राजस्थान के एक गांव ने जल संकट के समाधान का रास्ता दिखाया है। भीलवाड़ा जिले के मांडलगढ़ ब्लॉक में स्थित अमरतिया गांव ने पिछले 20 वर्षों से कोई बोरवेल नहीं होने दिया है। यह काम सरजू बाई मीणा की अगुवाई में हुआ।
65 वर्षीय सरजू बाई कभी स्कूल नहीं गईं, लेकिन पर्यावरण संरक्षण की चलती-फिरती पाठशाला हैं। उन्होंने 23 वर्ष पहले अपने गांव को जल संकट और चारे की कमी से उबारने का बीड़ा उठाया था। उनकी इस काम में भरपूर मदद और मार्गदर्शन किया गैर लाभकारी संगठन फाउंडेशन ऑफ ईकोलॉजिकल सिक्युरिटी (एफईएस) ने।
सरजू बाई ने एफईएस की मदद से सबसे पहले देवनारायण जल ग्रहण विकास समिति गठित की और ग्रामीणों के साथ लगातार बैठकें कर उन्हें चारागाह के विकास के लिए प्रेरित किया। ग्रामीणों की मदद से कुछ वर्षों में लगभग 50 हेक्टेयर बंजर चारागाह को हरे भरे जंगल में तब्दील कर दिया गया।
चारागाह के विकास के साथ-साथ गांव में जल संरक्षण का काम भी समानांतर रूप से चला। सरजू बाई ने ग्रामीणों, खासकर महिलाओं को पानी की अहमियत समझाकर उन्हें न केवल संवेदनशील बनाया बल्कि सामंती व्यवस्था वाले गांव में महिलाओं को जल संरक्षण के लिए अग्रिम पंक्ति में खड़ा किया और आगे बढ़कर उनकी अगुवाई भी की।
सरजू बाई के नेतृत्व में बनी देवनारायण जल ग्रहण विकास समिति ने पानी को संरक्षित करने के कुछ ऐसे कदम उठाए जिससे पूरा गांव जल स्वावलंबी बन गया। सामूहिक प्रयासों और ग्रामीणों के श्रमदान से गांव में चार एनिकट बनाए गए जिससे जानवरों को पानी मिला ही, साथ ही भूजल स्तर में वृद्धि होने से लगभग मृत हो चुके कुएं भी जिंदा हो गए।
इस समय तक ग्रामीणों को लगने लगा था कि बोरवेल जल संकट की असली वजह है, इसलिए उन्होंने लगभग 20 साल पहले नए बोरवेल पर ही प्रतिबंध लगा दिया। महिलाओं ने उस समय गांव के मुखिया तक को बोरवेल नहीं करने दिया था। जब बोर करने वाली मशीन आई तो 30-35 महिलाएं उसके सामने लेट गईं और उसे वापस भेजकर ही दम लिया। इन महिलाओं का नारा था, “मरो या मारो लेकिन गांव में बोरिंग किसी भी कीमत पर मत होने दो।”
मौजूदा समय में गांव में 4-5 बोरवेल ही हैं जो प्रतिबंध से पहले हैं। समिति ने बोरवेल से खेतों की सिंचाई पर भी रोक लगा रखी है। गांव के लोग पीने का पानी कुएं से ही लेते हैं। सरजू बाई की अगुवाई में शुरू हुए इन प्रयासों की बदौलत गांव में 20 फीट पर पानी उपलब्ध है।
वहीं दूसरी तरफ पड़ोसी गांव बदलखा और धाकरखेड़ी में जहां जल संरक्षण के ऐसे प्रयास नहीं हुए और बोरवेल से पानी निकालने का सिलसिला बदस्तूर जारी है, वहां 200-250 फीट की गहराई पर भूजल पहुंच गया है। साथ ही इन गांवों में कुएं भी विफल हो चुके हैं। सरजू बाई गर्व के साथ कहती हैं, “अपने गांव में हमने अकाल का नामोनिशान मिटा दिया है।” वह प्रकृति बचाओ, शामलात बचाओ, पानी बचाओ, जीवन बचाओ, समय बचाओ के मंत्र के साथ आगे बढ़ रही हैं।
अमरतिया गांव के नवलराम धाकड़ कहते हैं कि दो दशक पहले गांव में भूजल इतना गिर गया था कि हैंडपंप को एक घंटा चलाने के बाद पानी आता था। लेकिन बोरवेल पर प्रतिबंध और जल संरक्षण की संरचनाएं बनाने से पानी की समस्या पूरी तरह खत्म हो गई। अब भीषण गर्मी में भी पानी की किल्लत नहीं होती। सरजू बाई की सहयोगी राम बाई कहती हैं कि गांव में पर्यावरण संरक्षण की शुरुआत लगभग 50 हेक्टेयर के चारागाह के विकास से शुरू हुई। कुछ सालों में यह चारागाह जंगल में तब्दील हो गया और लोगों की चारे, जलावन लड़की की जरूरतें पूरी करने लगा। इसके बाद जल संरक्षण पर प्राथमिकता के आधार पर काम हुआ। अमरतिया के ग्रामीण अपने गांव से दो किलोमीटर दूर तक किसी को बोर नहीं करते थे, चाहे वह दूसरे गांव के लोग ही क्यों न हों। उन्होंने दूसरे गांवों में कई बोर का काम बंद करवाया है।
गांव को जल स्वावलंबी बनाने के लिए सरजू बाई को पिछले साल संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा सम्मानित भी किया जा चुका है। इस सम्मान के लिए देशभर की कुल 41 महिलाओं को चुना गया जिन्होंने जमीनी स्तर पर जल संरक्षण पर काम किया। सरजू बाई के लिए पानी दूध की तरह पवित्र, शुद्घ और बेशकीमती है।
वह मानती हैं कि पानी का दोहन रुकना चाहिए क्योंकि इससे किसी की मौलिक जरूरत छिन जाती है। पर्यावरण संरक्षण पर सरजू बाई के प्रयासों के कारण उन्हें पगड़ी पहनाकर सम्मानित किया जा चुका है। इसलिए उन्हें राजस्थान ही पहली टर्बन महिला के नाम से भी बुलाया जाता है।