और तेज करने करने होंगे पानी को बचाने के प्रयास

जल भंडारों के बेहतर भविष्य के लिए स्थानीय समुदायों को अधिक अधिकार दिए जाने की आवश्यकता है
और तेज करने करने होंगे पानी को बचाने के प्रयास
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भारत में लगभग 24 लाख जल स्रोत हैं। यह निष्कर्ष देश के पहले जल निकाय गणना (वाटर बॉडी सेंसस) में सामने आया है। इन जल स्रोतों में बारिश और भूजल-पुनर्भरण किए जाने वाले जल स्रोत दोनों ही शामिल हैं।

केन्द्रीय जलशक्ति (जल संसाधन) मंत्रालय के द्वारा की गई इस गणना ने सभी जल स्रोतों की जियो-टैगिंग करते हुए छाया चित्रों और अक्षांश और देशांतर के आधार पर सभी तालाबों, टैंकों, चकबंधों और जल-भंडारों को एक-दूसरे से जोड़ दिया है।

सर्वेक्षण के अनुसार 83 प्रतिशत जल स्रोतों का उपयोग मत्स्य-पालन, सिंचाई, भूजल-पुनर्भरण और पेयजल के लिए किया जाता है। इस रिपोर्ट में यह भी स्पष्ट किया गया है कि आम धारणा के विपरीत इस गणना में केवल 1.6 प्रतिशत जलाशयों पर अतिक्रमण पाया गया है।

इन जलाशयों के कैचमेंट एरिया (जलग्रहण क्षेत्र) की स्थिति के बारे में आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, जिससे यह निर्धारित करने में सहायता मिल पाए कि कितने भूजल को पुनर्भरण (रिचार्ज) किया जा रहा है। लेकिन यह तय है कि यह गणना जलवायु संकट के इस वर्तमान समय में एक महत्वपूर्ण पहल है।

हम यह अच्छी तरह से जानते हैं कि पहले की तुलना में बारिश की स्थिति और अधिक अनिश्चित होने की आशंका बढ़ती जा रही है। भारत में मॉनसून (जिसे हमारा असली वित्त मंत्री भी माना जाता है) अब कहीं अधिक प्रचंड हो गया है।

इसका सीधा अर्थ है कि बरसात कुछ गिने-चुने दिनों में हो रही है और वो भी बहुत तेज और धुआंधार होती है। इसलिए हमारे लिए यह बेहद जरूरी है कि जहां भी और जितनी भी बारिश हो, हम उसकी एक-एक बूंद को इकट्ठा कर लें।

इस दृष्टि से भी इस जलनिकाय गणना को जल स्रोतों की संख्या बढ़ाने और वर्तमान जलाशयों का जीर्णोद्धार के लिए सुनियोजित तरीकों का उपयोग करने की आवश्यकता है, ताकि वे बरसात के पानी का अधिक से अधिक भंडारण कर भूजल-स्तर को बढ़ा सकें। अनावृष्टि या सूखे के लंबे मौसम में यही जल भंडार हमारे काम आएंगे।

अपरिहार्य रूप से हम हर साल कमरतोड़ विनाशकारी सूखे और उसके वैकल्पिक वर्ष प्रलयंकारी बाढ़ के दुष्चक्र में फंसने के लिए विवश हैं। लेकिन सच यह है कि हमारे लिए यह दुष्चक्र अब एक “न्यू नार्मल” है और नदियों के जलविज्ञान पर इसके घातक असर होंगे।

बाढ़ और सूखे की इस भयावहता को घटाने का बस एक ही उपाय है, बारिश के पानी का भंडारण करने के लिए लाखों लाख की तादाद में नए जलाशयों का निर्माण और उनको आपस में जोड़ने का जुनून। इस योजना को साकार रूप देकर ही बाढ़ के अतिरिक्त पानी को सूखे की आपदा से निबटने के लिए संचयन किया जा सकता है।

हमारे जल का भविष्य पानी के उपयोग के प्रति हमारे विवेक पर निर्भर है। इस सबक को हमें प्राचीन रोमा (रोम) और ईदो (वह नगर जिससे टोक्यो बना) के दिलचस्प प्रसंगों से सीखने की आवश्यकता है।

रोमवासी विशाल जल सेतुओं का निर्माण करते थे, जो उनकी बस्तियों में पानी पहुंचाने के लिए दस-दस किलोमीटर तक फैले होते थे। आज के दिन भी ये जलाशय उनके समाज में जल प्रबंधन से संबंधित एक सर्वव्यापी प्रतीक हैं। 

विशेषज्ञों ने रोमनों की इसलिए प्रशंसा की है, क्योंकि उन्होंने अपने लिए जलापूर्ति की योजना बनाने में बड़े कौशल का परिचय दिया, लेकिन ये जल सेतु उनके कौशल की ओर नहीं, बल्कि महान रोमनों के पर्यावरणीय कुप्रबंधन की ओर संकेत करते हैं। रोम को टाइबर नदी के किनारे बसाया गया था। इसलिए इस शहर को किसी अन्य जलसेतु की आवश्यकता नहीं थी।

लेकिन चूंकि रोम का कचरा सीधे टाइबर में बहाया जाता था, इसलिए नदी प्रदूषित हो गई थी और दूरदराज से पानी लाने की जरूरत पड़ गई। जल के स्रोत कम थे, लिहाजा कुलीनों ने गुलामी की प्रथा का उपयोग उन स्रोतों के दोहन के लिए किया।

दूसरी तरफ़ परंपरावादी जापानियों ने अपना कचरा नदियों में कभी नहीं बहाया। उन्होंने उन कचरों को प्राकृतिक रूप में सड़ने दिया और उनका उपयोग खेतों में खाद के रूप में किया नदियों के अलावा भी ईदो में जल के अन्य स्रोतों की कमी नहीं थी। उनकी जलापूर्ति की व्यवस्था किसी प्रकार के सामाजिक भेदभाव से रहित थी।

इस बीच अच्छी ख़बर यह है कि हमारी जल साक्षरता में पहले की तुलना में वृद्धि हुई है। पिछले दशकों में देश ने जल प्रबंधन के बारे में महत्वपूर्ण सबक सीखे हैं और एक नया नजरिया विकसित किया है। 80 के दशक के अंतिम हिस्से तक जल प्रबंधन सामान्यतः सिंचाई परियोजनाओं तक ही सीमित रहा।

इस अवधि में मुख्य रूप से बांध और नहरें बनाई गईं ताकि लंबी दूरी तक जल का भंडारण और जलापूर्ति की जा सके। लेकिन उसके बाद ही देश को अस्सी दशक के आखिर में एक बड़े अकाल से जूझना पड़ा और यह स्पष्ट हो गया कि केवल बड़ी परियोजनाओं के माध्यम से पानी की मात्रा को बढ़ाना पर्याप्त नहीं है।

इसी समय सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट ( सीएसई ) ने भी अपनी रिपोर्ट “डाइंग विजडम” प्रकाशित की। रिपोर्ट में भारत की पारिस्थितिकी विविधता वाले क्षेत्रों बरसात के पानी के भंडारण के लिए उपयोग आने वाली पारंपरिक तकनीकों का उल्लेख किया गया था।

रिपोर्ट का प्रचार वाक्य ( स्लोगन ) था– बारिश एक नहीं, बल्कि अलग-अलग जगहों पर होती है और उसकी जरूरत भी अलग-अलग जगहों पर है, इसलिए बरसात जब और जहां हो, उसके पानी को तब और वहीं बचाने की जरूरत है।

आज, जल स्रोतों को बनाने और उनको पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से अनेक कार्यक्रम बनाए गये हैं। बड़ी संख्या में जलाशयों के निर्माण कार्य में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना पहले से ही महत्वपूर्ण योगदान दे रही है।

इसके अलवा अभी सरकार ने मिशन अमृत सरोवर की घोषणा की है जिसके अंतर्गत भारत की स्वतंत्रता-प्राप्ति के 75 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में देश के प्रत्येक जिले में 75 जल स्रोतों को विकसित और पुनर्जीवित करने की योजना है।   

जल प्रबंधन के विकेंद्रीकरण के प्रति रूचि के बाद भी यह तय है कि अपने भविष्य को सुरक्षित करने के लिए पर्याप्त काम नहीं कर रहे हैं। इसकी असली वजह यह है कि भूमि और जल के विषय में नीति-निर्माण में हमारी नौकरशाही में एकरूपता नहीं है।

तालाबों के रखरखाव की जिम्मेदारी एक एजेंसी की है, जबकि निकासी और कैचमेंट एरिया का उत्तरदायित्व दो भिन्न एजेंसियों पर है। पानी के संरक्षण के लिए इन नियमों को बदलने की जरूरत है।

जल स्रोतों पर स्थानीय समुदायों के नियंत्रण का विस्तार कर जल प्रबंधन के काम को अधिक कारगर तरीके से किया जा सकता है और इसके लिए लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करना और अधिकारों का हस्तांतरण आवश्यक है।  

लेकिन इन सभी बातों से ज़्यादा जरूरी यह है कि मात्रा की दृष्टि से पानी का उपयोग कम करें और उसकी एक-एक बूंद को सतर्कता पूर्वक खर्च करें। इसके लिए सिंचाई के तौर-तरीकों से लेकर घरेलू उपकरणों और खानपान की आदतों में बदलाव लाने की जरूरत है, ताकि हम अपनी खाद्यान्न फसलों का पानी की दृष्टि से मितव्ययी होकर चयन कर सकें।

यह उपयुक्त समय है, जब आने वाले दशक में हम अपने अर्जित अभ्यासों से सबक लेकर भारत में पानी की कहानी को फिर से लिख सकें। यह बहुत आसान है। इसके लिए हमें इस काम को अपने जीवन का एकमात्र बड़ा लक्ष्य बनाना होगा।

हमें यह याद रखना होगा कि पानी का संबंध हमारी आजीविका से है। इसका संबंध हमारे भोजन और पोषण से है। इसका संबध मनुष्य के भविष्य से है।

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