य होता था। रिपोर्ट किए गए निष्कर्षण आंकड़ों को मान्य करने के लिए यह आवश्यक था। हालांकि वर्तमान में फील्ड सत्यापन न होने का मतलब है कि निष्कर्षण दरों को कम करके आंके जाने का खतरा है जो एक विकृत तस्वीर पेश करता है।

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उत्तर प्रदेश भूजल विभाग के पूर्व वरिष्ठ जलविज्ञानी सिन्हा का तर्क है कि भारत का भूजल निष्कर्षण पहले ही महत्वपूर्ण सीमाओं को पार कर चुका है। जमीनी स्तर पर सत्यापन न होने की स्थिति में वास्तविक हालात रिपोर्ट की गई स्थिति से कहीं अधिक खराब हो सकती है। उन्होंने चेतावनी देते हुए कहा, “जलभृतों को होने वाला नुकसान अदृश्य रहेगा।” उन्होंने आगे यह भी कहा कि विभिन्न क्षेत्रों में भूजल निकासी दरों पर नजर रखने के लिए कोई प्रभावी तंत्र नहीं है। यदि प्रभावी तंत्र हो तो इसमें सुधार संभव है।

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